किसी भी सार्थक
साहित्य का दायरा इतना सीमित कभी हो ही नहीं सकता कि वह एक
खास वर्ग,जाति, समुदाय द्वारा ही लिखा-पढ़ा, समझा-समझाया जाय। यदि कोई समूह या
व्यक्ति ऐसा करता है तो यह उसकी संकीर्णता है, उसकी मंशा पर संदेह किया जाना चाहिए।
इन दिनों ऐसे फतवे देने वाले, विचार-प्रक्रिया को एकालाप या स्वगत कथन में
परिवर्तित करनेवाले लोगों की कोई कमी नहीं जो यह कहते हुए पाए जाते हैं कि जो लोग
जन्मजात बहुजन समुदाय (दलित-आदिवासी) से नहीं हैं वो इनके सवालों पर सच्चा साहित्य
रच ही नहीं सकते, यदि रचते हैं तो वो “टॉप एंगल साहित्य” या “मर्सी-पिटीशन” होता
है। ऐसे विचार उसी ब्राह्मणवादी मानसिकता के परिचायक नहीं तो और क्या है?
इस
प्रकार के सिद्धांत के समर्थक अमूमन नफ़रत का बीजारोपण कर मुहीम को वैचारिक के
स्थान पर व्यक्ति केंद्रित करने का काम ज़्यादा करते हैं।
यह संभव है कि
व्यक्तिगत अनुभव साहित्य को और ज़्यादा धनी बनाता हो किन्तु केवल अनुभव मात्र से ही
साहित्य सृजन संभव नहीं। साहित्य में शिल्पगत रूप से व्यक्तिगत सच सामूहिक सच में भी
परिवर्तित होता है। जहाँ यह प्रक्रिया घटित नहीं होती वहां साहित्य व्यक्तिगत
प्रलाप-एकालाप बनकर रह जाता है। यह अपने आप में एक असाहित्यिक वक्तव्य है कि किसी
चीज़ पर रचना करने से पहले रचनाकार का उस विषय का व्यक्तिगत अनुभव होना ज़रुरी है। यह
तर्क ज्ञान, बुद्धि, विवेक, कल्पना और प्रतिभा के विरुद्ध है। क्या मनुष्य केवल
अनुभव मात्र से ही पीड़ा, संघर्ष, सुख-दुःख आदि की अनुभूति करता है? यदि ऐसा होता
तो मानव एक चेतनशील प्राणी नहीं माना जाता। साहित्य क्या कोई भी कला केवल अनुभव मात्र
की मोहताज़ कभी नहीं रही। यहाँ ज्ञान, कल्पना, शिल्प, बिम्ब, प्रतीक आदि-आदि का भी
महत्वपूर्ण योगदान होता है। ऐसे उदाहरणों से विश्व साहित्य भरा पड़ा है जहाँ लेखकों
ने अपने समुदाय, वर्ग, लिंग आदि से परे जाकर कालजई और प्रेरक रचनाएँ रची हैं। अनुभव
से एक खास प्रकार का साहित्य (आत्मकथा, संस्मरण, यात्रा वृतांत इत्यादि) रचा जाता
है किन्तु इसके लिए भी लेखकीय प्रतिभा का होना अनिवार्य है।
साहित्य की कलात्मकता
और रचना प्रक्रिया पर बहुत सी बातें हो चुकी है, होती रहती हैं, यहाँ अलग से उस
विषय पर बात करना ज़रुरी नहीं। साहित्य की सार्थकता को हम ओ हैनरी की एक विश्वप्रसिद्ध कहानी आखिरी पत्ता से समझ सकते हैं जहाँ रचनाकार स्वयं होम होकर एक
मानवीय मास्टरपीस रचता है। जो साहित्य समाज के लिए आशा की किरण और संघर्ष की शक्ति
को प्रस्फुटित नहीं करता, उसकी सार्थकता संदेहास्पद है। उसे समाज का हर तबका रचे
इसमें क्या बुराई है। आज इसका साहित्य, उसका साहित्य, उसके लिए साहित्य नाम पर
जितने भी मठ-गढ़ चल रहे हैं, उससे रचनाकार का भला भले ही हो जाय, रचना और समाज का
भला शायद ही होगा। दूसरे को कमतर और अपने और अपने जैसों को श्रेष्टतर मानने की
प्रवृति से न समाज अछूता है ना ही रचनाकार। मेरी कमीज़ तेरी कमीज़ से सफ़ेद है के व्यर्थ
प्रलाप से ज़्यादा ज़रुरी है अमानवीयता के विरुद्ध सृजनात्मक योगदान की दिशा में रचना
और रचनाकार को प्रयासरत होना। नए मापदंडों और व्यापक वैश्विक दृष्टिकोण के साथ अनेकता
में एकता भी साहित्यिक आंदोलन का उद्देश्य हो सकता है। बांटों और राज करो का नारा
तो सदियों से बुलंद है ही।
यह सच है कि
बहुजन साहित्य को पढ़ने, समझने के लिए साहित्य के नैतिकतावादी और बने-बनाए मापदंडों
को चुनौती देना पड़ेगा, इस साहित्य की अपनी ही एक भाषा, शिल्प, सौंदर्यशास्त्र आदि
है। बकौल राजेन्द्र यादव “दलित लेखन को गुस्ताखी का साहित्य कहा जा सकता है
जिसका प्रमुख स्वर है गुस्सा या आक्रोश : यह आक्रोश जहाँ एक ओर सवर्ण व्यवस्था को
लेकर है तो दूसरी ओर अपनी स्थिति, नियति और लाचारी को लेकर। यह आरोपपत्र भी है और
मांगपत्र भी।” वहीं शरण कुमार लिम्बाले अपने संग्रह का नाम दलित
ब्राहमण रखते हैं। इस संग्रह कीआत्मकथा
नामक कहानी में लिम्बाले लिखते हैं “दलित साहित्य पर बेहिसाब बहसें हो रही
हैं। दलित लेखकों की आत्मकथाओं की बड़ी प्रसिद्धि हो रही है। कोई एक आत्मकथा
प्रकाशित हो जाती है और रातोंरात वह लेखक महान बन जाता है। उसे पुरस्कार मिलने
लगते हैं। उसके सत्कार-समारोह संपन्न होते हैं। उसकी तारीफ़ में लेख छपने लगते हैं।
फिर शासन की समितियों में उसकी नियुक्ति होने लगती है। उसकी पोशाक बदल जाती है।
उसकी भाषा बदल जाती है। उसका रहन-सहन बदल जाता है।जो लिखता है लेखक बन जाता है।” यहाँ
लिम्बाले जिस प्रवृति का ज़िक्र कर रहें हैं यह प्रवृति किसी भी साहित्य के लिए
घातक है। अफ़सोस; आजकल ऐसी ही प्रवृतियों की चपेट में रचनाएं और रचनाकार दोनों हैं।
इससे कतई
इनकार नहीं कि साहित्य की बहुजन धारा ने कई कड़वे सच से पर्दा हटाकर एक ज़ोरदार
उपस्थिति दर्ज़ की, नई बहसों को जन्म दिया। किन्तु तमाम वर्गों, वर्णों, समुदायों,
संप्रदायों आदि में विभक्त बहुसांस्कृतिक भारतीय समाज में आज बहुजन हिताय के
संघर्ष को सर्वजन हिताय में परिवर्तित कर उसकी सार्थकता के दायरे का और ज़्यादा
विस्तार हो तो क्या कुछ गलत होगा? क्या
इसी में साहित्य और समाज की भलाई नहीं है?
एक मठ का जवाब एक और मठ नहीं हो सकता। जिस मानसिकता के विरुद्ध यह आंदोलन खड़ा हुआ
वही मानसिकता अगर इसे अपनी चपेट में ले ले इससे दुखद बात और क्या हो सकती है। दुखद
है कि आज वैसे लोगों की कमी नहीं जो दलित-आदिवासी के नाम पर ‘अपनी डफली-अपना राग’ अलाप
रहे हैं।
हम किस
वर्ग-समुदाय के हैं से ज़्यादा ज़रुरी सवाल यह है कि रचनाकर्म का उद्देश्य और
रचनाकार की मानसिकता क्या है और इससे किसको लाभ मिल रहा है। संघर्ष मानसिकता से होना
चाहिए।जाति से जाति, समुदाय से समुदाय का संघर्ष किसी भी कलात्मक अभिव्यक्ति का
मूल लक्ष्य हो भी नहीं सकता और यदि होता है वो वह अमानवीय है। इस अमानवीयता के
खिलाफ़ संघर्ष ही मानव और मानवीय अभिव्यक्तियों का अंतिम लक्ष्य हो सकता है और
मानवीय कला-साहित्य की सार्थकता भी। डॉ. अम्बेडकर का सन्देश था “बड़ी कठनाई के
साथ इस कारवां को यहाँ तक लाया हूँ, इसे आगे बढ़ाना। यदि ऐसा नहीं कर सकते तो इसे
यहीं छोड़ देना, पीछे न धकेलना।”
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