गत दिनों
बिरसा
कृषि
विश्विद्यालय,
राँची
के
सेंटरल
लाइब्रेरी
में
कुछ
वक्त
बिताने
का
मौका
मिला.
खूब
सारी
कृषि
विज्ञान
की
किताबें,
खूब
सारी
जगह,
सुन्दर
और
शांतिपूर्ण
प्राकृतिक
वातावरण.
हरियाली
के
साथ
बगल
में
बहती
जुमार
नदी.
राजनैतिक
रूप
से
भले
ही
करप्शन
पर
करप्शन
हो
( हलाकि ये हाल
तो
पुरे
मुल्क
का
ही
है.
कहीं
कम
कहीं
ज़्यादा.
) किन्तु प्राकृतिक
रूप
से
झारखण्ड
एक
सुन्दर
राज्य
है
ढेर
सारे
पहाड़-पठार,
पहाड़ी
नदियाँ-झरने
और
हरियाली
से
सराबोर.
पुस्तकालय
में
इस
वक्त
लगभग
पूरी
तरह
खाली
है
और
मरघट
जैसा
सन्नाटा
पसरा
है.
जो
मेरे
जैसे
पाठक
के
लिए
एक
पढाकू
वातावरण
का
पुरज़ोर
निर्माण
कर
रहा
था.
किताबों
के
प्रति
लोगों
का
प्रेम
बढ़ा
है
या
घटा
है
इसका
अनुमान
हम
जैसा
आदमी
कैसे
लगा
सकता
है!
प्रकाशक
एक
तरफ़
रोना
रोता
है
दूसरी
तरफ़
उसकी
चर्बी
दिनों
दिन
बढ़ाती
ही
जाती
है.
लेखकों
की
फटीचरी
पहले
की
तुलना
में
ज़रा
कम
हीं
है.
अब
तो
अदना
सा
लेखक
भी
एकाध
बार
हिंदी
की
सेवा
करने
विदेश
निकाल
ही
जाता
है.
हाँ
आदर्शवादी
इंसान
और
आदर्शवादी
लेखक
की
जगह
आज
भी
हाशिया
ही
है.
बुकशेल्फ
में
मार्क्स
की
पूंजी
का
एक
भाग
दम
तोडती
अवस्था
में
अपनी
फूलती
सांसों
पर
काबू
पाने
की
उम्मीद
में
पड़ा
है.
बाकि
भाग
मनमोहन
देसाई
की
फिल्मों
की
तरह
कुम्भ
के
मेले
में
बिछड़
चुके
हैं
जिसका
पता
‘शायद’ किसी को
भी
नहीं.
पुस्तकालय
में
किताबों
की
ज़िम्मेदारी
सम्हाले
व्यक्ति
को
नहीं
पता
कि
पूंजी
कितना
भाई-बहन
(भाग) है और
इसके
माँ-बाप
(लेखक) कौन हैं.
ऐसे
ये
बात
बहुतों
पर
लागू
होती
है
उनपर
भी
जो
क्रांति
का
झंडा
ढोतें
हैं.
भाई
जब
बड़े-बड़े
लोग
इसे
कभी
पलटने
की
हिम्मत
नहीं
दिखाई
और
केवल
घोषणापत्र
पढ़कर
ही
अपने
प्रोफोलियो
में
‘वामपंथी’ लिख
दिया
तो
चंद
हज़ार
की
सरकारी
नौकरी
करनेवाले
आदमी
से
ये
उम्मीद
रखने
का
कोई
मतलब
बनाता
है
क्या
? वैसे भी उसका
काम
किताबों
को
सहेजकर
रखना
है
किताबें
पढ़ाना
नहीं.
इसी
काम
के
लिए
वो
वेतन
लेता
है.
हाँ
कहना
पड़ेगा
कि
उसने
अपना
काम
बाखूबी
अंजाम
दिया
है.
वहीं
पूंजी
के
जिल्द
की
हालत
देखकर
सर्वहारा
की
हालत
का
अंदाज़ा
अपने
आप
ही
लगाया
जा
सकता
है.
सुना
है
कभी
ये
एलान
हुआ
था
कि
क्रांति
के
लिए
केवल
रेड-बुक
पढ़
लेना
हीं
काफी
है
! खैर अब तो
हालत
ये
है
कि
कुछ
जगह
तो
‘रेड’ का कलर
कब
का
‘फेड’ होकर पंजे
और
लालटेन
के
नीचे
दब
गया
है
वहीं
कुछ
जगह
क्रांतियां
( एक क्रांति
नहीं
!) बंदूक के धुएं
के
कारण
अस्थमा
की
बीमारी
से
ग्रस्त
हो
गईं
हैं.
तभी, मेरी
नज़र
PAN शीर्षक से सन 1975 में प्रकाशित एक किताब पर पड़ी. जो दरअसल आधुनिक ( सन 1975
के हिसाब से ) जर्मन लेखकों के गद्य, पद्य एवं निबन्धों का एक खूबसूरत संग्रह निकला. शकुंतला पब्लिशिंग हॉउस, मुंबई से प्रकाशित इस पुस्तक का संपादन कृष्णमुरारी शर्मा एवं मोदीन कुमार जुल्का ने किया है तथा मूल जर्मन से हिंदी अनुवाद में इन दोनों के अलावा आशा जुल्का ने भी सहयोग किया है. कहानियां और निबंध पढ़ने का दिल था नहीं तो मैं जल्दी जल्दी कवितायें पढने लगा. कुछ कवितायें तो बहुत ही प्यारी थीं. मेरे पास उसे उतारने के लिए कुछ नहीं था तो एक सादे पन्ने का टुकड़ा किसी से माँगा और हास्ट्र बीनेक की कही-अनकही शीर्षक से प्रकाशित एक शानदार कविता उस पन्ने पर उतार ली. हास्ट्र बीनेक विश्व साहित्य में प्रसिद्ध नामों में से नहीं हैं कि ज़िक्र करते हीं याद आ जाएँ. कम से कम हम जैसे पाठकों के लिए तो आज तक ये एक अज्ञात नाम ही थे. बीनेक का जन्म 7 मई 1930 को ग्लाईविट्स ( ओबरश्लेसियन ) में हुआ था. 1951
में राजनीतिक गतिविधियों के कारण इन्हें 25 वर्षों की कठोरतम कारावास की सजा सुनाई गई. चार साल आर्कटिक सागर के निकट बारकुटा के श्रमिक कारावास में बिताए. स्टालिन की मृत्यु पर क्षमादान मिला. विभिन्न रेडियो स्टेशन एवं पत्रिकाओं का संपादन किया. प्रकाशकों के यहाँ नौकरी भी की और कुछ चलचित्रों के निर्माण में संलग्न भी रहे. हास्ट्र बीनेक की कविता प्रस्तुत करने से प्रस्तुत है इसी संग्रह में प्रकाशित हान्स युगेर्न हाइजे की एक छाया शीर्षक से प्रकाशित एक कविता की चार पंक्तियाँ –
…भविष्य
धूमिल हो गया है
एक गिलास स्वच्छ जल
की याद में !
हान्स युगेर्न हाइजे की कवितायें भी पहली बार पढ़ने का मौका मिला. वैसे इस संग्रह में बहुत से ऐसे नाम हैं जो हिंदी में बहुत कम हीं उपलब्ध हैं. अनुवाद के काम को हिंदी के विद्वान शायद गंभीर काम नहीं मानते. दूसरे देशों की बात तो बाद में की जायेगी पहले अपने ही देश के कई ऐसे ग्रंथ हैं जिनका सुन्दर और पढ़ने योग्य अनुवाद आज तक हिंदी में उपलब्ध नहीं हो पाया है. इस लिस्ट में हम नाट्य-शास्त्र जैसी पुस्तकों को रख सकतें हैं. बहरहाल पेश है हास्ट्र बीनेक की कविता. शीर्षक है कही-अनकही. इस कविता को सावधानी से पढ़ने पर बर्तोल्त ब्रेख्त की संगती का आभास साफ़-साफ़ होता है.
जब हम कह चुके होंगें
तब भी रहेगा कुछ कहने को शेष
जब कुछ कहने को रहेगा शेष
तब हम बंद न कर सकेंगें कहना
जो कुछ हमें कहना है
जब हम आरम्भ करेंगें चुप रहना
दूसरे कहेंगें हमारे बारे में
जो कुछ कहना है
और इस तरह कभी खत्म न होगा
कहना और कहे हुए पर कहना
बात बनती भी तो नहीं बिना कहे
यदि मैं न कहूँ जो हुआ है,
न बताऊँ, न वर्णन करूँ तो
घटना कभी घटी ही नहीं
कहना चलता रहता है
खण्डों में
अथवा और भी अच्छा उपखंडों में
कहना कभी पूर्ण नहीं होगा
और इसलिए सब कुछ
कभी कहा नहीं जायेगा |
ऐसी बहुत सारी रचनाओं से सराबोर यह पुस्तक अब अनुपलब्ध की लिस्ट में शामिल है. शायद किसी ने इस पुस्तक का पुनर्प्रकाशन भी नहीं किया है.
छोटा सा.. मगर कहने में बहुत बड़ा लेख लगा ये मुझे.. और "हास्ट्र बीनेक" की कविता बहुत ही अच्छी है.. अगर उस संग्रह से बाकी की अन्य रचनाएँ भी ब्लाग में दे सकें तो बहुत ही बढ़िया रहेगा.. उस अनुपलब्ध पुस्तक की कुछ बेहतरीन और चुनिन्दा रचनाओं को पढ़ पाने का लाभ हमें भी मिल सकेगा आपकी वजह से... मैं आपके द्वारा लिखे गए ब्लाग, रपट, लोचना-आलोचना या इसी तरह की अन्य सामग्रियों पर हर बार प्रतिक्रिया नहीं दे पाता हूँ.. मगर उन्हें पढ़ता ज़रूर हूँ और पसंद भी करता हूँ आपके काम को..
ReplyDeleteप्रतिक्रिया न दे पाने के लिए क्षमा प्रार्थी हूँ...
उम्मीद है की उस संग्रह से जल्द ही आप हमें जर्मन लेखकों के गद्य, पद्य एवं निबन्धों का रसास्वादन करवाएंगे..
बहुत शुक्रिया आपका पुंज भाई...
ज़रूर. कोशिश करतें हैं. जल्द ही आपको कुछ उस पुस्तक से कुछ बेहतरीन पढाने को मिलेगा.
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