आजतक परती से काम लायक
भूमि बनाने की कथा चलती थी पर जब से उद्योगीकरण का बाज़ार गर्म हुआ है तब से काम लायक
भूमि पर ईमारत की कथा भी आम हो गई है. आए दिन भूमि अधिग्रहण की ख़बरों और जान
देंगें ज़मीन नहीं देगें के नारों से सुचना तंत्र पटा रहता है. ध्यान से देखा जाय
तो भारत का शायद ही ऐसा कोई शहर-कस्बा हो जहाँ इस तरह की बात न हो रही हो. विकास
से किसी को क्या परहेज हो सकता है पर साथ ही ये भी ध्यान देने की बात है कि इस विकास
की शर्तें क्या हैं.
मोकामा टाल क्षेत्र ( जिला-पटना, बिहार ) एशिया के सबसे बड़े टालों में से एक है. जो लोग भी
मोकामा टाल क्षेत्र को जानतें हैं उनको ये बात भली भांति पता है कि खेती के लिहाज
से यहाँ की भूमि बेहद ही उपजाऊ भूमि है साथ ही वातावरण भी अनुकूल है. यहाँ की
मिट्टी के बारे में एक उपकथा ये है कि यहाँ किसान को केवल दो बार खेत जाने की
ज़रूरत है – एक बार फसल बोने के लिए और दूसरी बार फसल काटने के लिए. कहने का
तात्पर्य ये कि यहाँ की ज़मीन उर्वरक है और प्राकृतिक रूप से कई सारी फसलों के लिए पूरी
तरह से अनुकूल भी. यहाँ ईख, प्याज़, मिर्च, गेहूं, धान, मक्का, दलहन, तेलहन सब
उपजाया जाता रहा है. एक समय था कि जिस फसल का मौसम होता पूरा गाँव उस फसल के
पैदावार से पट जाता. मिट्टी के इतना ज़्यादा उपजाऊ होने के लिए एक तत्व जो सबसे
ज़्यादा ज़िम्मेदार है वो ये कि लगभग हर साल यहाँ कुछ दिनों के लिए बाढ़ का पानी आता
है और पूरे इलाके की ज़मीन को तारो-ताज़ा करके चला जाता है. ये क्रिया दशहरे के
आसपास होती है. उस दौरान अमूमन खेत परती हो जाता है या कुछ खेतों में कुछ ऐसी फसल होती
जिसे पानी से कुछ ज़्यादा नुकसान नहीं सहना पड़ता. बाढ़ की धार बहुत तेज़ नहीं होती है
और अगर ये ज़्यादा दिनों तक न टिके तो फसल को कोई ज़्यादा नुकसान भी नहीं पहुंचाती.
किसी ज़माने में खेती
के लिए इस इलाके में राज्य सरकार द्वारा एक ताकतवर ट्यूबेल लगाया गया था. जिसे आज
भी यहाँ ‘स्टेट बोरिंग’ के नाम से जाना जाता है. इससे ही दूर-दूर तक खेतों में
पक्के सोतों के माध्यम से पानी पहुँचाया जाता था, बदले में किसानों को शायद कुछ
मामूली रकम देनी होती थी. ये वो ज़माना था जब यहाँ लोग खुद हल बैल से खेती करते थे
और ट्रैक्टरों ने इस इलाके के खेतों का सीना चीरना नहीं शुरू किया था. जिनके पास
ज़्यादा ज़मीन थी वो एकाध सहायक रखते थे, जिसे उस इलाके में हरवाहा (हलवाहा) कहा
जाता था. ये हलवाहे गाँव के आस पास के भी होते और दहेज में भी आते थे. आज ये
ट्यूबेल कई सालों से बंद पड़ा है पर इसका खँडहर इसके हुकूमत की कथा आज भी कहता है. इस
ट्यूबेल के बंद होने के पीछे कृषि के प्रति सरकार के निराशाजनक रवैये के साथ ही
साथ ये कारण भी है कि अस्सी के दशक में यहाँ बिजली के तारों की भयंकर चोरी हुई.
रातों-रात बिजली के तार काट लिए गए और उसे गलाकर एल्यूमीनियम के बर्तन बनाने के
कारोबार ने ज़ोर पकड़ा. हर गाँव में तार चोर सक्रिय हुए और हर गाँव में बच्चे बच्चे
को ये खबर थी कि ये काम कौन लोग कर रहें हैं. पर प्रशासन ने शायद ही किसी को सजा दी
हो. कभी रौशनी में चमचमानेवाला ये इलाका एकबार फिर लालटेन युग में जीने को अभिशप्त
हो गया. ये वही समय था जब लालटेन बिहार में सीना ठोककर राज कर रहा था और
मुख्यमंत्री की कुर्सी पर लोकतंत्र का एक मसखरा राज कर रहा था.
पिछले कई दशकों से इस
उपजाऊ भूमि के लिए कोई नीति बनाई गई हो ऐसा सुनने में नहीं आया. खेती पूरी तरह से
किसान और प्रकृति के भरोसे छोड़ दिया गया. आज जगह जगह प्राइवेट बोरिंग देखने को मिल
जातें हैं साथ ही पिछले कुछ दशकों में यहाँ भी छोटे किसान भूमिहीनों में परिवर्तित
हुए और अपने हाथ से हर गाँव में कोई एकाध किसान ही खेती कर पा रहा है. सबका रोना
एक कि खेती से गुज़ारा अब संभव नहीं. जिनके पास थोड़े-बहुत खेत बचे भी है तो वो या
तो पट्टे पर चढें हैं या बटाईदारी पर. पलायन वैसे भी बिहार की त्रासदी रही है सो
ये त्रासदी आज भी जारी है. पहले लोग कलकत्ता जाते थे आज दिल्ली-मुंबई.
अभी कुछ साल पहले एक
बड़ी हलचल शुरू हुई इस इलाके में. एनटीपीसी ने अपना एक ब्रांच यहाँ खोलने का फैसला
लिया. काम शुरू हुआ. भूमि का अधिग्रहण किया गया. सबको ज़मीन की उचित कीमत अता की
गई. कुछ आस पास के लोगों को दैनिक मज़दूरी का काम भी मिला और ठेकेदारी भी. आज सबकुछ
यहाँ बनके तैयार है. टेस्टिंग हो चुकी है. एनटीपीसी का कोयला से बिजली बनाने का
कारखाना शुरू होने ही वाला है. सारी तैयारी लगभग पूरी हो चुकी है. कोयला लाने के
लिए रेलवे का ट्रैक बिछाया जा रहा है. कुछ ही महीने बाद यहाँ रोज़ाना सैकड़ों टन
कोयला ( लगभग 18 रैक ) जलेगा जिससे लगभग 36,000 मेगाहर्ट्ज बिजली का उत्पादन होगा और एनटीपीसी की चिमनियां धुंए के साथ
सैकड़ों टन कोयले की राख वहाँ के वायुमंडल
में फैलाएंगी जो अंततः वहाँ की भूमि पर रख की एक परत बनाएगी. किसी उर्वर भूमि पर कोयले
की राख की परत का अर्थ है साल दर साल उस उपजाऊ भूमि का बंजर भूमि के रूप में
परिवर्तन. यह एक धीमी प्रकिया के अंतर्गत होगा और आश्चर्य नहीं कि आनेवाले चंद दशकों
में यहाँ की सैकड़ों एकड़ उपजाऊ भूमि बंजर हो जाए. एक कृषिप्रधान देश में कृषि योग्य
भूमि की ये दशा अब कोई नई बात भी नहीं.
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