Friday, August 31, 2012

एके हंगल : खतरनाक है ये सन्नाटा.


स्वतंत्रता सेनानी और रंगमंच व सिनेमा के यथार्थवादी अभिनय शैली के बेहतरीन अदाकार अवतार कृष्ण हंगल ( ए. के. हंगल ) का निधन 25 अगस्त 2012 को हो गया. हंगल 2007 से गंभीर रूप से बीमार चल रहे थे, पिछले दिनों बाथरूम में फिसल जाने के कारण उनके कूल्हे की हड्डी टूट गई थी. जीवन के अंतिम दिनों में इलाज के पैसों के लिए की कमी से जूझते अभिनेता व स्वतंत्रता सेनानी हंगल को श्रद्धांजलि देने मायानगरी का कोई भी 'बड़ा स्टार' नहीं पहुंचा. लगभग 200 फिल्मों में अभिनय करने के दौरान उन्होंने कई “बड़े स्टारों” के साथ काम किया था. सबने फेसबुक, ट्विटर पर ही दो चार लाइन लिखकर काम निपटा दिया. इप्टा के कुछ सदस्यों एवं फ़िल्मी हस्तियों ने सहायता का वादा भी किया. कुछ ने निभाया भी. हंगल के देहांत के पश्चात् भारत के अनेकों शहरों में उनकी स्मृति में शोक सभाओं का आयोजन हुआ. श्रद्धांजलि देनेवाले हाथ सहायता करनेवालों से कई गुना ज़्यादा थे.

जहाँ तक सवाल समाचार चैनलों का है तो वहाँ भी हंगल साहेब को लेकर लगभग सन्नाटा ही पसरा रहा. लगभग हर समाचार चैनल ने अपने स्क्रीन के नीचे खबर की डंडी चलाकर ही काम चला लिया. अभी हाल ही में एक सुपरस्टार का देहांत हुआ था, उनके बीमार होने की खबर सुनते ही उनपर आधारित कार्यक्रमों का प्रसारण शुरू हो गया. जैसे ही उनका देहांत हुआ एक खास तरह के कार्यक्रम लगभग सारे समाचार चैनलों ने प्रसारित करने की होड सी लग गई थी. साफ़ है कि तैयारी पहले से ही थी. पर हंगल साहेब टीआरपी बढ़ाने वाले अभिनेता नहीं थे ( ऐसा इन चैनलों का मानना हैं ) सो उनके देहांत पर जैसी शर्मनाक चुप्पी इन चैनलों ने ओढ़ी उसे देखकर इन चैनलों का चरित्र पता चलता है.

हंगल का जन्म सियालकोट, पंजाब ( अब पकिस्तान ) में हुआ था. आज़ादी के बाद पकिस्तान में लगभग दो साल ( 1947 से 1949 ) तक कैद में रहने के पश्चात सज्जाद ज़हीर के कहने पर सन 1949 में करांची से बॉम्बे ( मुंबई ) आए हंगल इप्टा और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के ताउम्र सदस्य रहे. रंगमंच उनका पहला प्यार था. फिल्मों ने तो उनकी प्रतिभा को एक स्टीरियोटाइप इमेज में कैद कर दिया. वो रंगमंच और अपने आदर्शों के प्रति समर्पण की वजह से फिल्मों में आना ही नहीं चाहते थे पर बच भी न सके. उनके फ़िल्मी जीवन का आगाज़ तीसरी कसम ( 1967 ) से हुआ. वजह थे इप्टा से जुड़े गीतकार शैलेन्द्र जो बासु भट्टाचार्य के निर्देशन में कथाकार फणीश्वरनाथ रेणु की कहानी तीसरी कसम उर्फ़ मारे गए गुलफ़ाम पर आधारित फिल्म बना रहे थे. उस वक्त हंगल की उम्र 50 वर्ष थी. इस फिल्म में वो हीरामन ( राजकपूर ) के बड़े भाई की भूमिका निभा रहे थे. उन्होंने शूटिंग की, लेकिन संपादन के दौरान उनके कुछ सीन काट दिए गए, उन्हें बताया गया कि फिल्म लंबी हो रही थी. इस फिल्म के बारे में अपनी आत्मकथा  लाइफ एंड टाइम्स ऑफ एके हंगलमें उन्होंने लिखा है कि “शूटिंग के लिए वे नियत समय पर 9 बजे स्टूडियो पहुंच गए. उम्मीद थी कि सभी समय से आएंगे, लेकिन लंच तक राज कपूर के आने का इंतजार करना पड़ा.” उसके बाद उन्हें देवेन वर्मा की नादानऔर बासु भट्टाचार्य की अनुभवमिल गईं. बासु चटर्जी की सारा आकाशमें भी उन्होंने काम किया. ये सभी फिल्में विलंब से रिलीज हुईं, जबकि बाद में शुरू हुई शागिर्दपहले. जॉय मुखर्जी और सायरा बनो अभिनीत इस फिल्म ने गोल्डन जुबली मनाई थी. पर गोल्डन जुबली के जलसे में हंगल को बुलाया तक नहीं गया.

हंगल साहेब का दर्ज़ा फिल्मों में चरित्र अभिनेता का है जो हर फिल्म की ज़रूरत होते हैं. किसी भी फिल्म में ‘स्टार’ या ‘स्टारीन’ एक या दो होतें हैं पर चरित्र अभिनेता कई. स्टार के बिना तो शानदार फ़िल्में बनी हैं पर चरित्र अभिनेताओं के बिना ऐसा करना संभव नहीं. ज़रा कल्पना कीजिये अगर शोले में संजीव कुमार (ठाकुर), विजू खोट (कालिया), मैकमोहन (साम्भा), असरानी (जेलर), जगदीप (सूरमा भोपाली) आदि चरित्र अभिनेता नहीं होते तो केवल अमिताभ-धर्मेन्द्र (जय-वीरू) के सहारे क्या शोले बनाई जा सकती थी ? भारतीय सिनेमा उद्योग में चरित्र भूमिकाओं को निभाने वाले कलाकरों की त्रासदी प्रसिद्ध अभिनेत्री और चरित्र भूमिकाएं निभानेवाली निरुपा राय के शब्दों में कुछ यूँ बयां होती है – “हम फिल्मों में दिखते हैं, जाना माना चेहरा हैं, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि सितारों जितना कमातें हैं. हमें बहुत मामूली मेहनताना मिलता है.” कठोरतम सच ये है कि भगवान दादा समेत कई ऐसे चरित्र अभिनेता हुए जिनके आखिरी दिन मुफलिसी में बीते. कुछ को तो भीख तक मांगनी पड़ी. फिल्म मदर इण्डिया में ज़मींदार की भूमिका निभानेवाले चरित्र अभिनेता संतोष कुमार खरे शायद आज भी लखनऊ में भीख मांग रहें हैं. हंगल साहेब ने हमेशा इसके खिलाफ़ आवाज़ उठाई पर त्रासदी ये कि उन्हें भी ये दिन देखने पड़े. फिल्मों ने हंगल साहेब जैसे कलाकारों को सम्मान और आर्थिक रूप से थोड़ा सहारा ज़रूर दिया, पर ये मामला कुछ-कुछ ऐसा ही है जैसे कोई उद्योगपति अपने मजदूरों को रहने खाने का इतना भर का इंतज़ाम कर दे ताकि वो विद्रोह पर उतारू न हो जाए और दूसरे दिन वो फिर काम पर आ सके. अपनी आत्मकथा में हंगल साहेब लिखतें हैं – “Bollywood’s tendency to ignore the “complex social fabric of society” and make stereotyped films. “[Honestly] speaking, even after working in about 200 films, and getting name and fame, I often feel I am a stranger in this world because of my ideological and political background, sensitiveness and social commitments.”

ठाकरे परिवार ने पाकिस्तान काउंसल जेनरल ऑफिस में आयोजित स्वतंत्रता दिवस समारोह में शिरकत करने के एवज में इन्हें देशद्रोही करार दिया और माफ़ी मांगने को कहा. जिस घराने के आगे फिल्म उद्योग के बड़े-बड़े निर्माता, निर्देशक व महानायक मत्था टेकतें हैं वहाँ हंगल साहेब ने सर झुकाने से साफ़ इनकार कर दिया. नतीज़ा, फिल्मों के निर्माता-निर्देशकों ने लगभग दो साल तक इन्हें जात बाहर करके रखा. हंगल साहेब बहुत उदास होके बोले  “मैं अपना सबकुछ पीछे छोड़कर करांची से भारत आया था, पर लोग मुझपर आज भी पाकिस्तानी होने का शक करते हैं !” 

Thursday, August 30, 2012

अब मुझे कोई लंबी उम्र की दुआ मत दो | - जोहरा सहगल



पुंज प्रकाश 

वर्तमान में ओड़िशी नृत्यांगना बेटी किरण सहगल के साथ दिल्ली में रहने वाली जोहरा सहगल रंगकर्मियों में जोहरा आपा के नाम से प्रसिद्ध हैं । शायद ही कोई ऐसा शख्स हो जो उनसे मिला हो या उन्हें कहीं सुना हो और उनकी हाज़िर जबाबीजिंदादिली और हास्य बोध का कायल ना हुआ हो जिंदादिल जोहरा सहगल 27 अप्रैल 2012 को 100 साल की हो गईं। सौ साल की जिंदगी अपने-आप में एक उपलब्घि है उसपर लगभग आठ दशक की क्रिएटिव लाइफ तो वैसा ही है जैसे सोने पे सुहागा इस मौके पर उनकी बेटी किरण सहगल अपनी मां को एक विशेष उपहार देने की तैयारी में हैं। किरण ने अपनी मां के जीवन पर एक किताब लिखी है “जोहरा सहगल फैटी। इस किताब में किरण ने एक सख्त मिजाज और अपने वजन को लेकर हमेशा चिंतित रहने वाली मां यानि जोहरा सहगल के बारे में बताया है।
भारतीय सिनेमा से एक साल बड़ी जोहरा सहगल उन बहुत ही कम मेहनती कलाकारों में से एक हैं जिन्हें अपने आप पर भी हँसाना और दूसरों को भी हँसाना बखूबी आता हैकुछ दिनों पहले 67 वर्षीय किरण सहगल ने अपनी मां को उनकी जीवनी का कवर पेज दिखायाजिस पर लिखा था जोहरा सहगल फैटी। दरअसल किरण इस शीर्षक पर अपनी मां की प्रतिक्रिया जानना चाहती थीं। यह देखते ही जोहरा ने तपाक से कहातुमने प्रकाशक से फैटी” के साथ हिटलर” लिखने को क्यों नहीं कहा। इतना कहकर वह खिलखिला पड़ीं।
किरन सहगल उनकी सौवीं सालगिरह के मौके पर कहतीं हैं – “एक बेटी के लिए इससे बड़ी खुशी की बात क्या हो सकती है कि उसके पूरे परिवार को स्नेह देने के लिए उसकी सौ साल की मां साथ हैं। पूरा परिवार उनके सौंवी सालगिरह मनाने की तैयारी में जुटा है। हालाँकि माँ अब बधाई देनेवालों को कहतीं है  कि अब मुझे कोई लंबी उम्र कि दुआ मत दो लेकिन मैं ईश्वर  से कमाना करती हूँ कि हमें आगे भी उनका सानिग्ध मिलता रहे उनके अंदर अभी भी जिंदगी को लेकर गज़ब का उत्साह है उनकी सकारात्मक सोच का ही आसर है कि वो इतने लंबे समय तक उर्जा से लबरेज हैं उम्र के लिहाज से उनकी सेहत आज भी ठीक है वे हमारे साथ हर तरह के खाने का स्वाद लेना पसंद करतीं हैं |
मेरी मन मजबूत इरादे वाली महिला है जिसकी बदौलत ही उन्होने ९१ साल कि उम्र में कैंसर जैसी बीमारी को मात दिया बढाती उम्र से आई शारीरिक कमजोरी ने भले ही माँ का चलना फिरना कम हो गया है लेकिन उनकी चेतना अभी भी किसी नौजवान जैसी है वो अपने वजन के प्रति आज भी सचेत रहतीं हैं |"

जोहरा सहगल एक संक्षिप्त परिचय : उनका जन्म 27 अप्रैल 1912 को उत्तर प्रदेश में सहारनपुर के रोहिल्ला पठान परिवार में हुआ। वे मुमताजुल्ला खान और नातीक बेगम की सात में से तीसरी संतान हैं।  हालांकि जोहरा सहगल का लालन-पालन सुन्नी मुस्लिम परंपराओं के अनुसार हुआजिसमें पांच बार नमाज पढ़ना और रोजे रखना अनिवार्य माना जाता थालेकिन वे शुरूआत से ही विद्रोही किस्म की रहीं। बचपन में पेड़ों पर चढ़ने और तरह-तरह के खेल खेलने में उनकी दिलचस्पी थी।
लाहौर से स्कूली शिक्षा और स्नातक करने के बाद जोहरा अपने मामा के साथ जर्मनी चली गई। वहां उन्होंने खुद को बुर्के से आजाद कर लिया और संगीत की शिक्षा ली। वहाँ उन्होंने नृत्य की आरंभिक शिक्षा प्राप्त की| वर्ष 1935 में जोहरा जाने-माने नर्तक उदय शंकर से मिलीं और उनके डांस ग्रुप का हिस्सा बनकर पूरी दुनिया घूमीं है। उदय शंकर के साथ जापानमिस्रयूरोप और अमेरिका सहित कई देशों में अपने डांस कार्यक्रम पेश किए। वह काफी दिनों तक ब्रिटेन में रहीं और अंग्रेजी फिल्मों में भी काम किया।
1940 में अल्मोड़ा स्थित शंकर के स्कूल में नृत्य की शिक्षा देने के साथ ही उनकी मुलाकात कामेश्वर से हुईजिनसे जोहरा ने 1942 में शादी की। जोहरा सहगल के पति कामेश्वर सहगलएक वैज्ञानिक होने के साथ-साथ चित्रकार और नृत्यकार भी थे। फिर उन्होंने मुंबई आकर पृथ्वी थियेटर में नृत्य निर्देशक के रूप में काम करना शुरू कियाजहां वह अपनी सख्त मिजाजी के लिए जानी जाती थीं। यहीं से उनका फिल्मों का सफर भी शुरू हो गया। 1945 में जोहरा सहगल भी पृथ्वी थियेटर में 400 रूपए के मासिक वेतन पर अभिनेत्री के रूप में काम करने लगीं। वे पृथ्वी थियेटर में 14 साल तक रहीं और इस दौरान उन्होंने नाट्य ग्रुप्स के साथ भारत के कोने-कोने का दौरा किया। जोहरा सहगल इप्टा में शामिल हो गई। कई नाटकों के साथ ही फिल्मों में भी उन्होंने काम किया। 1946 में ख्वाजा अहमद अब्बास के निर्देशन में इप्टा के पहले फिल्म प्रोडक्शन "धरती के लाल" और फिर इप्टा के सहयोग से मक्सिम गोर्की की कहानी पर आधारित चेतन आनंद की फिल्म "नीचा नगर" में उन्होंने काम किया। "धरती के लाल" भारत की पहली फिल्म थीजिसे अंतरराष्ट्रीय मान्यता मिलने के साथ कान फिल्म समारोह में “गोल्डन पाम पुरस्कार” मिला। इस दौरान हालांकि उन्होंने कुछ और फिल्मों में काम किया लेकिन उनकी प्राथमिकता रंगमंच ही रही। उन्होंने अल्काजी के प्रसिद्ध नाटक "दिन के अंधेरे" में बेगम कुदसिया की भूमिका निभाई। इसके अलावा उन्होंने ख्वाजा अहमद अब्बासचेतन आनन्द और देवानन्द की फिल्मों और नाटकों में भी काम किया। जोहरा सहगल ने गुरूदत्त की बाजी (1951) समेत कुछ हिन्दी फिल्मों के लिए नृत्य संयोजन कोरियोग्राफी भी की। राजकपूर की फिल्म "आवारा" का प्रसिद्ध "स्वप्न गीत" का नृत्य संयोजन भी उन्होंने ही किया था। प्रख्यात निर्देशक चेतन आनंद की नीचा नगर” में भी अहम भूमिका में वे थीं। बीच में दशकों के अन्तराल के बाद जोहरा सहगल अंग्रेजी धारावाहिकों और फिल्मोंखासकर एनआरआई फिल्मों से एक बार फिर सक्रिय हुईं।1959 में अपने पति के निधन के बाद जोहरा सहगल दिल्ली आ गई और नवस्थापित नाट्य अकादमी की निदेशक बन गई। तन्दूरी नाइट्स को उनका श्रेष्ठ टीवी धारावाहिक माना जाता है और उल्लेखनीय फिल्मों में भाजी ऑन द बीचदिल सेख्वाहिशहम दिल दे चुके सनमबेण्ड इट लाइक बेकहमसायावीर-जाराचिकन टिक्का मसालामिस्ट्रेस ऑफ स्पाइसेजचीनी कमसाँवरिया शामिल हैं। जोहरा सहगल का हमारे बीच होना कला-अनुरागी समय कीखासकर जो इस समय का संजीदा हिस्सा हैंएक बड़ी सुखद अनुभूति है। उन्होंने हाल ही में बॉलीवुड की सुपरहिट फिल्म हम दिल दे चुके सनमकभी खुशी कभी कमचीनी कम जैसी कई फिल्मों में काम किया।1964 में बीबीसी पर रुडयार्ड किपलिंग की कहानी में काम करने के साथ ही 1976-77 में बीबीसी की टेलीविजन श्रृंखला पड़ोसी नेबर्स की 26 कड़ियों में प्रस्तोता की भूमिका निभाई।
पुरस्कार - 1963 संगीत नाटक अकादमी1998: पद्मश्री2001: कालिदास सम्मान2002: पद्म भूषण2004: संगीत नाटक अकादमी फेलोशिप2010: पद्म विभूषण |

अभिनेता का स्पेस


अमितेश कुमार से हुई लंबी बातचीत का एक अंश उनके ब्लॉग रंगविमर्श  से साभार 


एक अभिनेता के लिए स्पेस का अर्थ समझने के लिए सबसे पहले हमें इसे कई भागों में बांटना पड़ेगा। जिसका सीधा अर्थ ये है कि केवल नाट्य प्रदर्शन के दौरान उपस्थित होने वाले स्पेस ही से एक सृजनशील और सजग अभिनेता का काम नहीं चलता । नाट्य प्रदर्शन तो रंगकर्मियों के कार्य की परिणति है, प्रक्रिया नहीं। अगर हम अभिनेता एवं रंगकर्मी बात करना चाहते हैं तो प्रक्रिया की बात करनी चाहिए । अभिनयकला को गंभीरता पूर्वक लेने वाले एक अभिनेता को व्यक्तिगत जीवन में सांस्कृतिक, सामाजिक एवं राजनीतिक रूप से जागरूक होना चाहिये। यह एक्टिविज़म की नहीं एवेअरनेस की बात है। मतलब कि एक अभिनेता को एक व्यक्ति और एक कलाकार के बतौर दुनिया के स्पेस में भी सजग रहना आवश्यक है । अभिनय हवा में पैदा नहीं होता इसके लिए देश, समाज, काल आदि की समझ ज़रुरी है । अभिनेता का मूल अस्त्र केवल उसका शरीर ही नहीं होता बल्कि दिमाग भी है । केवल शरीर को अस्त्र मानकर स्टार बना जा सकता है अभिनेता नहीं । इसलिए केवल शरीर को साधने से काम नहीं चलने वाला दिमाग को भी साधना पड़ेगा । हालाँकि रंगमंच के अधिकतर अभिनेता अपना काम केवल पूर्वाभ्यास में किये गए कार्य से चला लेतें हैं जिसे अपने और अभिनय के प्रति एक अगंभीर प्रयास ही कहा जाना चाहिए ।

पूर्वाभ्यास के स्पेस का महत्व – एक अभिनेता की दृष्टि से अगर हम इस स्पेस को देखें तो इसका महत्व किसी लैब से कम नहीं है जहाँ तरह–तरह के प्रयोग के दौर से गुज़रकर अभिनय और उस प्रस्तुति से जुडी कोई भी चीज़ एक आकार लेती है | एक अभिनेता यहाँ अभिनेता से चरित्र में ढलता है, चरित्र की ध्वनि ( सुर ) तलाशता है, चरित्र का नज़रिया और हाव-भाव पैदा करता है, चरित्र को एक शरीर प्रदान करता है आदि आदि । मंच पर प्रस्तुत होने के पूर्व पूरे का पूरा नाटक और उसका एक-एक डिटेल यहाँ अपनी पूर्णता तक पहुंचाता है । यहाँ जो कुछ भी हासिल होता है उसी का प्रदर्शन मंचन के वक्त किया जाता है । अब ये सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि पूर्वाभ्यास के जगह को कितना ज़्यादा संवेदनशील और रंगकला के अनुकूल होने की ज़रूरत है ।

अभिनेता के लिए नाट्य प्रदर्शन स्थल पर मेकअप स्पेस तथा विंग्स स्पेस आदि का भी अपना एक खास महत्व है । ये वो जगहें हैं जहाँ एक अभिनेता प्रस्तुत होने वाले नाटक के प्रति अपने आपको एकाग्रचित करता है । यही वो वजह है कि प्रदर्शन के दौरान किसी और को उधर जाने की इजाज़त नहीं होती या किसी को भी किसी भी प्रकार के गैर ज़रुरी कार्य करना एक उचित कर्म नहीं माना जाता । मंच पार्श्व का अनुशासन मंच पर प्रस्तुत होने वाले या हो रहे कार्य का सहायक होता है । हिंदुस्तान में ही कुछ नाट्य दल ऐसे हैं या कुछ पारंपरिक नाट्य शैलियाँ ऐसी हैं जिनका मंच पार्श्व का अनुशासन आज भी अनुकरणीय हैं ।
अब जहाँ तक सवाल मंच पर बने स्पेस का है तो अलग – अलग नाट्य प्रस्तुतियों में उनकी शैली के मुताबिक स्पेस की बुनावट भी अलग – अलग होती है। जहाँ तक सवाल सभागार का है तो कोई ओपन स्पेस में खेला जाता है, कोई प्रोसेनियम में, कोई स्टूडियो थियेटर में तो कोई अन्य कोई प्रायोगिक स्पेस में। इन सबके साथ सामंजस्य बैठाने की प्रक्रिया अलग – अलग होती है ।
हर अभिनेता का अपना तरीका होता है जिसे वो अपनी सुविधा के हिसाब से गढता है। हाँ पर कुछ बातें बुनियादी होती है जिसका ध्यान रखना हर स्पेस में ज़रुरी होता है। नाटक को दृश्य काव्य कहा गया है जिसका प्रदर्शन सामान्यतः दर्शकों के समक्ष किया जाता है । अब जो भी दर्शक नाटक देखने आता है वो चाहे कितना भी सहृदय क्यों न हो अगर उसे ठीक से दिखाई और सुनाई नहीं दे रहा है तो या तो वो उठके चला जायेगा या बोर होगा। इसलिए किसी भी स्थान पर एक अभिनेता की सबसे प्राथमिक ज़िम्मेदारी ये बनती है कि वो प्रस्तुति के प्रस्तुतिकरण के दौरान इन बातों का खास ध्यान रखे । इसके लिए अगर उसके पास सभागार या प्रदर्शन स्थल की बनावट, उसकी ध्वनि व्यवस्था अर्थात इकोएस्टिक, मंच या प्रदर्शन स्थल की ओपनिंग एवं दर्शकों के बैठाने का इंतज़ाम, दर्शकों की उपस्थिति आदि की जानकारी है तो उसका काम आसान हो जाता है। कई बार प्रदर्शन स्थल या सभागार की बनावट के हिसाब से प्रस्तुति में कुछ छोटे मोटे बदलाव करने आवश्यक हो जातें हैं। वहीं कई सारी प्रस्तुतियाँ किसी खास स्पेस को ध्यान में रखकर की जाती है जिसका किसी और तरह के स्पेस में प्रदर्शन उतना कारगर सिद्ध नहीं होता ।
रंगमंच का एक अभिनेता पहली पंक्ति में बैठे दर्शकों के लिए नहीं वरण आखिरी पंक्ति में बैठे दर्शकों के प्रति भी उतना ही ज़िम्मेदार होता है। कहने का तात्पर्य ये कि ऊपर में वर्णित कुछ तकनीकी जानकारी के बाद एक अभिनेता अलग – अलग स्पेस के साथ कुछ उसी तरह से सामंजस्य बिठाते हुए ये तय करता है उसे उसे अपने संवाद किस वौल्युम में बोलना है और अभिनय की एनर्जी कितनी कम या ज़्यादा रखनी है जिससे कि पीछे बैठे दर्शक भी नाट्य-प्रस्तुति का रसास्वादन कर सकें ।

एकल और ग्लोबल कूड़े का रंगमंच


थेसिपस 
घटनाओं को लेकर बढ़ाती अनभिज्ञता अन्याय को मुख्य रूप से आश्रय देती है | - सालाविनी ( इतालवी लोकतंत्रवादी )

एकल नाट्य प्रस्तुति का अर्थ अमूमन ये लगाया जाता है कि अकेला किया जाने वाला नाटक | पर यह समझ एक प्रकार का सरलीकरण है | किसी काल में हो सकता है कि रंगमंच अकेला किया जाने वाला भी कार्य हो पर वर्तमान में रंगमंच एक सामूहिक कर्म है इस वजह से यह कभी एकल हो ही नहीं सकता | कुछ नहीं तो कम से कम एक अभिनेता और कम से कम एक दर्शक के बिना किसी भी प्रकार के नाटक की परिकल्पना संभव ही नहीं |
अमूमन, आज तक मैंने जितने एकल नाट्य प्रस्तुतियाँ देखीं हैं उनमें भले ही एक अभिनेता दर्शकों से रु-ब-रु हो रहा होता है पर उसके पीछे कई लोगों की टीम काम कर रही होतीं हैं जैसा कि किसी अन्य नाट्य प्रदर्शन में होता है | मसलन – लेखक या नाटककार, निर्देशक, विभिन्न प्रकार के परिकल्पक आदि | इन सबका योगदान कम करके नहीं आंकना चाहिए |
जो सामने दिखता है सच केवल उतना ही नहीं होता, अगर हम केवल उसे ही सत्य मान लेतें हैं तो ये हमारी अज्ञानता का ही परिचायक है और फिर यहाँ तो पाठ ( Text ) के पीछे वैसे भी उप-पाठ ( Sub-Text ) होता है |
केवल अभिनेता की संख्या एक हो जाने से ये नाटक से कोई अलग प्रकार की विधा हो गई ऐसा नहीं समझना चाहिए | नहीं तो दो पात्रवाले नाटक दोकल और तीन पात्र वाले त्रिकल और बहुत सारे अभिनेताओं वाले नाटक भीड़कल नाटक कहे जाने चाहिए | एक बात साफ़ तौर पर समझ लेना चाहिए कि सब नाटक ही हैं जिन्हें हम पहचानने के लिए अपनी सुविधा के अनुसार नामांकन कर देतें हैं |
हाँ, नामांकन से याद आया कई बार अक्सर हम बिना जाने-पहचाने, चीजों को उनके प्रचलित नाम से बुलाने लगतें हैं | जैसे कि हम कितनी आसानी से कह देतें हैं “फोक थियेटर या लोक नाट्य” | अब देखिये इस विषय पर जगदीश चंद माथुर क्या लिखतें हैं – “ ऑक्सफोर्ड कम्पेनियान ऑफ ड्रामा के अनुसार “फोक प्ले” यानि “लोकनाटक” ऐसा नाट्य मनोरंजन है जो ग्रामीण उत्सवों पर ग्रामवासियों द्वारा स्वं प्रस्तुत किया जाता है और प्रायः अशिष्ट और देहाती होता है |” ( पारंपरिक नाट्य, पन्ना संख्या १७  ) अब ये है परिभाषा | तो क्या आप अब भी भारत के क्षेत्रीय नाट्यशैलियों को “फोक थियेटर या लोक नाट्य” कहेंगें ? शायद कह भी सकतें हैं क्योंकि कुछ ज़्यादा “पढ़े-लिखे टाईप" रंगकर्मी महानगरों में पाए जातें हैं जो बात-बात पर ग्रीक, रोम, जापान आदि की सैर करने लगतें हैं और जिन्हें भारत, भारतीयता, परम्परा, पारंपरिक आदि शब्दों के अर्थ खोखले लागतें हैं वो बड़े शान से Folk Theatre जैसे शब्दों का उच्चारण करतें हैं |
लोकप्रिय मान्यता है कि एकल अभिनय वही अभिनेता कर सकता है जो अभिनय में पारंगत हो | ये बात सच भी है पर अभिनय में पारंगत तो हर अभिनेता को होना चाहिए, कम से कम कोशिश तो करनी ही चाहिए, चाहे वो एकल अभिनय करे या सामूहिक | पर ऐसी एक मान्यता बन गई है कि सामूहिक अभिनय में अभिनेता की कमियों को छुपाया जा सकता है, एकल में नहीं | हो सकता है इस बात में कुछ सच्चाई हो परन्तु यह बात अभिनेता की व्यक्तिगत खामी के सन्दर्भ में कही जानी चाहिए एकल और सामूहिक अभिनय अथवा रंगमंच के सन्दर्भ में नहीं | इस बात से एकल व सामूहिक अभिनय का कोई लेना-देना नहीं | आजकल ऐसा भी देखा जा रहा है कि औसत से औसत अभिनेता-अभिनेत्री एकल नाटक कर रहें हैं और बड़े - बड़े दाबे के साथ लगातार कर रहें हैं | तो क्या उन्हें ये नाटक करने से रोका जाय ? कौन रोकेगा ? क्या दर्शक ? ऐसी एकल प्रस्तुतियों भी देखने में आयीं हैं कि शुरुआत के कुछ मिनटों के बाद ही खचाखच भरे सभागार में आयोजकों के सिवा केवल दो चार लोग ही बचे हों पर अभिनेता-अभिनेत्री अपनी अभिनय की “जलेबी” परोसे जा रहें हैं |
जहाँ तक सवाल अभिनेता और उसकी कमियों का है तो एक बुरा अभिनेता सामूहिक अभिनय वाले नाटकों के रसास्वादन में ठीक वैसा ही काम करेगा जैसे कि कोई मनपसंद व्यंजन खाते वक्त मुंह में पड़ने वाला कंकड करता है | और सवाल तो ये भी बनता है कि अभिनेता की कमी को छुपाया ही क्यों जाय ? इससे किसका भला होगा ? किसी का नहीं | हम नाटकवाले जो कुछ भी दर्शकों या समीक्षकों से छुपाये रखना चाहतें हैं क्या वो सचमुच छिपा रहता है या यहाँ हमारी हालत उस शुतुरमुर्ग की तरह होती है जो अपना सर ज़मीन में छुपकर सोचता है कि मैं किसी को नहीं दिख रहा ?
दासकठीया 
हमारा मुल्क एक आज़ाद मुल्क है | हमारे देश में खासकर आधुनिक रंगमंच में कोई भी व्यक्ति अपनी पसंद से कोई भी नाटक करने के लिए स्वतंत्र है चाहे उसे नाटक करना आए या न आए | यहाँ रंगकर्मी कहलाने के लिए किसी प्रमाण-पत्र की ज़रूरत नहीं है | कई ऐसे बड़े नाम हैं जिनके खाते में वर्षों से सक्रिय रंगमंच में योगदान के नाम पर रंगकर्मियों के साथ सिगरेट-चाय पीना ही दर्ज़ है, पर वो रंगकर्मी माने जातें हैं और शान से माने जातें हैं !
क्या किसी कलाकार को दर्शकों का सांस्कृतिक दोहन का अधिकार है ? यह बात मैं तकनीक के सम्बन्ध में कह रहा हूँ विचार के सन्दर्भ में नहीं | अगर किसी को हथियार पकड़ना नहीं आता तो वो युद्ध में उतरके किसका भला करेगा ? माना कि रंगमंच युद्ध नहीं है पर जो खुद ही परिपक्व नहीं वो कला का प्रदर्शन क्या खाक करेगा | वहीं क्या दर्शकों से ये निवदन नहीं कारण चाहिए कि ऐसी कोई भी नाट्य प्रस्तुति जो रंगमंच की किसी भी कसौटी पर खरी न उतार रही हो वहाँ से उठ कर चले जाने में क्या बुराई है ? सहृदयता अच्छी बात है पर केवल रंगमंच के नाम पर अपना दोहन बर्दाश्त करते रहने को सहृदयता कहीं से भी नहीं कही जा सकती | हाँ, किसी की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का ध्यान रखते हुए यहाँ किसी प्रकार का बलप्रयोग अनुचित है | पर शांतिपूर्वक विरोध दर्ज़ करने में कोई खास बुराई भी नहीं है | आखिर अभिव्यक्ति की स्वतंत्र का अधिकार सबको है, सहृदय दर्शकों को भी | समय बदला है, अब केवल सहृदय होने भर से काम नहीं चलेगा, सजग और जागृत भी होना पड़ेगा | एक सजग दर्शक होने के नाते आपका कार्य केवल टिकट कटाकर या पास लेकर नाटक देखना और चुपचाप घर चले जाना नहीं है | नाटक एक जीवंत कला है तो इसके दर्शकों को भी जीवंत होना चाहिए | लोकतान्त्रिक तरीके से विरोध लोकतंत्र की परम्परा है, लोकतंत्र का विरोध नहीं | ऐसी बातें से शायद रंगमंच में दर्शकों की भूमिका और प्रखर हो और नाटक करनेवाले नाटक को पटक देने और ठोक देने के बजाय, उसकी उपयोगिता के सामाजिक सरोकार की ओर सजग होगें  |
इसी देश मे ऐसी रंग-परम्परा रही है जिसमें तालीम मुकम्मल होने के पश्चात् ही अभिनेता को मंच पर कदम रखने के लायक माना जाता था अथवा कदम रखने दिया जाता था | यह परम्परा आज भी है | जिन्हें इस बात पर संदेह है वे किसी भी भारतीय पारंपरिक नाट्य शैली की शिक्षण पद्धति का अध्यन करके देख लें |
यहाँ मैं किसी प्रकार के आकादमिक प्रशिक्षण की भी बात नहीं कर रहा मैं व्यावहारिक प्रशिक्षण की बात कर रहा हूँ | जैसा कि किसी ज़माने में पारसी रंगमंच, जात्रा या नौटंकी आदि में हुआ करता था | समूह के साथ रहना, उस्ताद से प्रशिक्षण लेना और नित्य अभ्यास करना, अपने सीनियर अभिनेताओं के काम को देखना और उसका आकलन करना आदि, आदि | बकौल डेविड ममेट ( अमेरिकन नाटककार व रंग-चिन्तक ) - “ज्यादातर अभिनय प्रशिक्षण संस्थाएं अभिनेता की अभिनय प्रतिभा को सीमित ही करती है विकसित नहीं | कक्षाएं अभिनेता को सिखाएंगी कैसे आज्ञा पालन करना है ये आज्ञा पालन थियेटर के अभिनेता को कहीं नहीं ले जायेगा | यह झूठी सांत्वना है |”
एकल नाटक अभिनेता केंद्रित होतें हैं | माना | पर एकल या किसी भी प्रकार के सार्थक रंगकर्म के लिए तकनीकी कूद-फांद से ज़्यादा विचार ( Plot ) की महत्ता को सर्वप्रथम स्वीकार करना चाहिए | रंगमंच व्यक्तिगत अहम् से परे एक उद्देश्य के लिए किया जानेवाला कला माध्यम है | दर्शकों का मनोरंजन करना भी एक उद्देश्य ही तो है | पर मनोरंजन मात्र के लिए भी एक सार्थक विचार का होना अनिवार्य है, निरर्थक बातों और विचारों से किसी भी समाज का मनोरंजन नहीं होता | 
ऐसा सोचना कि एकल नाटक अभिनेता केंद्रित होतें हैं बाकि नहीं, सही नहीं है | नाटक चाहे कितना भी तकनीक से लैश हो जाए अगर वो नाटक जैसा कुछ है तो उसमें अभिनेता का कोई विकल्प नहीं हो सकता | नाट्य की शैली के हिसाब से अभिनेता की भूमिका बदल सकती है पर ऐसा कतई संभव नहीं कि अभिनेता विहीन रंगमंच हो |
एक विचार या मान्यता है की नाटक में अभिनेता दिखने चाहिए और एकल नाटक में अभिनेता अपने पुरे शबाब पर होता है | ये अभिनेता दिखने का क्या मतलब होता है ? क्या ज़्यादा से ज़्यादा समय मंच पर रहने और लंबे लंबे संवाद दर्शकों पर फेंक देने भर से अभिनेता दिख जाता है ? हम ये कब समझ पायेंगें कि नाटक में अभिनेता नहीं चरित्र दिखने चाहिए जो नाटक में दी गई परिस्थितिओं के अनुसार सच्चाई  ( Truth ) के साथ आचरण कर रहा हो | अगर कोई अभिनेता अपनी तकनीकों का प्रदर्शन कर लोगों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करता है ये उसकी धूर्तता है, अभिनय की कलाकारी नहीं |
हम भारतियों की मूल समस्या पता है क्या है ? हमारी समस्या ये है कि हम हर चीज़ के लिए यूरोप की ओर ताकतें हैं और अपनी परम्पराओं के प्रति वही भाव रखतें हैं जो यूरोप हमसे रखवाता है | यूरोप हमें बताएगा कि तुम्हारा योगा तो कमाल है और हम बेवकूफों की तरह योग की टांग तोड़ने में लग जायेंगें | कह सकतें कि सालों पहले हमें ओपनिवेशिक मानसिकता से उबर जाना चाहिए था पर यहाँ बात पूरी उल्टी चल निकली | अपनी परम्पराओं के प्रति यह हेय भाव जान बूझकर पैदा किया जाता है ताकि आप उन पर शक न करें जो बड़े-बड़े विदेशी नामों के आड़ में दरअसल अपनी दुकान चला रहें हैं और आपकी ही चीज़, आपको ही विदेशी तड़के का साथ बेच रहें हैं |
अब कोई ईस्ट इण्डिया कंपनी यहाँ आकर अपना साम्राज्य नहीं फ़ैलाने वाली बल्कि अब उसका काम पहले से ज़्यादा आसान हो गया है | वो माल बनाएगा, उस माल की महानता को प्रामाणिक बनाने के लिए हमारे नायकों-महानायकों का मुखौटा इस्तेमाल करेगा और हम उसका उपभोगकर अपने आपको सभ्य और धन्य समझेंगें | आज नीम का दातून हममें वो जादू नहीं जगा पता जो क्लोज़-अप का एक रंगीन टुकड़ा कर देता है | ये उपभोक्तावादी प्रचार तंत्र हैं जो हमारी सांसों में कुछ इस तरह रच-बस गया है कि हमें कुछ गलत जैसा अनुभव भी नहीं होता | हम जिन नायकों की नक़ल कर रहे होगें ये नायक भी इनके ही गढे होंगे, जो हमारे मन में हमारे सच्चे नायको के प्रति एक तरह का हेय भाव भी पैदा करतें रहेंगें |
एक नौटंकी के प्रदर्शन का दृश्य 
यहाँ मैं अपनी बात किसी पुनरुथानवादी अंधभक्त की तरह नहीं कह रहा बल्कि ये जानते हुए कि गलत-सही हर परंपरा में होता है, फिर भी ये सवाल कर रहा हूँ कि हमें अपनी परम्परा पर गर्व के बजाय ग्लानी क्यों है, आज भी ? अगर हम खुली आँखों और स्वास्थ्य दिमाग से आंकलन करें तो पायेंगें कि भारतवर्ष में भी नाट्य-प्रशिक्षण की अपनी एक समृद्ध परंपरा रही है जिसे एक साजिश के तहत नज़रंदाज़ किया गया है, बार-बार-लगातार | खासकर आज़ादी के बाद | यहाँ उस व्यक्ति को महानतम का दर्ज़ा दिया गया जो विदेशों में देखे नाटकों को थोड़ा फेर बदल करके भारत में जनता के पैसों से मंचित कर रहा था और तमाम पारंपरिक लोक कलाकार और भारतीयता का ध्यान रखकर कार्य कर रहे लोग को तुच्छ, अनपढ़, गंवार, गवाई समझा गया और ऐसा ही प्रचारित किया गया | यह बात ठीक वैसी ही है कि अगर कोई व्यक्ति भोजपुरी बोल रहा है तो अपने-आप ही अनपढ़-गंवार का तमगा उसपर लग जाता है और कोई अगर अंग्रेज़ी में बकवास भी कर रहा है तो वो सभ्य और सुसंस्कृत मान लिया जाता है | जैसे हमारी आँखें फट जाती है ये सोचकर कि भाई कमाल देश है इंग्लैंड बच्चा –बच्चा वहाँ अंग्रेज़ी बोलता है | ये कौन सी मानसिकता है ?
ये ओपनिवेशिक सोच है जो प्रचार-प्रसार के आज के युग में और भी प्रखर हो गई है | हम ग्लोबल होने के नाम पर एक तरह की मानसिक गुलामी को अपने ऊपर आरोपित होने दे रहें हैं | इस साजिश में वो हर व्यक्ति शामिल है जिनके ऊपर हमारे और इस देश का भविष्य सवारने की ज़िम्मेदारी थी या है | जगदीश चन्द्र माथुर ने सन 1950 ई. में उदय की बेला में हिंदी रंगमंच और नाटक” नामक आलेख में लिखा था कि “यदि हिंदी में राष्ट्रीय रंगमंच के उदय से तात्पर्य है अभिनय के नियम, रंगशाला की बनावट, प्रदर्शन की विधि, इन सभी के लिए एक सर्वस्वीकृत परम्परा और शैली की अवतारणा होना, तो ऐसे रंगमंच का अस्त भी शीघ्र ही होगा |”
हम आज तक ये तय नहीं कर पाए कि एक ऐसे देश में जहाँ पग-पग पर पानी और बानी बदल जाती है वहाँ एक भारतीय रंगमंच का स्वरुप क्या होगा ? इसकी वजह शायद ये है कि हमने कभी भारतीय आधार पर ये सोचा ही नहीं बल्कि हमारी सोच “युरोपवाले या वाली गुरूजी या गुरुआनीजी” संचालित करते/करतीं रहीं | हमारी चोटी वहीं गडी है नहीं तो हम ये कब का समझ लेते कि हबीब तनवीर, रतन थियम, एच. कन्हाईलाल ग्लोबल है और भारतीय भी | रोबिन दास कहतें हैं – “कलाकार अगर सिर्फ किताबों के आधार पर पाई गई जानकारियों और अमेरिका, फ्रांस, जर्मनी, पोलैंड या रूस जैसे देशों में छापी किताबों या सिधान्तों पर ध्यान दे तो उसके सामने यह समस्या रहेगी कि ये सब उस देश के खास एतिहासिक वजहों से अस्तित्व में आयीं | इस तथ्य को नज़र-अंदाज़ कर अगर इसे अपनाना शुरू कर दें तो क्या भारतीय रंगकर्मी अपनी रचनात्मकता और दर्शकों के साथ उसके रचनात्मक सम्बन्ध का गला नहीं घुट जायेगा ? फिर तो ये सिर्फ खांचों में फिट करने की बात हो होगी | ये एक वंध्य तरीका होगा | नई पीढ़ी को चाहिए कि वो अपने जीवनानुभवों के आधार पर रंगमंच के सिधान्तों का मूल्यांकन या पुनर्मूल्यांकन करे |...एक खास बात जो मुझे चिंताजनक लगती है, आज के युवा पीढ़ी के कुछ रंगकर्मी ऐसे नाटक करने लगें हैं या ऐसी रंगभाषा का प्रयोग करने लगें हैं जो उनको पश्चिम देशों के नाट्य महोत्सवों में निमंत्रित होने के योग्य बना सके | इसे वैश्विक रंगमंच की तरफ़ एक कदम कहकर व्याख्यायित किया जाता है | लेकिन जब भारतीय लोकतंत्र पश्चिम लोकतंत्र से अलग है, भारतीय नारी विमर्श पश्चिमी नारी विमर्श से अलग है, भारतीय दलितों और उनकी महिलाओं की स्थिति पश्चिम से अलग है तो फिर भारतीय रंगमंच पूरी तरह के पश्चिम के खांचे में कैसे ढाल सकता है |”  ( रंग प्रसंग, अंक ४०, २०१२ ) |
ऐसे नाटकों की प्रस्तुति जब विदेशों के रंग-महोत्सवों में होतें है तो आलम कुछ ऐसा ही होता है जैसे साऊथ की फिल्मों का हिंदी वर्जन देखा जा रहा हो | आज हमें ये समझना पड़ेगा कि हम यूरोपियों को यूरोप, जापानियों को जापान दिखाकर प्रभावित नहीं कर सकते | अगर हमें दुनियां को कुछ दिखाना और प्रभावित करना ही है तो उसका रास्ता भारतीय मिट्टी की खुशबू से होकर गुज़रती है, जैसा कि कुरुसावा ने किया | समझ लेना चाहिए कि दुनियां से संस्कृत आदान-प्रदान करना और विदेशियों को आम खिलके फोटो खिचवाने में फर्क है | कुछ लोग भारत के होते हुए भी भारत में ऐसे रहतें हैं जैसे टूरिस्ट हों | यही हैं इन वैश्विक रंगमंच के सिपाही | जिन्हें खुद अपनी संस्कृति नहीं पता वो बेचारे क्या खाक वैश्विक होगें | दोष इनका नहीं है दोष झूलन कुर्सियों पर बैठे उन महागुरुओं का है जिन्हें अपनी सत्ता चलाये रखने और सांस्कृतिक आदान-प्रदान के नाम पर साल में एकाध विदेश यात्रा करने के लिए ऐसे पुतले चाहिए | ये रंगमंच में अमरता हासिल करने की व्यक्ति केंद्रित राजनीति है, जो भारतीय रंगमंच के सबसे बड़े संस्थान में भी है और बहुत ही प्रखर रूप से है | जिन्हें भी ये बात नहीं दिखाई पड़ती वो दरअसल इसी तंत्र के हिस्से हैं | वैसे भी आँख के बहुत करीब होने पर किसी भी चीज़ की स्पष्ट छवि नहीं दिखाई पड़ती |  
गौर करिये हबीब साहेब क्या कहतें हैं – “थिएटर में अगर किसी और कल्चर की नकल की झलक है, तो वह असली थिएटर नहीं है । थिएटर को अपने मुल्क, अपने समाज की जिंदगी, अपने मुल्क की शैली में कुछ इस तरह पेश करना चाहिए कि बाहर के लोग देखकर यह कह सकें कि ये भी एक थिएटर हैं, थिएटर के सारे लवाजमात तत्व उसमें मौजूद हैं, हमें उसमें वही मजा आता है जो थिएटर में आना चाहिए लेकिन अगर हम ऐसा थिएटर खुद करना चाहें तो नहीं कर सकेंगे । यानी थिएटर में इलाकाइयत (आंचलिकता) का दामन न छोड़ते हुए विश्व स्तर पर पहुंचना कामयाब थिएटर की कुंजी है। आज ऐसे थिएटर हमारे मुल्क में कम सही मगर है जरूर ।“ ( हबीब तनवीर लिखित “चरणदास चोर के पीछे बहुतेरे कहानियां” आलेख से )
रंगमंच एक गतिशील कला माध्यम है जो देश, समाज, काल आदि से अपना ताल-मेल मिलाता–बिठाता रहता है | उपभोक्तावादिता के इस अंधी दौर में आज समाज में हर तरह समूह का विघटन हुआ है | परिवार भी इससे अछूता नहीं है | आज सामूहिक चूल्हा एतिहासिक धरोहर का रूप ले चुका है | एक ( शासक ) वर्ग यह जान चुका है कि सामूहिकता इंसान की सबसे बड़ी ताकत है | आज गुलाम बनाने के लिए देश के बजाय विचार को गुलाम बनाने की कला हुक्मरानों ने सीख ली है और विचार की गुलामी की सत्ता चलती रहे इसके लिए व्यक्ति को समूह से अलग करना एक अहम् मुद्दा बन चुका है | लोगों को समूह के बजाय छोटे-छोटे कमरों में कैद कर देना और समूह के नाम पर किसी उन्माद में डुबो देना, एक अहम् बात और कारोबार में तबदील हो चुका है | शहरों में सिंगल रूम सेट का कांसेप्ट चरम पर है | किसी ज़माने में समूह में बैठना और बात करना भी जीवन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हुआ करता था, कुछ स्थानों पर आज भी है, पर आज समूह में निवास करना व्यक्तिगत स्वतंत्र का हनन के रूप में भी देखा जाने लगा है | क्या इन बातों से रंगमंच का कोई सरोकार नहीं है ?
कथकली का मेकअप 
आज रंगमच के लिए समूह का गठन और उसे सुचारू रूप से संचालन क्या पहले जैसी ही बात रह गई है ? सामाजिक उथल पुथल और बदलाव से क्या रंगमंच का कोई सरोकार नहीं ? कई और भी पहलू है जिन पर बात होना चाहिए | पर सामाजिक समूह ( रंगमंचीय सामूहिकता नहीं ) का यह अभाव आज रंगमंच में भी साफ़ साफ़ देखने को मिलता है | कभी पचास-पचास सदस्यों की सदस्यता वाले नाट्यदल आज दहाई के अंक भी बड़ी मुश्किल से पार कर पा रहें हैं | क्या इस प्रक्रिया से एकल नाटकों का कोई लेना देना नहीं ? मैं व्यक्तिगत तौर पर कुछ प्रतिष्ठित नाट्य निर्देशकों व अभिनेताओं को जानता हूँ जो आज से एक दशक पहले एकल नाटकों को सामूहिकता का विरोधी मानते थे, क्योंकि उस वक्त उनके पास एक अच्छा-खासा नाट्य समूह था पर आज जब वो समूह नहीं रहा तो वो भी एकल नाटक अभिनीत कर रहें हैं या करने को अभिशप्त हैं , निर्देशित कर रहें हैं, यहाँ तक कि उनके महोत्सव भी करा रहें हैं | क्या इन बातों से एकल नाटकों का कोई लेना देना नहीं ?
एकल अभिनय को प्रस्तुत करने का कोई अलग शास्त्र है ऐसी बात नहीं, सिवाय इसके कि इसे किसी एक अभिनेता या अभिनेत्री द्वारा प्रस्तुत किया जाता है | यह बात शास्त्रीय नहीं बल्कि तकनीकी है | इसके भी मूलभूत सिद्धांत वही हैं जो बाकि नाटकों में अभिनय या प्रस्तुतिकरण के होतें हैं | जिस प्रकार नाटकों की शैली के अनुसार अभिनेता अपने अभिनय का तरीका तलाशता है ठीक वही बात एकल नाटकों पर भी लागू होती है | इस नाटक की तैयारी ( पूर्वाभ्यास ) का तरीका भी कोई अलग नहीं होता | अगर हम ये कहें कि हम सिर्फ पहचान करने के लिए इसे एकल नाम दे रहें हैं, ठीक वैसे ही जैसे पहचान के लिए इंसान को अलग-अलग नाम देतें हैं , तो क्या कुछ गलत होगा ?
रंगमंच को भ्रमों से दूर रहना और रखना चाहिए | इससे किसी का कोई तात्कालिक लाभ हो भी जाय पर लंबी अवधि में किसी का भी कोई खास भला नहीं होने वाला | आज़ादी के बाद के दशकों में बहुत ऐसे नाट्य निर्देशक, अभिनेता और रंगकर्मी हुए जिन्होंने रंगमंच की एक नई धारा खोजने का दावा पेश किया पर आज हम भली भांति जानतें हैं कि उनमें से अधिकतर में कोई दम नहीं था | वो या तो हमारे पारंपरिक नाटकों का थोड़ा फेर बदलकर की गई प्रस्तुतिकरण थी, या किसी लोक कलाकार के महत्वपूर्ण कार्य का शहरी रंगकर्मियों द्वारा प्रस्तुतिकरण या फिर विदेशों में चल रहे नाट्य प्रयोगों का रूपांतरित संस्करण | 
एक बात साफ़ समझ लेनी चाहिए कि एकल नाटकों की एक बहुत ही पुरानी परंपरा रही है | क्या पता नाट्य विधा की शुरुआत ही एक अकेले अभिनेता ने की हो | एतिहासिक तत्वों की बात करें तो ग्रीक रंगमंच की शुरुआत थेसिपस नामक एक अभिनेता द्वारा ही मानी जाती है | यहाँ भारतीय सन्दर्भ में बात इसलिए नहीं की जा सकती क्योंकि हमारे यहाँ इतिहास अंकन का क्षेत्र ज़रा संकरा सा है | हम लिखने में कम बोलने में ज़्यादा विश्वास करने वाले लोग हैं |
इसलिए किसी रंगकर्मी को अगर ये दुह-स्वप्न बार-बार सताता रहता है कि वो रंगमंच में किसी नई धरा का प्रवाह कर रहा है या करने वाला है या कर ही देगा तो इस दुह-स्वप्न से छुटकार पाने का एक ही तरीका है और वो है ज्ञान | रंगमंच के प्रति ज्ञान | इतिहास के प्रति ज्ञान | उनसे निवेदन है कि ज़रा रंगमंच के बारे में जाने तब पता चलेगा कि जिसपर वो मेरा का दावा कर रहें हैं वो दरअसल सदियों पहले ही अस्तित्व में आ चुका था | करो, जानो, समझो या समझो, करो , जानो यही दो रस्ते हैं, हाँ,तीसरा रास्ता भी है – आत्म-मुग्धता का | चयन हमारा होगा | बाकि, तमाशा देखनेवालों की कोई कमी नहीं |

बनास जन में रंगमंच



पूर्वरंग- यह समीक्षा नहीं है |

प्रो. हेमंत द्विवेदी के आकर्षक आवरण चित्र से सुसज्जित बनास जन का नया अंक डाक से मिला | पहली बार इस पत्रिका से वाकिफ़ होने का अवसर मिला | हालांकि इसके दो अंक पहले भी आ चुके थे | बकौल पल्लव (सम्पादक, बनास जन) “ बनास के दो अंक रचनाकार केंद्रित और विशेषांक थे। पहला कथाकार स्वयं प्रकाश पर और दूसरा चर्चित कृति काशी का अस्सी पर। इन अंकों के बाद मेरा स्थानांतरण हो गया और मुझे परदेस आना पड़ा। अब मित्रों का दबाव कि बनास नियमित होसामान्य अंक आएं। तो धीरे धीरे आयी की तर्ज पर दो साल इस सामान्य अंक में भी लग गये। होता यह कि पहले के अंकों के कारण बनास के सामान्य अंक के भी बहुत बढ़िया होने का पूर्वाग्रह बन गया था। अब भला हर पत्रिका तो पहल और तद्भव नहीं हो सकती और न ही वसुधा या नया पथ।
तो धीरे धीरे रचनाएं मिलींउससे भी बहुत धीरे विज्ञापन और सबसे धीमा हमारा सम्पादकीय परिवार। मैं टाइप करवाता रहामिहिर और अमितेश (उप-सम्पादक) प्रूफ पढ़ते रहे। हांपुस्तक मेले के मौके पर एक छोटा अंक आया थाजिसमें मीरा के समय और समाज पर डॉ माधव हाड़ा का लंबा शोध आलेख थाउसे हमारी कंजूसी ने रोके रखा कि मूल अंक के साथ ही रीलीज करेंगे ताकि डाक का पैसा बच सके|”
तो ये है बनास जन के अंतराल की कहानी | अब थोड़ी सी बात इस पर कि “मंडली” जो मूलतः रंगमंच केंद्रित ब्लॉग है उस पर एक पत्रिका को केंद्र में रखकर आलेख क्यों ? जवाब बहुत ही सरल है | पहली बात तो ये कि रंगमंच का दायरा बड़ा है और इसमें लगभग हर चीज़ समाहित है और दूसरी बात ये कि मेरी जानकारी में हिंदी ( हो सकता है मेरी जानकारी कम हो ! ) साहित्य और संस्कृति पर केंद्रित बनास जन शायद एकलौती पत्रिका है जिसने रंगमंच पर केंद्रित आलेखों को भी एक सम्मानित स्थान दिया है | कथादेश के अमूमन हर अंक में रंगमंच पर केंद्रित एक आलेख होता है जिसे सालों से अमूनन हृषिकेश सुलभ ही लिखतें हैं | जहाँ तक सवाल रगमंच पर केंद्रित पत्रिका का है तो हिंदी में दो नाम प्रमुखता से लिए जा सकतें हैं – नटरंग और रंगप्रसग | हाल ही में दो अंकों के साथ रंगवार्ता कुछ उम्मीद जगाता है | रंगप्रसंग चूंकि राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय पोषित पत्रिका है तो उसकी नीतियों को स्थापित करना इसकी सीमा है | तो ले देके बचता है नटरंग जो अपनी तमाम सीमाओं के बावजूद समय-समय पर आशा का दीप जलाता रहता है | ऐसे समय में बनास जन का रंगकर्म को भी स्थान देना सुखद भी है और स्वागत योग्य भी |
बनास जन के वर्तमान अंक (फरवरी-अप्रैल 2012) में रगमंच को केंद्र में रखते हुए दो महत्वपूर्ण आलेख हैं | पहला, प्रसिद्ध रंग निर्देशक प्रसन्ना का आलेख “ हबीब तनवीर का असल महत्व”, जो भोपाल में आयोजित हबीब उत्सव 2009 के अंतर्गत आयोजित सुरता हबीब में अंग्रेज़ी में दिया व्याख्यान है | इस महत्वपूर्ण आलेख का सुन्दर हिंदी अनुवाद प्रस्तुत किया है युवा रंगप्रेमी और विशेषज्ञ मुन्ना कुमार पाण्डेय ने | इस आख्यान में हबीब तनवीर का सन्दर्भ लेते हुए प्रसन्ना भारतीय रंगमंच की कुछ महत्वपूर्ण बातों की तरफ़ इशारा करते हुए कहतें हैं- “हमारे राष्ट्रीय संस्थानों को आकार देने के लिए एक स्पष्ट इरादे से राष्ट्रीय रंगमंच को बनाया गया है, पर दूसरी ओर ये कमबीन ( अदूरदर्शी ) हो गए | इनकी वर्तमान दृष्टि इन्हें दिल्ली से बाहर देखने ही नहीं देती |...भारत में यह कुलीन रंगमंच अपने मूल में कंप्रेडर बुर्जुआ है |...मैं आज़ादी के पहले पैदा हुई एक महत्वपूर्ण पीढ़ी के दो शख्सियतों, जिन्होंने इस कंप्रेडर बुर्जुआ को चुनौती दी, के बारे में सोचता हूँ | एक थे हबीब तनवीर और दूसरे बादल सरकार |...अभी तक वे दोनों भारतीय रंगमंच में विरोध के एक मजबूत प्रतीक के रूप में खड़े हैं |...वे एक प्रेरक रंग निर्देशक थे साथ ही नाटककार और शायर भी | मुझे ऐसा लगता है कि उनके नाटककार होने के महत्व को अभी तक पूरी तरह से सराहना नहीं मिली |... अलकाजी की शैली थोड़ी-बहुत पश्चिमी थी...हबीब की शैली पारंपरिक और समकालीन दोनों तरह की है | यह भारत में कहीं भी प्रस्तुत करने, तैयार करने के लिए काफी लचीला और सहज  है |....हबीब ने एक झटके में ब्राहमणवादी उच्च परम्परा और पश्चिम बुर्जुआ थियेटर दोनों को तोड़ दिया |...उनके पास संस्थागत समर्थन या बुनियादी सुविधाएँ प्राप्त नहीं थीं जो अलकाजी को प्राप्त थीं | लेकिन हबीब प्रेरित करतें हैं |...हबीब तनवीर के लिए लोक रंगमंच का मतलब था जो हमेशा जनता का रगमंच होना चाहिए |”
इस प्रकार जहाँ तथाकथित मुख्यधारा के रंगमंच के कुछ प्रसिद्ध भारी-भरकम नाम हबीब तनवीर के नाम से बगलें झांकने लगतें हैं वहीं प्रसन्ना जैसे निर्देशक, जिनका ज़्यादातर काम रंगमंच के भारतीय तरीके ( तकनीक ) की तलाश पर ही केंद्रित है, का यह आलेख हबीब तनवीर के काम को भारतीय इतिहास के बजाय भविष्य में समाहित करने की एक ज़रूरी वकालत करता है |  
वहीं दूसरा आलेख है युवा नाट्य-समीक्षक और रंगमंच के कट्टर दर्शक अमितेश कुमार का | शीर्षक है –“रगमंच के नए रंग |” अपने बेबाक लेखन के लिए जाने जा रहे अमितेश के इस आलेख के केन्द्र में वर्तमान रंगपटल ( खासकर महानगर में ) पर चल रहे नाट्य प्रयोग हैं | जिनपर ये खुलकर अपनी राय प्रकट करतें हैं | वहीं आलेख का दायरा इतना ज़्यादा वृहद हो गया है ( नाट्य-आलेखों की कमी, नाटककार – निर्देशक, लिखित आलेख- इम्प्रोवाईजड आलेख, स्त्री रंगमंच, अभिनेता का आलेख-भूमिका, मल्टीमीडिया, रंगमंच का उद्येश्य, नाट्य-आलोचना की समस्या, सूचना की समस्या इत्यादि ) कि कई स्थानों पर सूचनात्मक आभास भर ही दे पाता है | एक ही आलेख में इतना सब कुछ समेटना मुश्किल है, विषय बड़ा ही वृहद है जो समय और धर्य की मांग करता है, फिर भी इस बात से कतई इनकार नहीं किया जा सकता कि इन्होनें रंगमंच में चल रहे लगभग हर नई-पुरानी हलचल और बहस को छूने और यथासंभव परखने की कोशिश तो की ही है, जिसकी वजह से यह आलेख वर्तमान रंग प्रयोग और बहसों का आईना बनकर उभरता है  |
लगभग तीन सौ पन्ने और पचहत्तर रुपये मूल्य की बुक साईज की इस पत्रिका में कविता, कहानी, समसामयिक मुद्दे, समीक्षाएँ सहित बहुत कुछ और भी है जिन्हें सदाशिव क्षेत्रीय (आत्मकथा और कविताएँ ), विश्वनाथ त्रिपाठी, मुरली मनोहर प्रसाद सिंह, प्रणय कृष्ण ( प्रगतिशील लेखक संघ के पचहत्तर साल ), नवल किशोर, शम्भुनाथ ( अगेय व शमशेर जन्मशताब्दी ), प्रेमपाल शर्मा ( हंस की रजत जयंती ), जीतेन्द्र गुप्ता, राकेश कुमार सिंह ( पूंजीवादी अपतंत्र से संघर्ष व हिंसा युग ), सत्यनारायण व्यास ( लंबी कविता, सीता की अग्नि परीक्षा ), रवि कुमार, विनोद विट्ठल ( कविताएँ ), जवाहर लाल नेहरू, स्वयं प्रकाश, मनीषा कुलश्रेष्ठ ( एक शहर : तीन मुसाफिर ), असगर वजाहत, राम कुमार सिंह, सईद अय्यूब, विनोद विट्ठल ( कहानियां ), नेम नारायण जोशी ( अपना घर : राजस्थानी ), राहुल सिंह, विनीत कुमार, विजय सती ( साहित्यकी ), रवि श्रीवास्तव, गणपत तेली ( भाषा ), रामेश्वर राय ( पुनर्पाठ ), अविनाश, योजना रावत( यात्रा आख्यान ), रूपेश कुमार शुक्ल, सोमप्रभा ( युवा कविता ), अजित कुमार ( हमसफरनामा ), दुर्गा प्रसाद अग्रवाल, सुमन केसरी, शशि प्रकाश चौधरी, विमलेन्दु तीर्थकर, जीतेन्द्र विसारिया तथा ओम निश्छल ( समिक्षायण ) ने लिखा है | जिनकी परख इन विषयों के विशेषज्ञ ही करें तो शोभा देगा | साथ ही रोशनदान नामक एक विशिष्ट कलम भी है जिसमें सामयिक पात्र-पत्रिकाओं एवं पुस्तकों का सचित्र परिचय प्राप्त किया जा सकता है |
हाँ, पत्रिका के बहुत से पन्ने कुछ भरे कुछ खाली रह गए हैं जिसका कुछ सार्थक प्रयोग हो सकता था | वैसे खाली स्थान का भी अपना एक अलग और खास महत्व है, लिखे शब्दों से इतर, जैसे कि रगमंच में “पौज़” का होता है पर उसका मीनिंगफुल होना निहायत ही ज़रुरी है | वहीं प्रूफ की गलतियाँ न हो तो मज़ा आ जाए | आने वाले अंकों में उम्मीद है पाठकों के पत्रों को भी स्थान दिया जायेगा और उनकी बेवाक प्रतिक्रियाओं को तहे दिल से प्रकाशित किया जायेगा, यह किसी भी पत्रिका का उतना ही ज़रुरी अंग होना चाहिए जितना कि कोई आलेख, कविता या कहानी |
आशा है सजग रंगकर्मी बनास जन के इस प्रयास में सहभागी होंगें और आने वाले अंकों में महानगरों से इतर के भी रंगकर्म सम्बन्धी आलेख पढ़ने को मिलेंगें | 
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प्रेमचंद रंगशाला और पटना रंगमंच का जादुई यथार्थ




अभी कुछ ही दिनों पहले ये खबर आई की पटना का प्रेमचंद रंगशाला पूरी तरह से सज-धज के तैयार हो गया है. फिर खबर आई की रंगशाला का उद्घाटन भी हो गयातो रंगशाला के खंडहरों में बिताए वो सुनहरे दिन आखों के सामने तैर गए. सुबह- सुबह साइकल पर सवार होके निकल पड़ता था रंगकर्मियों का दल प्रेमचंद रंगशाला की ओरफिर दिन भर गाना – बजाना, पढना – पढानाचाय- पानीबहसेंनाटकों के पूर्वाभ्यास सब उसी खंडहर पड़े रंगशाला में ही संपन्न होती. रंगशाला का ग्रीन रूम नाट्य दलों का कार्यालय बना. सफाई करके कुछ लकड़ी के प्लेटफार्म लगाया गया और उसके ऊपर डाल गया पुराने नाटकों के कुछ बैनर और बन गया पूरी तरह से आर्टिस्टिक कार्यालय. पता नहीं कहाँ-कहाँ से तार जोड़कर बिजली का भी जुगाड किया गया. कभी विशाल से मंच पर झाड़ू लगाकर पूर्वाभ्यास करतेकभी रंगशाला के विशाल प्रागंण के किसी कोने में निकल पड़तेतो कभी ऊपर छत पर पहुंच जाते. कहने का तात्पर्य ये की शाम होते होते पुरे का पूरा रंगशाला पूर्वाभ्यास स्थल के रूप में गुलज़ार हो जाता. पटना के कई प्रमुख नाट्य दल एक साथ वहाँ पूर्वाभ्यास में संलग्न रहते. मंच और नुक्कड़ नाटकों के प्रदर्शन का सिलसिला भी बीच-बीच में चल पड़ता. स्वं मेरे द्वारा निर्देशित एकांकी मरणोपरांत” का मंचन भी बिना किसी खास खर्चे के वहीं किया गया था. बस थोडा बहुत खर्च आमंत्रण पत्र आदि कुछ अति ज़रुरी चीजों में ही हुआ. पूरी तरह मोमबत्ती की रौशनी में किये गए इस नाटक की यादें आज भी मेरे जेहन में लगभग जस की तस बसी हैं. वो शायद इसलिए भी की ये मेरे द्वारा निर्देशित पहली मंचिये प्रस्तुति थी. मरणोपरांत का प्रदर्शन होना था कि उस शाम बारिश होने लगी. बिजली की ऐसी व्यवस्था ना थी कि उससे की उचित व्यवस्था किया जाता. और फिर प्रकाश यंत्रो का किराया देने भर का भी पैसा कहाँ था हमारे पास. अँधेरे में नाटक देखने वालों को रंगशाला के मुख्या द्वार से मंच तक तो जाना ही था. अब अंधेरे में कोई जाये भी तो कैसेमरता क्या ना करताहमलोग अपने - अपने घरों से लालटेन ले आये. हमें ये भी नहीं पता था कि उसमें तेल कितना है. है भी की नहीं. बस लालटेन जलाया गया और मुख्या द्वार से लेके मंच तक जगह – जगह रख दिया गया. हमें ये कतई पता नहीं था की अपने आभाव और प्रदर्शन तो ज़रूर होना होना चाहिये की चाहत लिए हम ये जो कर रहें हैं वो नाटक की सफलता का एक बड़ा कारण बनके उभरेगा. प्रेमचंद रंगशाला का विशाल खंडहरनुमा इमारत, थोड़ी – थोड़ी रौशनी के साथ अँधेराबारिश से भीगा माहौल और जगह – जगह रखी लालटेन के साथ मद्धम – मद्धम कड़कती बिजली ने देखनेवालों के मन में मरणोपरांत“ के लिए एक शानदार पूर्वरंग तैयार कर दिया था. प्रकृति जब कला का साथी बने तो कलाप्रेमी और कलाकार दोनों के लिए कुछ ना कुछ यादगार तो होगा ही ना ?

जैसे ही ये सूचना मिली की हम पटना जा रहें हैं मन में एक उत्साह और उत्सुकता का संचार सा हो गया और सारी पुरानी यादें तेज़ी से मन के अन्तः पटल में घूम गया. एक सजग रंगकर्मी का रिश्ता देश समाज तथा कई अन्य चीजों के अलावा स्पेस से भी होता है जहाँ उपस्थित होकर वो अपने आप को साथियों के सहयोग से साधता है. गलतियाँ करता है और गलतियाँ कर कर के सीखता है. अब उस जगह को कोई कैसे परिभाषित करे जहाँ जाते ही आपकी ही छाया आपके सामने वो सब करता दिखे जो दरअसल आप कर चुकें हैंठीक वैसे का वैसा, वहीँ का वहीँ. इंसान के लिए कुछ चीजें केवल महसूस करने को होतीं हैं उसे शब्दों के जाल में कैद करना संभव नहीं क्योकि शब्द आभास तो दे सकतें हैं सम्पूर्णता नहीं.

हम ट्रेन से प्रातः छः बजे के आस पास पटना पहुंचे. धरती पर पांव रखते ही मन में खलबली मची. पटना का कोई रंगकर्मी पटना आये और कालिदास रंगालय तथा प्रेमचंद रंगशाला ना जाये तो ये मामला कुछ ऐसा ही होगा जैसे कोई घनघोर आस्तिक मंदिर जाये और भगवान की प्रतिमा का दर्शन न करे. मन कुलबुला रहा था सो होटल में सामान रखा और पैदल भागता हुआ घर पहुंचाबाइक उठाई और सीधा प्रेमचंद रंगशाला. रंगशाला जैसे जैसे करीब आता जा रहा था उमंग वैसे वैसे और ज़्यादा बढती जा रही थी. अंततः नवनिर्मित प्रेमचंद रंगशाला आँखों से सामने खडा और समय जैसे थम सा गया हो. ये अनुभव कुछ कुछ ऐसा था जैसे कभी खंडहर बना ये रंगशाला किसी जादुई यथार्थ की तरह हमारी आँखों के सामने ही अपना रूप बदल रहा हो. कभी ये रंगशाला तो कभी खंडहर वाला वो रंगशाला आँखों के सामने ठीक वैसे ही तैर रहा था जैसे तैरता है जागती आँखों का सपना. ये जादू शायद तब ना घटता जब मैं अपनी आँखों के ठीक सामने में रंगशाला को परिवर्तित होते देखता. जीवन का असली मज़ा तो अचानक में ही है और हम आपने जीवन में आवरण विहीन भी या यूँ कहें की सबसे ज्यादा रियल अचानक घटित घटनाओं में ही तो होतें है.

रंगशाला के मुख्यद्वार पर खड़ा मैं उसे एकटक निहार रहा था. सामने पटना के कुछ नए – पुराने रंगकर्मी बैठे गपिया रहे थे. रंगशाला के पीछे से पूर्वाभ्यास करने की आवाजें आ रहीं थीं. मन गदगद हो गया. भाग कर पीछे कि तरफ गया. वाह सबकुछ वैसा ही है. अलग – अलग कोने पर तीन रिहर्सल चल रहा है. बस अगर कुछ बदला है तो रंगशाला का आवरण और अभिनेता व निर्देशकों का चेहरा. कोई चटाई बिछाके पूर्वाभ्यास में संलग्न हैकोई पेड़ की टहनी से झाड़ू लगाके तो किसी के लिए घास का चादर ही काफी है.

बहुतेरे लोग इस बात से असहमत होगे पर तमाम उतर चढाव के बीच रंगकर्मियों में रंगमंच के प्रति जूनून आज भी कायम है. ये जूनून ही सबसे बड़ी शक्ति है यहाँ के रंगमंच की. इस जूनून में अब तक रंगशाला ने भी साथ नहीं छोड़ा है. अब देखना ये है कि पटना रंगमंच का नेतृत्व पटना रंगमंच और प्रेमचंद रंगशाला दोनों को कहाँ ले जाता है. हालाँकि पटना रंगमंच में दरार साफ साफ देखी जा सकती है. पर संकट की घडी में पटना के संस्कृतिकर्मी अपने तमाम मतभेदों को भूलकर एक साथ कदम से कदम मिलाकर चलतें रहें हैं. यही यहाँ की परंपरा है और संस्कृति भी. साझा संस्कृतिकर्म पटना रंगमंच की पहचान रही है. यहाँ रंगमंच मात्र मनोरंजन का साधन कभी नहीं रहा. ज़्यादातर वहीँ नाटक यहाँ खेले गए और सराहे गए जो हमारे समय से साक्षात्कार करतें हों. सवाल खड़ा करना यहाँ के रंगकर्मियों की आदत में शुमार रहा है. यहाँ के रंगकर्मी ज़रूरत पड़ा तो अपने हक़ के लिए सड़क पर भी उतारेलड़ाइयां भी लड़ी. यहाँ के रंगमंच का मूल चरित्र सामाजिक सरोकार का ही एक हिस्सा रहा है. सदियों से ये परम्परा कायम रही है और तमाम उतर चढाव के बीच भी कायम रहेगा. इंसान भले ही इतिहास को भुला दे पर इतिहास किसी को नहीं भूलता. समय किसी हंस की तरह दूध का दूध और पानी का पानी कर देता है.

विश्व के  प्राचीन नगरों में से एक पाटलिपुत्र में आज़ादी के कई दशकों बाद भी कला और संस्कृतिकर्म की क्या स्थिति है वो किसी से छिपी नहीं है. सिर्फ पाटलिपुत्र ही क्यों पुरे हिंदी प्रदेश का रंगकर्म कैसे चल रहा है यह बात जग ज़ाहिर हैं. बुनियादी सुविधाओं तक के आभाव के बीच यह कहना कि कला संस्कृति हमारे समाज का आईना हैं बड़ा ही मजाकिया सा भी प्रतीत होता हैबिलकुल ब्लैक ह्यूमर की तरह. हिंदी प्रदेश के रंगकर्म का मूल स्वरुप अर्थात आभाव का चिथड़ा ओढ़े पटना के अधिकतर रंगकर्मियों का गुरुकुल रहा है प्रेमचंद रंगशाला. यहाँ उन्होने खुद को झोंकामांजा और परिपक्व किया. अपने आप को मंच पर खड़ा होने लायक बनाया.

अंग्रेजों के भारत छोड़ने के पश्चात् भारतवर्ष पुनर्निर्माण की प्रक्रिया से गुजर रहा था. सैकड़ों सालों की गुलामी के बंधन से मुक्त होने के पश्चात् खुली हवा में सपने देखे जा रहे थे और साथ ही उसे पूरा करने का प्रयास भी किया जा रहा था. अब भारत को विश्व स्तर पर अपनी एक छवि का निर्माण भी करना था. इसी दौरान भारत अपनी सांस्कृतिक विरासत को पुनर्जीवित करने का प्रयास भी कर रहा था. संगीत नाटक अकादमी, ललित कला अकादमी, साहित्य अकादमी आदि की स्थापना के बाद राज्यों की राजधानियों में सांस्कृतिक केन्द्रों और प्रेक्षागृहों का निर्माण दनादन किया जा रहा था. इसी क्रम की एक कड़ी के रूप में प्रेमचंद रंगशाला को भी देखा जा सकता है. जिसकी परिकल्पना में जगदीश चन्द्र माथुर का नाम प्रमुखता से सामने आता है. कोणार्क जैसे प्रख्यात नाटक के रचयिता जगदीश चन्द्र माथुर स्वं एक नाटककार होने के अलावा बिहार सरकार में उच्च पदाधिकारी भी थे.

1971 - 72 में रंगशाला बनकर तैयार हुआ. अपने पहले ही कार्यक्रम में इसे हिंसा की आंधी में झुलसना पड़ा. रंगशाला पर रंगमंच का राज होने से पूर्व ही ताला लटक गया. फिर आपातकाल के दौरान सीआरपीएफ ने कब्ज़ा जमाया. इधर रंगशाला को मुक्त कराने का बिगुल भी पटना के जुझारू संस्कृतिकर्मियों ने फूंका. धरनाप्रदर्शन, जुलुसनाट्य प्रदर्शनकैंडिल मार्च का एक लंबा सिलसिला चल पड़ा. रंगशाला के लिए लोगों ने सत्ता की लाठियां खाईकवि कन्हैय्या जी की शहादत तक हुई. लंबे संघर्ष के बाद सन 1982 में रंगशाला को मुक्त कराया जा सका लेकिन तब तक नाटक के स्वप्नलोक हेतु निर्मित यह रंगशाला एक खंडहर में बदल चुका था. पर रंगकर्मियों ने हिम्मत नहीं हारी. पटना के कुछ प्रमुख नाट्य दलों ने इस खंडहरनुमा रंगशाला का इस्तेमाल पूर्वाभ्यास के लिए करना शुरू कर दिया. धीरे धीरे पटना के कुछ प्रमुख नाट्यदलों का कार्यालय भी बन गया प्रेमचंद रंगशाला. दिन भर नाटकों के पुर्वाभ्यासों के आनंदित होने वाला प्रेमचंद रंगशाला रात में अभी भी वीरान पडा अपनी हालत पर चमगादरों के चें चें के बीच फफक – फफक कर रो रहा था. पर अभी भी इसे नाटक के लिए उपलब्ध करने के स्वप्न को रंगकर्मियों ने आँखों में सजा रखा था. जब भी मौका मिलता इसका ज़िक्र करने से पटना का कोई भी सजग संस्कृतिकर्मी नहीं चूकतासन 1987 में पटना के संस्कृतिकर्मियों के पुरजोर मांग पर मुख्यमंत्री को इसका पुनरोद्धार कारने की घोषणा करनी ही पड़ी. इस पूरी प्रक्रिया में पटना के बामपंथी छात्र संगठनोंकार्यकर्ताओं एवं पटना के लेखकोंबुद्धिजीवियों आदि के सहयोग ने भी रंगकर्मिओं को अपार उर्जा प्रदान की तथा लड़ो और जीतो के जज़्बे को जिलाए रखा.

आम तौर पर रंगशालाओं की किस्मत में नाट्य-प्रदर्शनों का साक्षी होना ही लिखा होता है पर यह प्रेमचंद रंगशाला अपने मंच पर नाटकों का मंचन होते देखने से पूर्व कई सदियों तक नाट्य दलों के आलेख चयन से लेकर मंचन की तैयारी की अंतिम प्रक्रिया का मूक गवाह बना रहा. इस रंगशाला ने नए रंगकर्मियों के आगमन से लेकर प्रसिद्धि के सफर का एक - एक दिन देखा तो रंगकर्मियों के पलायन और एकाएक कहीं गुम हो जाने की करुणा की पीड़ा भी सहा. इसने रंगकर्मियों को हंसते देखारोते देखागाते देखापसीना बहाते देखा और तो और नाजुक रिश्तों को बनते बिगड़ते और परवान चढ़ते भी देखा. कईयों की वफ़ा और बेवफाई तो कईयों की उदंडता के निहायत ही निजी क्षणों का मूक गवाह भी यही बना. कसमें खाते और कसमें तोड़ते पलों का एकलौता द्रष्टा भी तो यही बना, तो वेदना में दीवार की टेक लेती मल्लिका का सहारा भी यही था. घर से रूठे रंगकर्मियों को पनाह भी यहीं मिली. इसने बना बनाया कालिदासविलोममल्लिकाशकुंतला, कर्नल सूरत सिंहअश्वथामाकर्ण, यागो आदि नहीं बल्कि इन् सबको एक पल बनते – गढते देखा. अपने विशाल प्रांगण में कलाकारों को कभी शारीरिक अभ्यास तो कभी क्रिकेट आदि खेलते तो कभी नुक्कड़ और मंच नाटकों का मंचन करते भी देखा. इसके हिस्से सिर्फ मंचन की एकरसता नहीं बल्कि पुरे का पूरा नाट्य प्रक्रिया और मानव जीवन के कुछ बहुत ही अनमोल तो कुछ बहुत ही बुरे पल आये. आज जब ये बेहतरीन सुविधाओं से लैस होकर पूरे भव्य रूप में बन ठन के तैयार है भारत के किसी भी रंगालय को टक्कर देने के लिए तो अपनी इस किस्मत पे ये क्यूँ ना इतराए. हाँइसे गुमान नहीं है की अगर सबकुछ सही चलता रहा तो ये पुरे भारत के कुछ चुनिन्दा रंगालयों में से एक होगा जिसके पास इतनी आधुनिक सुविधाएँ और जगह है.

गर्व की बात है कि सारे अत्याधुनिक उपकरणों से लैस होकर प्रेमचंद रंगशाला आज रंगमंच एवं बिहार के सांस्कृतिक वर्तमान, भविष्य तथा इतिहास का साक्षी बनाने को पूरी तरह से तैयार है. परन्तु गौरव की बात तब होगी जब ये स्थानीय रंगकर्मियों तथा आम आवाम के पहुँच के दायरे में रहेगा. इसके लिए इसके संचालन समिति में स्थानीय रंगकर्मियों तथा आम जन के प्रतिनिधिओं को भी शामिल करना एक ज़रुरी एवं अनिवार्य शर्त बन जाता है. वहीँ रंग और कला जगत का एक कला ग्राम के रूप में अपने आप को प्रस्तुत करने के लिए प्रेमचंद रंगशाला के प्रांगण में पूर्वाभ्यास स्थलों का निर्माण, एक पुस्तकालय जिसमें भारतीय व विदेशों के रंगमंच संबंघी पुस्तकों और पत्रिकाओं के साथ ही साथ साहित्य की भी उपलब्धता हो, एक दुकान जहाँ पुस्तकें, दुनियां की बेहतरीन फ़िल्में एवं संगीत की उपलब्धता, रंग-संग्रहालय, काफ़ी हाउस के तर्ज़ पर चाय नाश्ते की एक दुकान आदि को भी खुद में समाहित करना होगा. तमाम प्रकार के उतार – चढाव के बावजूद भारतीय रंगपटल पर पटना रंगमंच की एक प्रखर पहचान नुक्कड़ नाटकों से भी रही है. प्रेमचंद रंगशाला के प्रांगण में रंगमंच की इस ताकतवर विधा के लिए एक कोना तो होना ही चाहिए. साथ ही साथ अगर सरकार एक राजकीय रंगमंडल जिसका संचालन बिहार के रंगकर्मियों का प्रतिनिधिमंडल करे, के बारे में भी विचार करें तो पटना रंगमंच के सपनों को एक अहम आयाम मिल सकता है.

दमा दम मस्त कलंदर

आज सुबह-सुबह वडाली ब्रदर्स का गाया हुआ दमा दम मस्त कलंदर सुन रहा था. गाने के दौरान उन्होंने फ़कीर मस्त कलंदर से जुड़ा एक अद्भुत किस्से का ...