साम्प्रदायिकता के रथ पर सवार होकर भारतीय राजनीति के शीर्ष पर काविज
होते ही फिलगुड फैक्टर में फुस्स हुई एनडीए अभी कुछ राज्यों में सत्ता सुख
का आनंद भोग रही है | बिहार के गाँव में इसे राज भोगना कहतें हैं | ये लगभग उन्हीं
राज्यों में राज भोग रही है जिनमें कांग्रेस के दफ्तरों में चार-चार मुख्यमंत्री
अपने अभूतपूर्व कारनामों के साथ गैस, बदहजमी और बबासीर से शिकार हो खैनी फंकिया
कर थू-थू कर रहें हैं | इन्हीं राज्यों में से एक है बिहार | यहाँ आज़ादी के बाद
कांग्रेस ने हुम्मच के राज किया, लालू-राबड़ी और फेमली ने खूब माल चभाके नख-दांत विहीन
किया और अब एनडीए की सरकार है, नितीश कुमार का नेतृत्व है और सुशासन का नारा है |
ये सुशासन का नारा लगभग हर उस राज्य में पसीने की बदबू की तरह विराजमान है जहाँ
एनडीए की सरकार है | रामराज, फिल गुड और मंदिर फैक्टर तो चला नहीं
अब इन राज्यों में अलोकतांत्रिक गतिविधियों और आए दिन एक से एक घोटालों की रपट
पढ़कर ऐसा कुछ कमाल जैसा तो नहीं लगता जैसे कोई सुशासन चल रहा हो | कुछ दिन पहले
खबर आई कि जो राज्य बात-बात पर विशेष राज्य का दर्ज़ा पाने के लिए हुयां-हुयां करने
लगता है वहाँ आज देश के किसी भी राज्य से ज़्यादा अनाज सड रहा है | ये सुशासन का
नारा कुछ-कुछ हिंदुत्ववादियों के रामराज जैसा ही आभास देता है | अब चुकी एनडीए के
घटकों में हिंदुत्वादियों के साथ ही साथ आदणीय जयप्रकाश जी के शिष्य भी हैं तो सम्पूर्ण
क्रांति का रूपांतरण सुशासन हो गया होगा | ये बात जनता पार्टी सरकार के
चंद महीने चला शासनकाल का अध्ययन करने के बाद गलत भी नहीं लगता | उपरोक्त बातों को
एक अनुमान माना जाना चाहिए इतिहास नहीं |
विगत दिनों बिहार सरकार ने गुटखे पर पावंदी लगाई | पर राजधानी
पटना सहित राज्य के गाँव तक में आराम से और खुलेआम गुटखा उपलब्ध है | वहीं गुटखा
कंपनी इतनी चालाक है कि वो गुटखा तो बना ही रही है साथ ही साथ उसने उसी गुटखे का
पान मसाला और तम्बाकू अलग-अलग कर बेचना शुरू किया है | जो गुटखा पहले एक रुपये का
मिलाता था वो अब दुगुनी से ज़्यादा कीमत वसूल रहा है | कानून है तो उसे तोड़ने का
तरीका भी है इसी को शायद लोकतंत्र कहतें हैं हिंदी में | हद तो ये है कि रेलवे
स्टेशनों पर भी आप खुलेआम इन गुटखों, पान मसालों आदि के दर्शन और रसास्वादन कर
सकतें हैं | पिछले दिनों मैं रेलमार्ग से पटना से बेगुसराय गया | गाड़ी जितने भी
स्टेशनों, शहरों, कस्बों, गाँव से गुज़री हर कहीं गुमटियों पर ये गुटखे अपनी दुगनी कीमत के साथ विराजमान थे
| कई स्थानों पर तो इसने प्लेटफार्म पर भी अपना कब्ज़ा जमा रखा था, पूर्वत | जहाँ
तक सवाल तम्बाकू का है तो भैय्या पान, खैनी तो बिहारी संस्कृति की पहचान है | कमर
में चुनौटी और मुँह में पान ( अब गुटखा ) यहाँ श्रृंगार की तरह है | बड़ा से बड़ा
राज आया और चला गया पर किसी में इतना दम नहीं दिखा की कैंसर के इस सौदे को जड़ से
खत्म कर सके | सरकारी-गैरसरकारी स्तर पर अधिकतर रस्मी नशाबंदी का अभियान चलता तो
रहता है पर न सरकार के हुक्मरान को इससे कोई व्यक्तिगत फायदा नज़र आता है न ही आम
आवाम को | इसे इस तरह भी कह सकतें हैं कि नशे का विज्ञापन जितना ग्लैमरस होता है,
उसे छुडाने का प्रयास उतना ही नीरस और रूटीनी | एक तरफ़ तम्बाकू-शराब की दुकाने
दनादन बढ़ रही हैं और आमजन को बड़ी ही आसानी से उपलब्ध हो जा रहीं हैं ये की जा रहीं हैं वहीं इसे
प्रतिबंधित और त्याग देने की कवायत बीच-बीच में करते रहना जनपक्षीय सरकार के छवि
को बरक़रार रखने की मजबूरी भर है | अगर हमारे मुल्क की सरकारें इन सवालों पर इतनी ही
गंभीर हैं तो क्यों नहीं एक ही साथ पुरे देश से इसे और तमाम नशीली पदार्थों को बैन कर दिया जाता है ? अगर कर दिया जाता
है तो सरकारी राजस्व, सरकारी कारकूनों और नशे के सौदागरों के अलावा किसी को कोई नुकसान होगा ? अवाम को बीमार और उसकी सेहत से खिलवाड़ करके राजस्व का रोना-रोना किसी भी लोकतान्त्रिक सरकार को शोभा देता है
? पर यहाँ बात तो फिर वहीं आती है कि आवाम की चिंता है ही किसे ? गर होती तो क्या यही हाल होता ? अगर जनता के बिना
कोई सरकार बन सकती तो जनता का वजूद कब का खत्म कर दिया गया होता | लोकतान्त्रिक
सरकार का तमगा बनाये रखने के लिए लोक का होना ज़रूरत और मजबूरी दोनों है ! अब ये
लोक स्वस्थ हो या अस्वस्थ क्या फर्क पड़ता है |
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