आज से ठीक बीस साल पहले यानि, 6 दिसंबर 1992 को
बाबरी मस्ज़िद ढाह दिया गया. देश को एकबार फिर धर्मान्धता की अंधी सुरंग में झोंकने
की कोशिश की गई. जिसमें लोग कामयाब होते भी दिखे पर भला हो इस देश के धर्मनिरपेक्ष
स्वरुप का जो देर सवेर ही सही पर कारगर तरीके से प्रकट होता रहता है. एक तरफ़ कुछ
पगलाए नेताओं के बहकावे में आकर लोग कानफाडू शोर के साथ हत्याओं में संलग्न होतें
हैं वहीं दूसरी तरफ़ बहुतेरे लोग चुपचाप धर्मनिरपेक्ष होकर दूसरे धर्म के लोगों को
यथासंभव संरक्षण देते रहतें हैं. ये भारत का एक अजीब विरोधाभासी सत्य है. किसी
दूसरे मज़हब के कब्र पर अपने मज़हब का जश्न मानना अभी भारतीय परम्परा में शामिल नहीं
हुआ है, पर ऐसा भी नहीं कि ऐसे उदाहरण नहीं मिलते. हर काल में धार्मिक कट्टरवाद ने
अपने स्वार्थ के लिए फन उठाया है और हज़ारों बेगुनाहों का रक्तपान करके अपने बिल
में समा गया. धर्म, जाति आधारित राजनीति से शायद ही कोई चुनावी दल अछूता हो. हाँ
कोई खुलके बोलता है तो कोई कम्बल के नीचे घी पीने का मज़ा लेता है. कोई दलित का दल
है, कोई अल्पसंख्यक का, कोई हिंदुओं का तो कोई यादवों का, कोई कुर्मी का, कोई इसका
तो कोई उसका. हर किसी के पास अपना घोषित-अघोषित नकाब है जिसका इस्तेमाल समय के
हिसाब से होता रहता है.
जहाँ तक सवाल मुद्दे का है तो किसी भी मुद्दे को आखरी मुकाम तक पहुँचाने की
इच्छा किसी के पास नहीं. मुद्दा है तो नेता है, नेता है तो पार्टी है, पार्टी है
तो वोट है, वोट है तो सत्ता है, सत्ता है तो पूछ है, पूछ है तो मूंछ है, मूंछ है
तो चमचे हैं, चमचे हैं तो जनता है. इसलिए सब सत्ता की राजनीति करते हैं, वोट पाने
की राजनीति करतें हैं. वोट पाने के लिए जो भी नैतिक-अनैतिक किया जाय सब जायज है. कभी-कभी
तो ऐसा लगता है कि सब यथास्थिति कायम रखने के लिए जी तोड़ मेहनत कर रहें हैं. तभी
तो 20 साल हो गए पर बाबरी मस्ज़िद का मुक़दमा जहाँ था आज भी
वहीं है. किसी को फैसले की जल्दी नहीं. सब बस घाव ज़िंदा रखने में लगे हैं जिसमें
उंगली डालकर वोट की रोटी सेंकी जाय. इसे एक धर्मनिरपेक्ष देश के ऊपर ज़ोरदार तमाचा
नहीं तो और क्या माना जाना चाहिए ?
जब बाबरी मस्ज़िद के गुम्बद गिराए जा रहे थे तो इन गुम्बदों के साथ वे लोग
भी नीचे गिर गए जो इन गुम्बदों पर सवार थे. इस क्रम में पचास से ज़्यादा कारसेवक
घायल हुए और कम से कम छः कारसेवकों की दुखद मौत घटनास्थल पर ही हो गई. आज इन
कारसेवकों के परिवारों की सुध लेनेवाला शायद ही कोई है. कोई पिता अपने बेटे के गम
में फ़ना हो गए, किसी की पत्नी, तो किसी बच्चे ने अपने पिता को सदा – सदा के लिए खो
दिया. अपने घर के जवान सदस्य को खोने का गम किसी भी मंदिर-मस्ज़िद के गम से ज़्यादा
बड़ा होता है. इन्हीं छः लोगों की वेदना को ध्यान में रखकर बिहार के संस्कृतिकर्मी
एवं सामाजिक कार्यकर्त्ता अनिल ओझा ने एक कविता रची थी, जो उस दौरान बहुत जगह पढ़ी,
सुनी और पढ़ाई गई. हालांकि 12 फ़रवरी 1998 को अनिल ओझा की दुखद मौत हो गई पर अपनी रचनाओं के
द्वारा वो आज भी हमारे बीच हैं.
जहाँ तक सवाल बाबरी मस्ज़िद का है तो सबको पता है यह एक सुनियोजित घटना थी
जिसके लिए सरकार द्वारा गठित जस्टिस एमएस लिब्राहम आयोग ने अपनी रिपोर्ट में देश
के कई सफेदपोश नेताओं को सीधे – सीधे दोषी करार दिया. संसद के दोनों सदनों में खूब
गर्मागर्म बहसें भी हुईं. बस, फिर जैसी की इस महान लोकतंत्र की परम्परा है मामला
ठन्डे बस्ते में डाल दिया गया. जहाँ कण कण में भगवान का विचार है वहाँ एक मंदिर का
विचार संकीर्णतावाद नहीं तो और क्या है. खैर, हमारे ये महान सांप्रदायिक नेता आज
भी संसद की कुर्सियों पर विराजमान हैं और लोकतंत्र का महान नाटक शान से खेला जा
रहा है. बहरहाल, अनिल ओझा की कविता का स्वाद लीजिये.
एक
इकबालिया बयान
मैं एक ज़िंदा प्रेत,
चाहता हूँ देना बयान
ज़िंदा बचे देश को
मरने के बाद - मैं
जो न धर्म हूँ न
अधर्म, न झूठ हूँ न सच
नेति – नेति इति जैसे
रामलला
मरने के बाद यह
समझाता हूँ कि
इतिहास – परम्परा –
रवायत
ज़िंदा लोगों की चीज़ें
हैं
मुर्दे इसके काम के
नहीं
जैसे कि रामलला
शून्य से हमारा कोई
भी रिश्ता
या तो शून्य होता है
या यथास्थिति या
अपरिभाषित
आदमियों के काम की ये
चीज़ें नहीं
जैसे कि रामलला
जिस ईमारत की ईंट से
ईंट बजने गया था
उसकी ईंट मेरे दिमाग
पर बजी
खट्ट – मैं चिल्लाया –
त्राहिमाम.
दूसरी ईंट गिरी
खट्ट – देख के भाई
देव वाणी संस्कृत
मर्यादा पुरुषोतम के
साथ
हाथ से निकाल गई.
मातृभाषा ही काम आई.
खट्ट – सिर को किसी
तरह ढँक पाया
अपना हाथ ही काम आया
खट्ट – खट्टाक –
खट्टाक घड़ ....धड़ाक
ऊपर भीड़ का रेला चढ़
रहा था
मेरे भीतर मृत्यु का
अँधेरा मचल रहा था
मैं जिसके साथ था
जिनके काम में, मुझे
बटाना हाथ था
अब अपनी जान की खातिर
उन्हीं के खिलाफ़ था.
मैं जो हिंदू था
कब्र में गड रहा था,
गाड़ा जा रहा था
मैं जो मंदिर बनाने
गया था
मस्ज़िद में मर रहा
था, मारा जा रहा था
नहीं थी मगर मेरे
दिमाग में ऐसी कोई बात
समूची चेतना के साथ इतना
सोच रहा था कि
किसी तरह मस्ज़िद का
गिरना रुक जाए
तो जान बच जाए
मेरी धमनियों में बह
रहा लहू जम रहा है
मेरे स्नायु शिथिल हो
रहें हैं
मेरा अस्त होनेवाला
है
मेरे देश के लोगों
नोट करो -
वक्त बहुत कम रह गया
है
मत बनना तुम जटायु
मत कटवाना अपने पंख
किसी राजा के लिए
चाहें रामभक्त कहलाने
का
गौरव मिले या न मिले
मत उकसाना अपने भाई
को
आग के गोले तक जाने
के लिए
अगर उकसाओ तो देना
साथ चाहे मिले आग
जब मैं यह कह रहा हूँ
तो मेरा मतलब कतई
नहीं है
कि सीता की लड़ाई
ज़रुरी नहीं है
सीता जो ज़मीन है
सीता जो औरत है
सीता जो इज्ज़त है
पर किसी राजा के लिए
नहीं खुद के लिए
इंकार कर दो बनाने से
ययाति
यदि अमरता, बेटों की
उम्र छीनकर मिलती हो
मैं मर रहा हूँ, मैं
डर रहा हूँ
नहीं लेने आया मुझे
कोई धर्मराज
आया है यमराज
सुन रहा हूँ सुदूर
नेपथ्य से अपने ऊपर लगाये
अभियोग की ध्वनि
घर्मों या बाधते धर्म
न धर्म कुधर्म तत्.
हम पोस्टों को आंकते नहीं , बांटते भर हैं , सो आज भी बांटी हैं कुछ पोस्टें , एक आपकी भी है , लिंक पर चटका लगा दें आप पहुंच जाएंगे , आज की बुलेटिन पोस्ट पर
ReplyDeleteआभार आपका.
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