एक मनहूस रात की बात
है जम्बो द्वीप के किसी प्रदेश के किसी पांच सितारा होटल में मंत्रीजी एक मस्त समाजवादी
मसाज के बाद सोए ही थे कि पता चला उनकी भैंसे गायब हो गई। पहले तो इस खबर पर किसी
को सहज ही यकीन नहीं हुआ, अब मंत्री भैंस क्यों पालेगा! फिर लगा कि लोकतंत्र है और यह सवाल ही अपने-आपमें अलोकतांत्रिक कि
मंत्रीजी भैंस क्यों पलेंगें। यह उनकी मर्ज़ी कि वो अपने अस्तबल में
घोड़े पाले, चमचे पाले, गुंडे पाले या भैंस। वैसे भी सरकारी खर्चे पर सब पल जाता है।
कोई मंत्री-विधायक यदि
भैंस-गाय पालता है, खेती-बारी करता है, सदा खाता है और खादी धारण करता है तो यह अतिरिक्त
समाजसेवा की श्रेणी में कुछ ऐसे दर्ज़ होना चाहिए जैसे रामचंद्रजी का बेर खाना दर्ज़
है। वैसे मफलर बांधकर चोर-चोर चिल्लाना भी आजकल सम्पूर्ण क्रांति की श्रेणी में
आता है।
ज़माने के साथ हर चीज़
का अर्थ बदलता है इस बात से जिन्हें आपत्ति है वे निरर्थक हैं। अमेरिकी लेखक मैक्स
डेप्री ने कहा था न कि “हम जो हैं, वही बने रहकर वह नहीं बन सकते जो कि हम बनना
चाहते हैं।” ‘वही-वह’ का अर्थ क्या है यह बात हर ‘यह-वह’ को निर्धारित करने की
स्वतंत्रता ही तो डेमोक्रसी कहलाती है! इसे जो न माने वो ‘अराजक’ है। इस मुद्दे पर
बाद में बकर फैलाया जाएगा पहले सबसे ज़रुरी बात। तो आलम यह कि मंत्रीजी की भैंस
गायब हो गई। मंत्रीजी अपनेआप में एक ऐतिहासिक अस्तित्व हैं तो उसकी हर चीज़ का इतिहास
होना लाजमी है।
इसलिए भैंस का भी इतिहास है। कहावत है कि जिसकी लाठी उसकी भैंस। अब किसी के हाथ
में लाठी रहे और उसकी भैंसिया गायब हो जाए, इससे बड़ा अनर्थ और क्या होगा। इतिहास के
शोधार्थियों को इस भैंस की ऐतिहासिकता विषय पर फौरन शोध कार्य आरम्भ कर देना चाहिए।
यकीन मानिए उनका यह शोध ऐतिहासिक माना जाएगा और इसके लिए आपको ‘संस्कृति विभाग’ से
ढेर सारा अनुदान भी दिया जा सकता है।
मंत्रीजी की भैंस का मामला जैसे
ही मिडिया को पता चला, वो किसी क्रिकेट मैच की तरह लाइव प्रसारण करने लगे। चंद ही
मिनट में सारे चैनलों पर ब्रेकिंग न्यूज़ आने लगे। मीडियावाले
गलाफाड़ शोर मचा रहे थे कि “जहाँ मंत्रीजी तक की भैंस सुरक्षित नहीं है वहां आम जन
का क्या हाल होगा।” लोगों को हर बात में आम आदमी को घुसेड़ने की बिमारी सी लग गई थी।
अर्थशास्त्री इस बात पर बहस करने लग पड़े थे कि तेंदुलकर के सौ शतकों का आम आदमी की
आमदनी पर क्या असर पड़नेवाला है। तो कुछ क्रांतिकारी टाइप के लोग इन के शतकों को ही
जनविरोधी करार देने पर तुले थे क्योंकि शतक बनाने के बाद उसने मुट्ठी हवा में
भींचकर एक बार भी “इन्कलाब जिंदाबाद” नहीं कहा था। वहीं कुछ समाजशास्त्रियों का यह
भी मानना था कि तेंदुलकर को क्रिकेट नहीं समाजसेवा के धंधे में होना चाहिए।
बहरहाल, जनता नामक जीव के ज़िक्र से याद आया कि मंत्री हर प्रकार से जनता का
प्रतिनिधि होता है। प्रतिनिधि का माल सुरक्षित मतलब जनता का माल सुरक्षित।
प्रतिनिधि ही जहाँ सुख चैन की ज़िंदगी न बसर करे वहां आम जनता की चिंता कौन करे।
शहर के सबसे ज़्यादा पुरस्कार प्राप्त बुद्धिजीवियों का कहना है कि “चुकी भैंस एक मादा
भी होती हैं इसलिए यह एक अति संवेदनशील मुद्दा है। एक मादा का इस प्रकार गायब हो
जाना हमारे समाज की सामंती मानसिकता का परिचायक है। पता नहीं बेचारी ‘अबला’ पर
क्या-क्या बीत रही होगी।” यह कहते हुए बुद्धिजीवीजी वर्ग संघर्ष और मादा-नर समानता
की चिंता से व्याकूल हो जाते हैं और गुस्से में सारे वाद पर विवाद खड़ा करने लगते
हैं। मादा आयोग का मानना है कि “इस घटना से यह साबित होता है
कि इस व्यवस्था में कोई भी मादा अब सुरक्षित नहीं है।” वहीं इस घटना पर नर आयोग ने चुप्पी
साध रखी है।
घटनास्थल पर फ़ौरन
पुलिस आ गई और मामले की गम्भीरतापूर्वक छानबीन करने के पश्चात बयान दिया कि “पहली
नज़र में यह किसी चोर का काम लगता है।” पुलिस के इस वक्तव्य पर चोरों संधों ने
आपत्ति ज़ाहिर की और कहा कि “यह सरासर हमारे ऊपर इलज़ाम है। लगता है पुलिस ने
चोर-चोर मौसेरे भाई वाली कहावत नहीं सुनी है। एक
चोर दूसरे चोर का सामान कभी चोरी नहीं करता। पुलिस को यकीन नहीं तो चोरपुराण का 420वां अध्ययन पलटकर देख ले।” पुलिस का एक मरियल सिपाही, जो कुछ दिन पहले ही
अनुकम्पा के आधार पर बहाल हुआ था थाने की ओर चोरपपुराण लाने के लिए दौड़ पड़ा। यह
बताना ज़रुरी नहीं कि जम्बो द्वीप के हर थाने में चोरपुराण और हनुमानजी
अति-अनिवार्य हैं। वैसे भैंस की खोज में क्राइम ब्रांच के सिपाही और खोजी कुत्ते
लगा दिए गए हैं।
भैंस के गायब हो जाने
की खबर सुनके मंत्रीजी ने ठहाका मरना शुरू कर दिया है। दूसरे मंत्रियों का कहना
हैं कि “मंत्रीजी को बड़ा ज़ोर का सदमा लगा है। उन्हें अपनी भैंस गांधीजी की बकरी से
ज़्यादा प्यारी थी और वे बिना-नागा रोज़ इसी भैंस का दूध बिना शक्कर के ग्रहण करते
थे।” शहर के सबसे बड़े आयुर्वेदिक डाक्टर ने मंत्रीजी को दिन में तीन बार किसी
प्रतिष्ठित कवि के मुंह से विदेशी समाजवादी कविताओं का पाठ सुनने की सलाह दी है।
यह बात जैसे ही शहर में फैली सारे कवि मंत्रीजी के घर कविता संग्रह की फोटो कॉपी लेके
पहुँच गए। भीड़ ज़्यादा हो गई तो मंत्रीजी का दरबान अपनी ताव में आ गया और कवियों का
ऑडिशन लेने लगा।
वहीं बेचारे कवियों के पेट ने गैस बनाना शुरू कर दिया है। कवि जब भी किसी दूसरे
कवि की कविता का पाठ करते या सुनते हैं तो उन्हें इस प्रकार की शारीरिक व मानसिक
वेदना से गुजरना ही पड़ता है। माहौल में गैस का आक्रमण शुरू होने ही वाला था कि तभी
शहर के एक प्रतिष्ठित नाट्य निर्देशक अपनी सात ख़ूबसूरत अभिनेत्रियों के साथ आ
पहुंचे। उनका दावा है कि इन सात अभिनेत्रियों के माध्यम से उन्होंने कविताओं का
शानदार नाट्य मंचन तैयार किया है। जिसे देखते ही मंत्रीजी को ज़बरदस्त स्वास्थ्य
लाभ होगा और वो अपनी भैंस को भुलाकर अभिनेत्रियों के अभिनय खो जाएगें। उनकी खिचड़ी
पकती इससे पहले ही गायक महोदय टपक पड़े। उन्होंने निर्गुण शैली में कविता गायन
तैयार किया है। दरबान चुकी एक संगीत प्रेमी व्यक्ति भी है सो गायक से फरमाइशी गाने
सुन रहा है। तराबनो फैजाबादी के लौंडा बदनाम हुआ पेश करने के बाद जब कविता गायन
सुनाया गया तो दरबान महोदय खैनी का थूक पच्चाक से गायक महोदय के बगल में फेंककर
कविता गायन की बारीकियों पर आलोचनात्मक भाषण देने लगे, जिन्हें उपस्थित सारे
कलाकारों और कवियों ने भावविभोर होकर सुना। मिडिया तो इन सब गतिविधियों का सीधा
प्रसारण कर ही रहा था जिसे देखकर प्रजातंत्र की प्रजा मुग्ध हुई जा रही थी।
भैंस पक्षवालों दलों का
कहना था कि यह गायपक्ष वालों की साजिश है वही गायपक्ष वाले यह कह रहे थे कि यह सब
भैंस पक्षवालों की नौटकीं है। लोमड़ी पक्ष वाले इस घटना पर मौन थे वहीं खरगोश पक्षवाले
कभी-इसके कभी उसके समर्थन में अपनी बात कह रहे थे। राजनीति में एक पक्ष और होता है
बकरा पक्ष। जो हमेशा, हर बात का बकरे की तरह आवाज़ निकलकर खंडन करता है। कुत्तापक्ष वाले दल सारे एक्शन के
बाद ही रिएक्शन देने के लिए जाने जाते थे।
यह सबकुछ चल ही रहा
था कि पुलिस गाजे-बाजे के साथ भैंस को लेकर हाज़िर हो गई। दरबान ने भैसों को देखते
हुए कहा कि “यह भैंसे मंत्रीजी की नहीं हैं, उनकी भैसों में सुरखाव के पर लगे हुए
हैं।” पुलिस जो मंत्री की भैंस गुम हो जाने के कारण अकारण ही नैतिक दबाव में आ गई
थी, का दाबा है कि “यही मंत्रीजी की भैंस हैं, हमने अच्छे से ठोक बजाकर देख लिया
है। पहले तो इस भैस का कहना था कि मैं मंत्री की नहीं कल्लू की भैंस हूँ लेकिन थाने
में उलटा लटके चार डंडे पड़ते ही सच सामने आ गया। कह रहीं थी कि हमें किसी ने
चुराया नहीं बल्कि हम खुद ही भाग गई थीं।”
यह बात जब मंत्रीजी
को पता चली तो पहले तो उनका ठहाका बंद हो गया फिर बड़े उदास स्वर में उन्होंने पुलिस
के कान में कुछ कहा। दूसरे दिन की खबर यह है कि भैंस की लाश किसी सड़क किनारे पाई
गई और उनके पास से अपराधिक साहित्य और दस्तावेज़ भी बरामद किए गए।
शहर के कुछ लोगों को
लगता है कि यह एक फर्ज़ी इनकाउंटर हैं इसलिए कुछ प्रगतिशील प्राणियों ने एक विचार
गोष्ठी का आयोजन किया है विषय है – अकल बड़ी की भैंस! इस आयोजन में तमाम प्रगतिशीलता
के उपासक सादर आमंत्रित हैं। इस विचार गोष्टी को एक देसी मदिरा बनानेवाली कंपनी ने
प्रायोजित किया है इसलिए यह आशा की जा सकती है कि शहर के तमाम बुद्धिजीवी ज़रूर
एकत्रित होंगें ही।
इधर कल्लू नामक कोई व्यक्ति चिल्लाकर रहा है कि हमारी भैंस को
मार दिया रे! यदि यह बात सच है तो मंत्रीजी की भैंस का क्या हुआ इसके लिए भी एक
आयोग गठित होने की सुगबुगाहट शुरू हो चुकी है, नहीं हुई है तो हो जायेगी।
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