Monday, November 13, 2017

चार्ली चैपलिन : #The_Gold_Rush : प्यार काफी है हर काम को करने के लिए ।

सोने की खोज में बर्फीले तूफ़ान में फंसे भूख से बिलबिलाते दो लोग। कोई चारा ना देखकर अन्तः जूता पकाया जाता है और उस पके जूते को खाया भी जाता है। विश्व सिनेमा में यह दृश्य अद्भुत और अनमोल है और इस दृश्य को अपनी लेखनी, निर्देशन, कल्पनाशीलता, प्रतिभा और अभिनय से रचा है चार्ली चैपलिन ने। सन 1925 में लगभग डेढ़ घंटे की यह फिल्म है #The_Gold_Rush। यह दृश्य विश्व सिनेमा में एक क्लासिक का दर्जा ना जाने कब का हासिल कर चूका है। वैसे इस फिल्म में कई दृश्य ऐसे हैं जिसकी नक़ल आजतक हो रही है। वैसा ही एक दृश्य है तूफान में कॉटेज का एक खाई के पास जाकर अटक जाना। इस दृश्य को अभी हाल ही की हिंदी फिल्म वेलकम में देखा जा सकता है। 
चार्ली चैपलिन अपनी कला में परफेक्शन के लिए भी जाने जाते थे। वो अपनी फिल्मों के फिल्मांकन से तबतक संतुष्ट नहीं होते जबतक की वो दृश्य ठीक वैसे ही फिल्मा नहीं लिया जाता जैसा कि उन्हें ने अपनी कल्पना में उसे फिल्मा रखा है। इसके लिए उन्हें जितनी भी मशक्कत करनी होती, जितना भी खर्च करना पड़ता - वो अवश्य ही करते। वैसे भी जैसे-तैसे कला की रचना नहीं होती और समझौतावादी और विशुध्द व्यवसायिक नजरिया तो कला का दुश्मन है। फ़िल्म एक कला है पहले उसके बाद कुछ और। हमें कला को समझने के लिए कलात्मक रूप से शिक्षित भी होना पड़ेगा नहीं तो हम कला के नाम पर सांस्कृतिक प्रदूषण के शिकार होकर रह जाएगें। 
वो फिल्मों का शुरूआती दौर था और फ़िल्में आज की तरह डिजिटल नहीं थी और ना ही तकनीक के स्तर पर आज जैसा उन्नत ही। फिर भी चार्ली ने अपनी फिल्मों हर प्रकार से जिस तरह के प्रयोग किए वो आज भी कई फिल्म बनानेवालों के लिए एक प्रेरणाश्रोत से कम तो कताई ही नहीं है। उनकी फ़िल्में बिना शब्द के सबकुछ महसूस करवा देने की क्षमता रखतीं हैं। चार्ली कहते हैं - "हम सोचते बहुत हैं और महसूस बहुत कम करते हैं।"
बहरहाल, तो बात उनकी फिल्म #The_Gold_Rush की हो रही थी। चार्ली की यह फिल्म दो भागों में आगे बढती है। पहला भाग सोने की तलाश में बर्फ के तूफानों में भटकते इन्सान रूपी जीव हैं तो दुसरे भाग में एक मज़ाक से शुरू हुआ एक प्रेम कहानी। 
चार्ली एक सामान्य अच्छे सकारात्मक आदमी के चित्रण के चितेरे हैं। ऐसे चरित्र का चित्रण आसन काम कभी नहीं रहा। यही कोशिश अपने महानतम उपन्यास बौड़म में करते हुए महान रुसी लेखक दोस्तोयेव्स्की लिखते हैं – “इस उपन्यास के विचार को मैं कब से अपने मन में संजोये रहा हूँ, पर यह इतना कठिन था कि बहुत समय तक उसे हाथ लगाने का मुझे साहस नहीं हुआ। उपन्यास का मुख्य विचार सकारात्मक रूप से एक बहुत अच्छे इंसान का चित्रण करना है। दुनियां में इससे कठिन कोई दूसरा काम नहीं है; विशेष रूप से इस समय। जो सुन्दर है वह एक आदर्श है, और उसका अभी तक पूरा विकास नहीं हुआ है।” 
चार्ली इस सुन्दरता और सादगी को कैमरे में बड़ी ही शालीनता से कैमरे में कैद कर रहे थे, जिसे प्रस्तुत करना आजतक लोगों के लिए एक चुनौती बना हुआ है। चार्ली हिरोपंथी से परे सरलता और सहजता के कलाकार हैं। उनका नायक मानवीय दुःख-तकलीफ, खूबियाँ-खामियां से लैश है। अमूमन उन्हें हास्य का मास्टर माना जाता है लेकिन उनकी फ़िल्में देखते हुए यह एहसास आसानी से होता है कि वो हास्य प्रस्तुत करते हुए हास्यास्पद नहीं होते और बड़ी ही कुशलता से हास्य में करुणामय अंश जोड़ देते हैं। एकांत उनकी फिल्मों का एक ज़रूरी अंग रहा है। याद कीजिए फिल्म #The_Gold_Rush का वह दृश्य जब नायिका के मज़ाक को सच समझकर चार्ली अकेले नए साल के भोज का प्रबंध करते हैं और फिर इंतज़ार की घड़ियों में सपनों में खो जाते हैं और जब सपना टूटता है तब वो इस यथार्थ जगत में अकेले हैं – नितांत अकेले। यह अकेलापन किसी भी सृजनशील कलाकार का नितांत अपना होता है। इसी अकेलेपन में वो निराशा होता है, रोता है, कुढ़ता है, चिंतन करता है, सपने देखता है और रचनाशील भी होता है। गौतम भी इसी एकांत की वजह से बुद्ध बने। प्रसिद्द जर्मन कवि राइनेर मारिया रिल्के कहते हैं – “अपने एकांत को प्यार करो और उसकी उपजाई पीडाओं के बीच भी मग्न रहना सीखो।” स्वयं चार्ली चैपलिन कहते हैं – “जीवन अद्भुत और रोमांचक बनेगा अगर लोग आपको अकेला छोड़ दें तो।" लेकिन आज हालात यह है कि हम एकांत होकर भी शायद ही अकेले हो पाते हैं। पूंजीवादी समाज तो इन्सान को समूह से काटकर तमाम भौतिक चीजों के बीच एकांत में पटक देने के लिए कुख्यात है ही। पूंजीवादी समाज में पैसा ही भगवान होता है और इन्सान इस पैसे को किसी भी तरह अपने वश में कर लेना चाहता है। क्या अमीर और क्या गरीब, सब इसी पैसे के पीछे भागते हैं – अपनी जान और सेहत की परवाह किए बगैर। यहाँ मानवता और मानवीय संवेदना का कोई ख़ास महत्व नहीं होता। चार्ली की फिल्म #The_Gold_Rush याद कीजिए। प्रतिकूल परिस्थियों की परवाह किए बैगैर सोने की खोज में लोग हजारों की संख्या में बर्फीले बियाबान में अपना लाव-लश्कर लेकर निकल पड़े हैं। सबको किसी ना किसी प्रकार वहां पाया जानेवाला सोना चाहिए। इस सोने के लिए एक इंसान दूसरे इंसान की हत्या तक करने से नहीं चूकता। पहले ही शॉर्ट में सोने की तलाश में लम्बी कतार में जा रहा एक इंसान दम तोड़ देता है लेकिन किसी भी दुसरे इंसान को इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता और वो सोने की तलाश की अपनी यात्रा चालू रखता है। आगे लगभग आधे घंटे तक फिल्म में इंसान तो हैं लेकिन इंसानियत का कहीं नामोंनिशान तक नहीं। वहां है तो केवल सोने की भूख।
इन्सान बाकी जीवों से इतर इसलिए नहीं है कि उसकी बनावट अलग है बल्कि इतर इसलिए है क्योंकि उसके अन्दर बुद्धि, विवेक और इंसानियत नामक अतिसंवेदनशील और अनमोल चीज़ का निवास होता है। एक संवेदनशील इंसान की दुनियां केवल अपने और अपनों तक ही सीमित नहीं होती बल्कि उसमें पूरा ब्रह्माण्ड समाहित होता है। लेकिन जब इंसानियत और मानवीय संवेदना से ज्यादा पूंजी की सत्ता की पूछ हो तो वहां व्यक्ति आत्मकेंद्रित और भयभीत होता है और बाकी सारी चीज़े उसके लिए या तो साधन होता है या फिर साध्य। हालत इस कदर खराब हो जाती है कि भूख लगने पर सामनेवाला इंसान भी उसे मुर्गा दिखाई पड़ता है। याद कीजिए फिल्म का वह दृश्य जब बर्फीले तूफान में फंसे दो व्यक्ति एक दुसरे को ही संदेह की नज़र से देखने लगते हैं। कौन, कब, कैसे दुसरे की हत्या कर दे – पता नहीं। यह शक, भय से उत्पन्न होता है और भय इतना भयानक होता है कि वो इंसान अपने-पराए तक में भेद नहीं करता। ब्रेख्त की एक एकांकी है – घर का भेदी। उसमें पति-पत्नी हिटलर की तानाशाही प्रवृति को लेकर बहस कर रहे होते हैं कि एकाएक उन्हें अपने एकलौते बेटे पर यह शक हो जाता है कि वो यह बात किसी को बाहर तो नहीं बता देगा। आज हमारे देश में भी ऐसा ही माहौल बनाने की चेष्टा की जा रही है। एक से एक नकली आदर्श गढ़े जा रहे हैं। एक ख़ास व्यक्ति, वाद, धर्म या पार्टी की आलोचना देशद्रोह की श्रेणी में डाल दिया जा रहा है। इस बात की किसी को कोई परवाह नहीं कि आलोचना लोकतंत्र की बुनियाद होती है। यहाँ विरोध का भी उतना ही महत्व होता है जितना सत्ता पक्ष का। लेकिन जब सत्ता पक्ष विरोधियों को कुचलने या ख़त्म कर देने तथा विरोध पक्ष किसी भी प्रकार सत्ता पर काबिज़ होने की कूटनीति में व्यस्त हो तो वहां लोकतंत्र की पास बिलखने के अलावा कोई और चारा नहीं रहता। आज तानाशाही की चाशनी में लोकतंत्र का फलूदा पकाया जा रहा है और हद तो यह है कि हम सब कोई विकल्प रचने और चीजों को और ज्यादा सुन्दर, कोमल और मानवीय बनाने के बजाए इस फालुदे में ड्राई फ्रूट्स डालने का काम कर रहे हैं। 
चैप्लिन कहते हैं - "आपको शक्ति (पॉवर) की तभी जरूरत होती है जब आप किसी को नुकसान पहुंचाना चाहे, अन्यथा प्यार काफी है हर काम को करने के लिए।"

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