मीडिया मूलतः दो प्रकार का है - प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक | रंगमंच
के बारे में विद्वानों का मत है कि यह भी मूलतः दो प्रकार का ही है – शौकिया और
व्यावसायिक | जात्रा, पारसी, नौटंकी के साथ ही साथ पारंपरिक रंगमंच लगभग लुप्तप्राय
हो चुके हैं | भारत में व्यावसायिक रंगमंच कहाँ और कितना है यह एक शोध का विषय हो
सकता है ! भारतीय रंगमंच का मूल स्वरुप शौकिया ही है | मीडिया का दायरा जहाँ दिन-प्रतिदिन
और ज़्यादा विस्तृत हो रहा है वहीं रंगमंच का दायरा तमाम सरकारी सहयोगों के बावजूद दिन-प्रतिदिन
सिमट रहा है | कैरियरिज़म के वर्तमान दौर में यह सिमटन वैचारिक, सामाजिक, राजनैतिक,
व्यक्तिगत आदि स्तरों पर देखी जा सकती है | रंगमंच क्यों ? इस छोटे से सवाल का
जवाब आज बड़े-बड़े रंगकर्मियों और समाज के पास नहीं है ! शायद इसीलिए नाट्य
विद्यालयों से निकलनेवाले छात्र एकाएक बेमकसद होकर खाक छानने को अभिशप्त हैं,
क्योंकि रंगमंच करने के पीछे उनका उद्येश्य नाट्य विद्यालय में दाखिला लेना था |
दाखिला मिल गया, पास आउट भी हो गए, अब ? बिना मकसद के संचालित होने वाला कलाकर्म हर
स्तर पर अराजकता और व्यक्तिवाद को ही बढ़ावा देगा, ये तय है |
रंगमंच एक समय में एक स्थान पर होनेवाला कलाकर्म है और मीडिया
एक चीज़ को घर-घर पहुंचानेवाला माध्यम | सूचनाएं, न्यूज़ और व्यूज़ के सहारे
चलनेवाला मीडिया रंगमंच से और ज़्यादा से ज़्यादा लोगों को जोड़ने, इसके दस्तावेज़ीकरण,
समीक्षात्मक चिंतन में एक प्रखर भूमिका का निर्वाह कर सकता है | उपरोक्त बातें हम
केवल प्रिंट मिडिया के सन्दर्भ में कर रहें हैं क्योंकि इलेक्ट्रॉनिक मिडिया ने
अभी तक रंगमंच को कोई खास जगह नहीं दिया है | भारत में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया अभी
नया है और फिलहाल पेड न्यूज़, ब्रेकिंग न्यूज़ और टीआरपी की चपेट में फंसकर गलाकाट
प्रतियोगिता में संलग्न है | हमारे यहाँ लगभग हर चीज़ का एक अलग चैनल है सिवाय
पारंपरिक कला और रंगमंच के | वैसे प्रिंट मीडिया की स्थिति भी कुछ ऐसी ही है | विज्ञापनों
के साथ ही साथ क्रिकेट और सिनेमा की खबरें हर अखबार को अपने कब्ज़े में जकड़ चुकी है
वहीं नाटकों के मंचन से लेकर प्रतिबंध जैसी ख़बरें बमुश्किल ही यहाँ स्थान बना
पातीं हैं |
मीडिया लोकतंत्र का चौथा खम्भा है लेकिन भारतीय सन्दर्भ में
यदि लोकतंत्र की बात करें तो ये साफ़ लगता है कि यह अभी वयस्क नहीं हुआ है बल्कि
दिन-प्रतिदिन खतरनाक रूप से अराजक होता जा रहा है | असहमति
का स्वर अब विद्रोह माना जाता है | क्रिकेट के एक शतक से एक व्यक्ति लखटकिया नायक
हो जाता है वहीं पूरा जीवन कला, साहित्य, रंगमंच की सेवा करनेवाला कलाकार और आम
आवाम जीवन की मूलभूत सुविधाओं तक से महरूम है | ऐसी स्थिति में लोकतंत्र के
खम्भों की क्या हालत होगी इसका अंदाज़ा सहज ही लगाया जा सकता है | चंद बड़े नामों को
छोड़ दें तो पत्रकारों की स्थिति भी कुछ खास अच्छी नहीं है |
एक वक्त था जब अधिकतर प्रतिष्ठित
अखबारों में साप्ताहिक कला और संस्कृति नामक पन्ना प्रकाशित हुआ करता था जिनमें
नाटकों,
गीत, संगीत, नृत्य आदि
सांस्कृतिक कार्यक्रमों पर समीक्षात्मक व सूचनात्मक आलेखों का प्रकाशन होता था | तब समाचार का मूल माध्यम अखबार, रेडियो तथा दूरदर्शन हुआ करता था | फिर विचार के अंत (Post Modernism) की घोषणा के साथ उदारीकरण, निजीकरण
और बाज़ारवाद का ऐसा दौर आया और उसी के साथ इलेक्ट्रोनिक मीडिया की कुछ ऐसी आंधी
चली कि लगा अखबार के दिन गए ! पर ऐसा हुआ नहीं | हाँ, अखबारों
ने इस दौरान अपना स्वरूप बदला और धीरे- धीरे उन खबरों को विलुप्त करता गये जो
‘गंभीर’ की श्रेणी में आती थीं | कला-संस्कृति भी यहाँ से विलुप्त हो गई और किसी ने
मीडिया के इस कुकर्म का सामूहिक विरोध नहीं किया ! अख़बारों के सम्पादक अब केवल सम्पादक
नहीं रहे बल्कि नफ़े-नुकसान का बही-खाता संभालने वाले एक ऐसे जीव के रूप में परिवर्तित
हो गए हैं जिन्हें अपनी कुर्सी बचाए रखने के लिए मुनाफ़े का मंजन घिसते रहना था |
नीति साफ़ थी कि अखबार अब उन्हीं ख़बरों को छापेगा
जो सनसनी पैदा करे | कला-संस्कृति की ख़बरें कौन पढ़ता है ?
भारत में रंगमंच का इतिहास सदियों पुराना है
पर रंगमंच पर कोई निष्पक्ष और निरंतर पत्रिका नहीं है, जो हैं उनकी स्थिति न होने
जैसी ही है | जहाँ तक सवाल साहित्य की प्रतिष्ठित पत्रिकाओं का है तो सिनेमा पर तो
वे बड़े ही गर्व के साथ विशेषांक निकालते हैं किन्तु रंगमंच व अन्य कलाओं के लिए
यहाँ अघोषित रूप से प्रवेश निषेध है ! वहीं संगीत नाटक अकादमियां न जाने कब की
भ्रष्ट, अराजक और दिशाहीन हो चुकीं हैं | यहाँ अब कला-संस्कृति के नाम पर पैसों के
बंदरबांट, कमीशनखोरी के सिवा कुछ नहीं होता है |
यह एक तरफ़ चीज़ों के तकनीकीकरण का दौर है वहीं
सामाजिक चिंतन के स्तर पर व्यक्तिवाद, क्षेत्रवाद, जातिवाद, समुदायवाद, आत्ममुग्धता,
वैचारिक दिवालियेपन और सामूहिकता के ह्रास का काल भी है | इससे कोई नहीं बचा – न
नाटक, न मीडिया, न परिवार और ना ही समाज | नाटक करने के लिए नाटक करने और
उद्देश्पूर्ण नाटक करने में बहुत फर्क है | ग्रांट और महोत्सव आधारित रंगमंच के
वर्तमान युग में गंभीर चिंतन-मनन, आलोचना-समालोचना, बात-विचार, प्रतिबद्धताएं अब
रंगकर्मियों के सिर में दर्द पैदा करने लगी हैं | रंगमंच का सरोकार समाज से हो या
न हो किन्तु रंगमंच सामाजिक परिघटनाओं से अछूता रह पायेगा ऐसा सोचना मूर्खता है |
रंगमंच का एक अति महत्वपूर्ण अंग है – नाट्यालोचना,
जो अमूमन पत्र-पत्रिकाओं के मार्फ़त ही होती है | वर्तमान में नाट्यालोचना की स्थिति
ये है कि नाटकों पर आलोचनात्मक टिपण्णी करने पर रंगकर्मियों ने समीक्षक/आलोचक को सैधांतिक
या शारीरिक हिंसा से साक्षात्कार करवाया और बहिष्कार तक की घोषणा कर दी ! वहीं
दूसरा सच ये कि वो लोग भी नाटकों पर अपनी कलम चलाने से बाज नहीं आते जिनको रंगमंच के
सैद्धांतिक और व्यावहारिक पहलुओं की उतनी समझ नहीं कि वो रंगमंच की समीक्षा करें |
रंगकर्म वर्तमान में घटित होनेवाला
कलामाध्यम है,
इसलिए नाट्यालोचना की प्रवृति अन्य कला माध्यमों से ज़रा अलग होती है | साहित्य,
फिल्म, चित्रकला, मूर्तिकला ऐसी विधाएं हैं जो अपने पाठकों, दर्शकों, रसिकों के लिए सदा उपलब्ध रहतीं हैं | कोई भी इन्हें पढ़, देखकर इनकी
समीक्षा से इतर अपने विचार बना सकता है, किन्तु किसी भी
नाट्य प्रस्तुति के प्रदर्शन को उसी स्वरुप में चिरकाल तक जारी रखना संभव नहीं |
एक ही दल द्वारा किया गया एक से दूसरा प्रदर्शन कम से कम संवेदनात्मक स्तर पर एक
दूसरे से अलग होता है | नाट्य-साहित्य, नाट्य प्रदर्शन का स्वरूप ग्रहण करके ही
अपनी पूर्णता को प्राप्त होता है | अगर हम पूर्व प्रदर्शित नाटकों के बारे में
जानकारी चाहते हैं तो विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित उस नाटक की समीक्षा और
समाचार महत्वपूर्ण माध्यम होते हैं | इसीलिए नाटकों की खबरनवीसी, आलोचना, समीक्षा
आदि एक ऐतिहासिक महत्व का काम हो जाता है | किन्तु यथार्थ ये है कि एक ख़ास तरह की मृगतृष्णा और हड़बड़ी की चपेट में आज रंगकर्मी, नाटककार,
आलोचक सब हैं |
भारत एक ऐसा कृषि प्रधान सांस्कृतिक देश है जिसके
हुक्मरानों और आवाम को न तो कृषि की चिंता है ना ही संस्कृति की | जिस देश की जनता
अनगिनत मजबूरियों का बोझ लादे केवल वोट डालके अपनी ज़िम्मेदारी से मुक्त हो जाय वहां
इससे बेहतर स्थिति की उम्मीद भी नहीं की जा सकती | औद्योगिक विकास के पागलपन में एग्रीकल्चर
(कृषि) की बात तो खींच तानके कभी-कभार हो भी जाती है पर कल्चर (संस्कृति) की बात ?
समाज का कोई भी अंग यदि अपने सामाजिक दायित्वों का निर्वाह नहीं करता तो निरर्थक
है | सार्थक मीडिया और सार्थक रंगमंच का मूल काम व्यवसाय से ज़्यादा लोगों की चेतना
जागृत और कोमल करने का होता है, यह पारस्परिक सहयोग से चलनेवाली प्रक्रिया है | निरपेक्षता
का भाव समर्थन होता है और विरोध भी | इतिहास किसी को माफ नहीं करता, चाहें वो
रंगकर्मी हो, समाज हो या मीडियाकर्मी | विकास का आधार केवल आर्थिक नहीं होता बल्कि
सांस्कृतिक और सामाजिक भी होता है जिसकी प्रक्रिया अंदर से शुरू होती है, जो विकास
बाहर से थोपा जाय वो विनाश, अराजकता और विस्थापन को बढ़ावा देता है | सनद रहे, मुक्ति
अकेले में अकेले की नहीं बल्कि सबके साथ होती है |
इप्टानामा नामक पत्रिका में प्रकाशित.
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