मेरा यह साक्षात्कार इप्टानामा के सम्पादक दिनेश चौधरी द्वारा लिया गया। इसे इप्टानामा के नए अंक और कल के लिए नामक पत्रिका के अंक 87-88 में भी पढ़ा जा सकता है।
हिंदी रंगमंच के समक्ष आज सबसे बड़ी चुनौती क्या है?
पूंजी, प्रशिक्षण, पूर्वाभ्यास की जगह, नाट्य प्रदर्शन के लिए उचित सभागार आदि मुलभुत ज़रूरतों की कमी एक चुनौती तो है किन्तु हमेशा से ही हिंदी रंगमंच की सबसे बड़ी चुनौती यह रही है कि वह कभी भी जनता की ज़रूरतों में शामिल नहीं हो सका। तमाम वर्गों, वर्णों और जातियों में विभाजित, कला और संस्कृति के प्रति अति-उदासीन हिंदी प्रदेशों में सांस्कृतिक नवजागरण के कुछ प्रयास निश्चित रूप से हुए भी लेकिन वह काफी नहीं थे। रंगमंच का यहाँ ऐसा कोई दर्शक वर्ग ही तैयार नहीं हुआ है जो अपनी बदौलत नाटकों और कलाकारों की ज़िम्मेवारी उठाने की क्षमता रखता हो। यहाँ रंगकर्म कभी राजाओं के प्रश्रय में चला तो कभी सामंतो के, तो कभी रंगकर्मियों के जूनून की बदौलत और आजकल सरकारी अनुदानों के तरफ़ हाथ फैलाया जा रहा है।
रंगकर्मी सक्रिय तो हैं किन्तु आज तक इस प्राथमिक सवाल का जवाब नहीं तलाश पाए हैं कि वो रंगमंच कर क्यों रहे हैं! इस महत्पूर्ण सवाल के जवाब के बिना कोई भी कला निरुद्देश्यता का ही शिकार होगा। जो रंगकर्मीं और समूह एक खास विचारधारा के कार्यकर्त्ता बन जनचेतना के लिए काम कर रहे थे, वहां भी बिखराव साफ़-साफ़ देखा जा सकता है। पिछले कुछ दशकों में जब जन आंदोलनों की दिशा ही भटक गई वैसे में इनके मन में भी अपने वैचारिक आदर्शों और सुन्दर समाज रचने के सपनों को लेकर भटकाव होना स्वभाविक ही था।
व्यवहार की जड़ में विचार होता है। वैचारिकता का भटकाव व्यवहार में साफ़-साफ़ देखने को मिलता है। कला और समाज एक दूसरे के पूरक हैं और आज दोनों ही विकट रूप से वैचारिक संकट की चपेट में हैं। जबतक वैचारिक संकट व्यावहारिक रूप से दूर नहीं होता तबतक व्यवहारिक धरातल पर अराजकता का ही राज रहेगा।
बड़ी पूंजी के आगमन से अन्य संचार माध्यमों की तरह क्या रंगकर्म और उसके सरोकारों को भी प्रभावित किया है?
अर्ध-सामंती, अर्ध-ओपनिवेशिक और पूंजी की महत्ता वाले समाज में पूंजी जब आपसी रिश्तों तक को प्रभावित करने की क्षमता रखती है तो ऐसे समय में यह नहीं कहा जा सकता कि इसने रंगमंच को प्रभावित नहीं किया है। लेकिन मैं अपनी बात को ज़रा दूसरे तरीके से कहना चाहूँगा। बल्कि मैं यह सवाल उठाना चाहूँगा कि जो भी लोग सरोकारों से सराबोर हो रंगमंच कर रहे हैं/थे क्या किसी ने उनका ख्याल रखा? क्या किसी ने यह सोचा की रंगकर्मीं भी इंसान होता है जिसकी कुछ मूलभूत ज़रूरतें हैं जिन्हें पूरा किया जाना चाहिए। भूखे पेट लंबे समय तक किसी भी विचारधारा का झंडा नहीं ढोया जा सकता है। आज रंगकर्मी (खासकर सरोकारवाले) तमाम प्रकार के समझौते कर रहे हैं तो इसके लिए उन्हें दोष देने से पहले एक बार यह भी सोचना चाहिए कि क्या वो ऐसा जानबूझकर कर रहे हैं या वो इसके लिए मजबूर हैं।
रंगकर्मी और समाज रंगमंच के दो पहिए हैं। किन्तु दुखद सच यह है कि समाज बीमार है और रंगकर्मी खाली पेट। जब अस्तित्व पर संकट हो तो ऐसे समय में सरोकार से पहले अस्तित्व की लड़ाई लड़ी जाती है। हां, उस लड़ाई की दिशा सार्थक भी हो सकती है और अराजक भी।
क्या “अच्छे दिनों” का राजनैतिक-सामाजिक परिदृश्य रंगकर्मियों के लिए अभिव्यक्ति के खतरे उठाने का आह्वान नहीं कर रहा?
अच्छे दिनों का नारा एक राजनैतिक फार्स है और किसी भी सजग और सामाजिक सरोकार रंगकर्मीं का सरोकार केवल फार्स मात्र नहीं हो सकता। वैसे भी सार्थक रंगमंच का मूल स्वर ही विरोध का है और इस विरोध के दायरे में हर वो चीज़ आती है जो अप्राकृतिक, अमानवीय और झूठ है। सत्ता चाहे किसी के पास हो, संवेदनशील और सजग रंगकर्मियों ने तो हमेशा से ही अभिव्यक्ति के खतरे उठाए हैं; उठा रहे हैं और उठाते रहेंगें। शायद इसीलिए वो आज किसी के भी प्रिय नहीं हैं। सनद रहे कि मैं यह बात सजग और सामाजिक सरोकार से संपन्न कलाकारों के बारे में कर रहा हूँ लाशों की ढेर पर अपनी रोटी सेंकनेवाले कलाकारों के बारे में नहीं। वैसे भी परजीवी लोग दूसरों की खुराक चूसकर ज़िंदा रहते हैं अपनी खुराक खुद पैदा नहीं करते।
आधुनिक नाटकों में किए जानेवाले अधिकाधिक प्रयोगों ने क्या नाटक और दर्शक के बीच की खाई को और अधिक बढ़ा दिया है?
प्रयोगों के माध्यम से कोई भी कला अपने में नवीनता और प्रगति का समावेश करता है इसलिए प्रयोग को लोकप्रियता या स्वीकार्यता के दायरे से नहीं परखा जाना चाहिए। यदि नवीन प्रयोग न हों तो कला और समाज जड़ हो जायेगा। प्रयोग के विरोध का अर्थ यथास्थितिवादी और जो कुछ भी उपस्थित है वहीं अतिंम सत्य है जैसी अवैज्ञानिक विचार को मानना है। जहाँ तक सवाल प्रयोग की सफलता-असफलता का है तो यह कतई ज़रूरी नहीं कि हर प्रयोग सफल हो ही। केवल रंगमंच ही नहीं बल्कि कृषि, विज्ञान, साहित्य आदि अन्य क्षेत्रों में प्रयोग हो रहें हैं – सफल और असफल हर प्रकार के। प्रयोग होंगें तो वह सफल भी होंगें और असफल भी। इतिहास गवाह है कि मानव ने प्रयोगों के माध्यम से ही प्रगति का रास्ता तय किया है। दुनियां पाषाण युग, लौह युग, स्पेस युग से गुज़रती हुई आज डिजिटल युग में प्रवेश कर गई है। यदि यह प्रयोग नहीं होता तो क्या यह सबकुछ संभव था? मानव ने प्रयोग नहीं किया होता तो हम आज भी जंगलों में रह रहे होते, शिलालेख लिख रहे होते, नंगे घूमते और कच्चा मांस खा रहे होते। मानव पहली बार जो कुछ भी करता है वह प्रयोग ही तो होता है, जो सफल होने पर परम्परा बन जाता है।
जहाँ तक सवाल दर्शकों का है तो उसे अमूमन परिणाम से मतलब होता है प्रक्रिया से नहीं। इससे उन्हें कोई सरोकार नहीं कि आप इसे दर्शकों तक पहुँचाने के लिए कितनी मेहनत करते हैं, कितना प्रयोग करते हैं; या करते भी हैं कि नहीं। वैसे भी उनके दिमाग में यह गलत धारण बैठा दी गई है कि कला का काम मनोरंजन मात्र करना है। यह सच है कि बोझिलता कोई झेलना नहीं चाहता लेकिन दर्शकों केवल मनोरंजन मात्र ही किसी सार्थक कला का उद्देश्य नहीं हो सकता और दर्शकों को भी इसके लिए तैयार रहना चाहिए। ऐसा दर्शकवर्ग तैयार करना हम सबकी ज़िम्मेदारी है। यहाँ केवल लकीर के फकीर बनकर मनोरंजन-मनोरंजन और मनोरंजन रटने से काम नहीं चलेगा। मूल समस्या यह है कि हम आज भी नवीनता से खौफ खाते हैं और अमूमन आजमाई हुई चीज़ों को ही खाने, पहनने और देखने में सहजता महसूस करते हैं। वैसे भी जिसे आज हम परम्परा कहते हैं वे भी कभी प्रयोग ही थे। इंसान ने एकाएक ही कोट-पैंट धारण नहीं कर लिया बल्कि यह पत्ते, खाल आदि से होते हुए हज़ारों साल चले प्रयोग का नतीज़ा है। ठीक उसी प्रकार हर काल में रंगमंच ने अपने अंदर प्रयोग के माध्यम से सार्थक बदलाव किए हैं और यह बदलाव कथ्य और शिल्प दोनों ही स्तरों पर साफ़-साफ़ देखा जा सकता है। यदि ऐसा नहीं होता तो हम आज भी किसी राजमहल में नाट्यशास्त्र में वर्णित बातों को ही अंतिम सत्य मानके कालिदास के नाटकों का ही मंचन कर रहे होते। इसीलिए कला और समाज दोनों में नवीन प्रयोग होते रहे इसी में सबकी भलाई है। वैसे भी जमा हुआ पानी सड़ने लगता है। इसलिए प्रयोगों से डरने की ज़रूरत नहीं है। जो प्रयोग सार्थक होंगे वह अपनेआप ही स्वीकार कर लिए जायेंगें और निर्थक प्रयोग का नकार भी स्वतः ही होता रहेगा।
बड़े शहरों का रंगकर्म छोटे शहरों और कस्बों में होनेवाले रंगकर्म की तरह जन्नोमुख क्यों नहीं है?
इस बात में कोई सच्चाई नहीं कि बड़े शहरों का रंगकर्म छोटे शहरों और कस्बों में होनेवाले रंगकर्म की तरह जन्नोमुख नहीं है। दर्शक हर जगह के रंगमंच का ज़रूरी अंग है और रहेगा। कहीं का भी रंगमच बिना जन (दर्शक) के संभव ही नहीं है। मैं इस बात को नहीं मानता कि कस्बों और छोटे शहरों में नाटक देखने आए लोग ही जन है बड़े शहरों और महानगरों में नाटक देखने आए लोग नहीं। क्या मोहन राकेश, धर्मवीर भारती, विजय तेंदुलकर, गिरीश कर्नाड, ब्रेख्त, बर्नार्ड शॉ, सार्त्र, कामू आदि के नाटकों में जन सरोकार नहीं हैं? चरणदास चोर जैसा नाटक यदि छोटे शहरों और कस्बों में खेला जाता है तो जन्नोमुख रंगकर्म हो जाता है और वहीं नाटक बड़े शहरों और महानगरों में खेला जाता है तो विलासिता! यदि ऐसा है तो निश्चित रूप से यह एक दोहरा मापदंड है जो संकीर्ण मानसिकता का परिचायक है। जन सरोकार का शहर, गांव, क़स्बा से कोई लेना देना नहीं है बल्कि यह एक प्रतिबद्धता और वैचारिकता का सवाल है जिसका अभाव कहीं भी हो सकता है – शहर, गांव, क़स्बा, महानगर कहीं भी।
क्या कहानी के रंगमंच ने हिंदी में पहले से ही दुर्लभ नाट्य लेखन की परम्परा को और क्षीण किया है?
बिलकुल नहीं। नाटक में दुनियां की सारी कलाएं समाहित हैं – गीत, संगीत, पेंटिंग, साहित्य सब। इससे नाटक समृद्ध होता है क्षीण नहीं। पेंटिग, संगीत, नृत्य की कई शैलियां हो सकती हैं तो रंगमंच की क्यों नहीं? यदि हम केवल नाटक की बात करें तो इसके भी प्रकार हैं। नाट्यशास्त्र में भारत ने इसे दसरूपक कहा है जिसमें नाटक, प्रकरण, प्रहसन, व्यायोग, भाण, डिम, वीथि, ईहामृग, समवकार, अंक नामक दसरूपकों का वर्णन है।
रंगकर्म को लेकर सरकार की सांस्कृतिक नीति क्या होनी चाहिए?
एक ऐसे देश में जहाँ कला और संस्कृति हासिए पर हो, बाज़ारवाद के प्रभाव में संस्कृतियां इतिहास में विलीन होने को अग्रसर हो, तमाम सरकारी नीतियां के कण-कण में भ्रष्टाचार का वास हो और संस्कृति के नाम पर अप-संस्कृति का बोलबाला हो व जहां हवा और सुनामी में सरकारों की अदलाबदली हो जाती हो वहां बिना किसी सांस्कृतिक नवजागरण के सांस्कृतिक नीति की उम्मीद कैसे की जा सकती है? केवल नीति बना भर देने से क्या होगा? मनरेगा जैसे नीति का क्या हाल हुआ क्या हम नहीं जानते?
क्या किसी भी पार्टी के प्रमुख एजेंडे में कला-संस्कृति नामक चीज़ है? यह विचार का दिवालियापन है कि आप नीति बनाने की बात करेंगें तो उनकी समझ में आर्थिक सहायता आता है! क्या केवल आर्थिक सहायता भर प्रदान कर देने से कला-संस्कृति का विकास हो जाएगा? बिलकुल नहीं, बल्कि इसके लिए एक ऐसा सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक परिवेश बनाना होगा जहाँ कला-संस्कृति समाज का एक अभिन्न और ज़रूरी अंग बनकर कंधे से कंधा मिलाकर चले और सहज रूप से अपना विकास कर सके। जहाँ संस्कृतियों का आदान-प्रदान तो हो लेकिन लोगों को अपनी कला और संस्कृति पर भी गर्व हो, न कि इसे नचनियां-बजानियाँ का पेशा समझें।
अंग्रेजों की गुलामी से आज़ाद होने के इतने साल बाद भी यदि हमारे देश में कोई संस्कृति नीति नहीं है तो क्या किसी को इसकी चिंता भी है? लोकतंत्र के नाम पर यहाँ जो कुछ अलोकतांत्रिक चल रहा है क्या हम उससे अनजान हैं? क्या लोकतंत्र का मतलब केवल चुनाव का अधिकार होता है? क्या यह सच नहीं कि लोकतंत्र का नगाडा खूब ज़ोर-ज़ोर से पीटनेवाली पार्टियों की कार्यशैली इतनी ज़्यादा अलोकतांत्रिक कि वो अपने चंदा देनेवालों के नाम तक सावर्जनिक नहीं करना चाहती। तब क्या यह सवाल नहीं उठता कि आखिर यह पार्टियां किसके इशारे पर नाचतीं हैं? यदि इसका जवाब जनता है तो मुझे इस जवाब पर कतई यकीन नहीं।
आज सरकार जो रंगमंच को बढ़ावा देने के नाम पर अनुदान बांट रहीं है उससे रंगमंच का एनजीओ करण हो रहा है न कि विकास। जनता की गाढ़ी कमाई का (कुछ अपवादों को छोड़कर) कैसा बंदरबांट मचा है यह जग ज़ाहिर है। सांस्कृतिक संस्थानों में कैसे-कैसे असंस्कृतिक व्यक्तित्व विराजमान है यह भी अब किसी से छुपा नहीं हैं। किन्तु सबसे दुखद सच यह कि अब रंगकर्मी भी अपना हक़ नहीं बल्कि अपना हिस्सा मांगने तक में ही संतुष्ट होने लगे हैं।
इसलिए केवल सरकार के नीति बनाने से काम नहीं चलेगा बल्कि यह एक सांस्कृतिक क्रांति का विषय है, जो निश्चित रूप से सामाजिक क्रांति के साथ ही होगा। इसलिए बिना किसी सामाजिक व सांस्कृतिक क्रांति के किसी भी कला और समाज का भला नहीं होनेवाला। हां, भला होने का भ्रम ज़रूर फैलाया जा सकता है।
क्या राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय जैसे संस्थान और वहां के प्रशिक्षित एक बड़ी जमात ने देशभर में चल रहे शौकिया रंगमंच को नकारने का काम किया है?
जिसे यहाँ बड़ी जमात कहा जा रहा है उसकी संख्या कितनी है? बल्कि बड़ी जमात उनकी है जिसे आप शौकिया रंगकर्मीं कह रहे हैं। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय से प्रशिक्षित रंगकर्मियों की संख्या अल्पमत वाली है। तो क्या उनके पास इतनी शक्ति है कि वो बहुमत को नकार सकें? रंगमंच में आखिरी फैसला दर्शकों का होता है। इसलिए किसी भी अन्य के नकारने या स्वीकारने से कुछ नहीं होता। देश भर में ऐसे रंगकर्मियों की कोई कमी नहीं जिन्होंने दर्शकों के दिलों पर राज किया और आज भी कर रहे हैं। दर्शक डिग्री नहीं नाटक देखने आते हैं। नाट्य-प्रस्तुति यदि अच्छी है तो किसी के भी व्यक्तिगत कुंठा का वहां कोई स्थान नहीं होता। इसलिए हमें किसी के स्वीकार-नकार से ज़्यादा दर्शकों की प्रतिक्रियायों को सम्मान देना चाहिए। रंगमंच मेहनत और लगन के द्वारा सतत “करते हुए सिखाने और सिखाते हुए करने” की चीज़ है। इस विधा में व्यक्तिगत कुंठाओं का कोई स्थान नहीं है। इसलिए व्यक्तिगत रूप से हमारे पसंद-नापसंद से समय का बहुआयामी सच नहीं बदल जाता।
हमारी मूल समस्या यह नहीं है कि कौन हमें स्वीकार रहा है या कौन नकार रहा है बल्कि हमारी मूल समस्या यह है कि हमारे अंदर आलोचनाओं को सुनने और समझाने की इच्छा शक्ति का ह्राश हुआ है और हम ज़रूरत से ज़्यादा आत्ममुग्ध हो गए हैं। जो निश्चित रूप से एक खतरनाक बात है। आत्ममुग्धता किसी भी कला का शत्रु होता है। इसलिए हमें यथाशीघ्र ही अपनी-अपनी आत्ममुग्धता पर काबू पा लेना चाहिए और सकारात्मक आलोचनाओं को यथोचित सम्मान देना सिखाना चाहिए। इसी में रंगकर्म और रंगकर्मीं दोनों का भला है। इसलिए कौन हमने स्वीकार रहा है कौन नहीं इसका ग़म नहीं होना चाहिए। मेहदी हसन के एक गज़ल का शेर कुछ यूं है -
जो ग़में हबीब से दूर थे वो खुद अपनी आग में जल गए
जो ग़में हबीब को पा गए वो ग़मों से हंसके निकल गए।