मधुकर सिंह |
वैसे तो हिंदी साहित्य में रुचि रखनेवाले
लोग मधुकर सिंह के नाम से भली भांति परिचित होगें ही फिर भी संभव है कि कुछ लोग यह सवाल करें
कि ये कौन हैं ? बिहार के भोजपुर जिला के धरहरा
गाँव के निवासी मधुकर सिंह कई प्रसिद्ध कहानियां और उपन्यास लिख चुके हैं. 2 जनवरी,
1934 को बिहार
के एक ग्रामीण अंचल में जन्मे मधुकर सिंह की प्रमुख कृतियां पूरा सन्नाटा, भाई का जख्म, अगनुकापड़, पहला पाठ, माई (कहानी संग्रह); सबसे बड़ा छल, ‘सोनभद्र की राधा, सीताराम नमस्कार, सहदेव नाम का इस्तीफा, जंगली सूअर, मनबोध बाबू, बेमतलब बदनाम ज़िन्दगियाँ, उत्तरगाथा, आगिन देवी (उपन्यास) तथा सन् साठ के बाद की कहानियॉं, ग्राम्य जीवन की श्रेष्ठ कहानियॉं
का संपादन सहित कई नाटक भी इनके नाम हैं. लेखन के लिए कई सम्मान से सम्मानित भी हैं.
देश के लगभग सभी प्रतिष्ठित हिंदी पत्र-पत्रिकाओं में कहानियाँ प्रकाशित हो चुकी
है. इस बार नामक पत्रिका का संपादन भी किया.
यही मधुकर
सिंह पिछले कई साल से लापता ज़िंदगी जी रहे थे. एकाएक राजभाषा विभाग द्वारा
जोहांसबर्ग में आयोजित हो रहे विश्व हिंदी सम्मेलन में भाग लेने के लिए इनके नाम
का चयन किया जाता है और अधिकारीगण मधुकर सिंह नामक व्यक्ति की खोज में निकाल पडतें
हैं. तमाम खोजबीन करने के बाद जब ये मिलते हैं तो पता चलता है कि इनकी हालत विदेश
क्या किसी भी यात्रा के लायक नहीं है. आगे की कथा आप मधुकर सिंह की ही ज़ुबानी
सुनिए – “मैं सात साल से बिस्तर पर पड़ा हूं. पैसे के अभाव में इलाज नहीं हो
पा रहा है. मैं साहित्यकार हूं. भारत का प्रतिनिधित्व भी करना चाहता हूं. लेकिन
साहित्यकारों को आज पूछ कौन रहा है. केवल हिन्दी सम्मेलन में भाग लेने के लिए ही
साहित्यकारों को सरकारें याद करती हैं. यदि मेरी खोज-खबर राज्य सरकार ने पहले की
होती, तो आज मैं विदेश जाने में सक्षम होता. सरकार विदेश भेजने के प्रक्रम
में जो राशि मुझ पर खर्च करना चाहती है, वह मुझे दे दे. ताकि मैं अपना
इलाज करा सकूं.”
इस घटना के
बाद जब मीडिया ने बिहार के कुछ साहित्यकारों के मुंह से बात निकलवाई तो बेचारे
प्रगतिशीलता का मुखौटा ओढने की मजबूरी से कैसे बच सकते थे. झट से व्यवस्था और समाज
को कोसने लगे ये भूलकर कि स्वयं इन्होनें भी इतने सालों में मधुकर सिंह की कोई खोज
खबर नहीं ली. कुछ नहीं तो कम से कम मधुकर जी के ये महान समकालीन प्रगतिशील मित्रगण
इनके बारे में एक आलेख तो लिख ही सकते थे या किसी प्रकार की कोई अपील कर हिंदी
साहित्य जगत और आम जन से कोई मदद तो मांग सकते थे. पर लिखे तब न जब कुछ पता हो, कोई खोज खबर ली हो, और अगर पता होते हुए भी जिन्होंने चुप्पी साध रखी हो, वे किसी मिट्टी के बने हैं, वही बता सकते हैं.
ऐसा प्रतीत
होता है कि सब जैसे हाथ में गेंदे का फूल लेकर लोगों के मृत्यु का इंतज़ार कर रहे
हों, ताकि तस्वीर पर पुष्प अर्जित करते
इनकी तस्वीर अखबारों में छपे. क्या श्रद्धांजलि सभाओं में मरनेवाले से जुड़े
संस्मरणों को सुनाने में इन जैसे साहित्यकारों को शर्म नहीं आनी चाहिए ? कहा जाता है कि कला और साहित्य
समाज का दर्पण होते हैं और कलाकार, साहित्यकार दुनियां की सबसे संवेदनशील विरादरी होती हैं. जिस
समाज के साहित्यकार, कलाकार इतने संवेदनहीन हों वहाँ कैसी कला और साहित्य की रचना होगी
इसका अनुमान आराम से लगाया जा सकता है. जब हमारे अंदर इतनी भी संवेदना नहीं है तो
क्या कला और क्या साहित्य ! दुनिया में परिवर्तन जब होना होगा तब हो जायेगा पर
संवेदनशीलता, प्रगतिशीलता आदि का दावा करनेवाले
लोग आज कहाँ हैं और क्या कर रहें हैं ?
पटना के
अखबारों में इससे संबंधित सूचना प्रकाशित हुई तो मदद के नाम पर कुछ खानापूर्ति भी
हो गई. निश्चित रूप से कुछ लोग ऐसे भी होंगें ही जो तहे दिल से मधुकर सिंह की मदद
में लगे होंगें. मुझे उनकी जानकारी नहीं है. ब्लॉग और फेसबुक पर इनको लेकर कुछ
लोगों ने चिंताएं ज़ाहिर की हैं और मदद की गुहार भी लगाई है. एक ब्लॉगर ने सहायता
के लिए इनका बैंक एकाउंट भी डाला है. किसने कितनी सहायता की, की भी या नहीं मुझे इसकी जानकारी नहीं है. मैं एक रंगकर्मी हूँ, मधुकर को कई साल पहले पटना में नाटक व साहित्यिक आयोजनों में
आते जाते देखा है. व्यक्तिगत रूप से हम एक दूसरे से परिचित नहीं हैं, ना ही उनसे मेरा कोई सीधा संपर्क ही है.
सरकारों की
बात क्या करे कोई ! सरकारें ऐसे मामलों में कितनी संवेदनशील है ये बात किसी से
छुपी नहीं है. ज़्यादा दवाब होगा तो भिखारी की तरह चंद रुपये फेंककर मुक्त हो
जायेगी या जुगाड़ होगा तो कोई सम्मान पकड़ा देगी. मात्र पेट चलाने के लिए किसी
कलाकार व साहित्यकार को कैसे-कैसे काम करने पडते हैं, यह हम सब जानते हैं. आज़ादी और प्रजातंत्र के बड़े-बड़े दावे
के बीच कला और साहित्य की सेवा करते हुए कितनो का पेट भरा है ? आज देश के कितने मंत्री, विधायक, अधिकारी को कला-संस्कृति-साहित्य
की चिंता है ? कला-साहित्य के बड़े-बड़े सरकारी संस्थानों में पैसे का
बंदरबांट के अलावा होता क्या है ? जिन कलाकार, साहित्यकार का जुगाड़ है वो सालों
भर मलाई का मज़ा लें, किसी को कोई आपत्ति नहीं ! बाकि
जाएँ भाड़ में ! अभी पिछले दिनों हिंदी दिवस के मौके पर झारखण्ड के विधायकों से
उनकी व्यक्तिगत रुचि जानने के लिए उनके पसंदीदा लेखक का नाम बताने को कहा गया तो
अधिकतर लोगों ने प्रेमचंद का नाम बताकर खानापूर्ति भर करके किसी प्रकार अपनी जान
बचाई.
बहरहाल, वर्तमान में मधुकर सिंह पैरालिसिस से ग्रस्त हो अपने गांव में
रह रहे हैं और तमाम उपेक्षाओं और शारीरिक कष्टों के बावजूद अपनी आत्मकथा ‘आवारा मसीहा का सफरनामा’ लिखने की कोशिश में लगे हैं. सिजोफ्रेनिया नामक बिमारी से पीड़ित महान
गणितग्य वशिष्ट नारायण सिंह का हाल भी किसी से छुपा नहीं है. वर्तमान में वे अपने गाँव
(बसंतपुर, भोजपुर) में परिवार के सहारे किसी
तरह जीवनयापन रहें हैं. भारतीय सिनेमा की अज़ीम-ओ-शान फिल्म मदर इंडिया में ज़मींदार की ये छोटी-सी भूमिका निभाने वाला
अभिनेता संतोष कुमार खरे लखनऊ की सड़कों पर और भिखारी ठाकुर जैसे भारतीय
पारंम्परिक रंगमंच के अग्रणी कर्ता के नाट्य दल का एक सदस्य सीताराम पासवान भीख
मांगकर गुज़ारा करने को अभिशप्त हैं. वो ज़िंदा भी हैं या नहीं ये जानने में किसी
को कोई दिलचस्पी नहीं. ऐसे उदाहरण भरे पड़े हैं.
आम जनता सहित, पता नहीं कितने साहित्यकार, रंगकर्मी, लोक-कलाकार, समाजसेवी आदि आज इस प्रकार की
ज़िंदगी जीने को अभिशप्त हैं. कम से कम इनकी खोज खबर लेते रहने का नैतिक दायित्व
के निर्वाह करने की चेष्ठा तक अब नहीं रही ? क्या आज हम इतने मजबूर हैं कि
केवल हाथ पर हाथ धरे और कभी-कभार फेसबुक और ब्लॉग पर ज़िक्र भर कर देने के सिवा
कुछ नहीं कर सकते ? ये मानने को दिल नहीं करता कि हम सच में इतने मजबूर हैं. हाँ, ये माना जा सकता है कि हमारी संवेदना को किसी की नज़र लग गई है, शायद अपनी ही. तभी तो ऐसी बातें भी हमें उद्वेलित नहीं करती. या
करती भी हैं तो हम कुछ खास नहीं करते. हम अपने लिए जब संघर्ष करने से कतराने लगे
हैं तो दूसरों और समाज के लिए क्या खाक लड़ेंगें. हम व्यक्तिगत सच से ही भय खा
जाते हैं सामाजिक सच तो दूर की बात है. शर्मनाक है. साथ ही जिस देश का साहित्यकार, कलाकार भूखो मरने को अभिशप्त है वहां कला-साहित्य के बड़े-बड़े
जलसों के नाम पर उत्सवधर्मिता इनकी हालत और गरीबी का मजाक नहीं तो और क्या है और
हमारा मौन एक प्रकार से सहमति और मजबूरी का ही घोतक है. इस खतरनाक मौन का नाश हो.
खैर, मधुकर सिंह
एक सपना देखते हैं कि उन्हें साहित्य अकादमी की ओर से
दस लाख का पुरस्कार मिला है और पुरस्कार समारोह में शीला दीक्षित भी हैं.
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