कार्ल मार्क्स ने प्रिय कवि के रूप में ग्रीक नाटककार और कवि एक्सकिलस, विश्वप्रसिद्ध अँगरेज़ कवि व नाटककार शेक्सपियर, और गेटे का नाम लिया और प्रिय गद्य लेखक के रूप में दिदारो का। फ्रेडरिक ऐंगल्स कवि के रूप में दे वोस, शेक्सपियर, आरिओस्टो और गद्यकार के रूप में गेटे, लेसिंग, ड़ॉ. जामेलसन का ज़िक्र करते हैं। लेकिन "भारतीय अति-क्रांतिकारियों" और "ज़रूरत से ज़्यादा प्रगतिशील" लोगों को इन सभी के अलावे वेद, पुराण, बुद्ध, महाबीर, तुलसी, कबीर, सूर, व्यास, वाल्मीकि, भास, शूद्रक, कालिदास, ग़ालिब, मीर, मोमिन, भारतेंदु, हज़ारी प्रसाद द्विवेदी, धर्मवीर भारती, मोहन राकेश आदि से बिना जाने, पढ़े, गुने ही लगभग नफ़रत है। वे इन्हें बुर्जुआ, यथास्थितवादि, सामंती मानसिकता से ग्रसित और पता नहीं किन किन मूर्खतापूर्ण उपाधियों से बिना पढ़े ही नवाज़ देते हैं। वो यदा कदा पाश, मुक्तिबोध, धूमिल, परसाई, गोरख पांडे आदि के नाम तो ले लेते हैं लेकिन यहाँ भी लगभग एहसानी मुद्रा ही अपनाए रहते हैं; जैसे इनके प्रमाणपत्र के बिना उपरोक्त लेखकों की सार्थकता ही मैली हो जाएंगीं। वैसे प्रमाणपत्र बाँटते इन महानुभावों को इनकी बस उन चार-चार पंक्तियों से ही स्नेह है जो यदा-कदा इन्हें अपनी बात को सही साबित करने के लिए कोट करने के काम आते हैं। उदाहरणार्थ - अब उठाने ही होंगें अभिव्यक्ति के खतरे। इन पंक्तियों के अलावा मुक्तिबोध आज भी इनके लिए अँधेरे में ही हैं।
अब ऐसे महाविद्वान लोग यदि पंडित रविशंकर और कलाम को सशर्त श्रद्धांजलि प्रस्तुत करने का सहस करते भी हैं तो इस बात पर कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए। पंडित रविशंकर इनके लिए एक कलाकार नहीं बल्कि सामन्ती कला के पोषक हैं और कलाम एक वैज्ञानिक, शिक्षक और भारत के राष्ट्रपति नहीं बल्कि मिडिया द्वारा प्रसिद्द किया गया नाम यानी मिसाइल मैन हैं।
मार्क्स सादगी और एंगेल्स प्रफुल्लता को इंसान का मूल्यवान गुण मानते हैं लेकिन यह बेचारे अतिक्रान्तिकारी-प्रगतिशील अपनी मूढ़ता और अज्ञानता में ही प्रसन्न हैं। उनके लिए मार्क्स का यह कथन कि Nihil humani a me alienum puto (सब मानवीय गुण-अवगुण मेरे लिए पराए नहीं हैं।) और एंगेल्स का यह कथन का कि "सब सहजता से ग्रहण करो।" का कोई अर्थ नहीं रह गया है शायद।
अब इन्हें कौन बताए कि बिना मानवतावादी हुए न तो कोई क्रांतिकारी हो सकता है ना ही प्रगतिशील। समय निकालकर भगत सिंह को ही पढ़ लेते तो यह छोटी सी बात न जाने कब की समझ में आ जाती। वैसे इनसे सार्त्र, कामू आदि पढने की चाहत भी रखना मूर्खता का ही परिचायक है। इन्होंने मार्क्स, एंगेल्स, लेनिन, माओ भी पढ़ा होगा और पढ़ा तो समझा भी होगा, इसपर मुझे गहरा संदेह हैं।
मार्क्स ने सही कहा है - De omnibus dubitandum (सब कुछ संदेह योग्य है।) लेकिन यह तो मार्क्स के भी पिताश्री हैं। कहते हैं "सबकुछ संदेह योग्य है सिवाए मार्क्सवाद के। शायद ऐसे ही मूढ़ों पर खिन्न होकर मार्क्स को कहना पड़ा था - यदि ऐसे है तो मैं मार्क्सवादी नहीं हूँ।
बाकि अन्य लकीर के फ़क़ीर पिटनेवाले विचारों और व्यक्तियों की पूजा करनेवालों के लिए क्या कहा जाय उनके लिए तो महामूर्खता और पिछलग्गूपना ही सबसे बड़ा संविधान और देशभक्ति का प्रमाणपत्र है। जो इनसे अलग सोचता है वो देशद्रोही है और उसे फ़ौरन ही पाकिस्तान चले जाना चाहिए!खैर, अब यह किससे कहा जाय कि आलोचनात्मक समीक्षा एक निहायत ही ज़रूरी चीज़ है लेकिन उसके लिए सही समय, काल, परिस्थिति आदि का चयन करना ज़रूरी है। एक सीनियर कॉमरेड ने किस्सा सुनाया था - चीन में जैसे ही क्रांति हुई लाल सेना ने "धर्म जनता का अफ़ीम है" नामक सूक्ति से प्रेरणा लेकर तमाम धार्मिक स्थलों को ध्वस्त करना शुरू कर दिया। अपने पूजा और पूज्यनीय स्थलों को ध्वस्त होते देख स्थानीय जनता लाल सेना के विरुद्ध प्रतिकार करने को खड़ी हो गई। यह बात जब माओ को पता चली तो उन्होंने फ़ौरन इन स्थलों को तोड़ने से यह कहते हुए रोका कि इन स्थलों में जनता का विश्वास है। पहले एक लंबी प्रक्रिया में इनके मन में बसी सदियों पुरानी मान्यतायों और विश्वास को ख़त्म करो। यदि हम यह करने में सफल हुए तो जनता खुद ही इन स्थलों को ध्वस्त कर देंगीं। और यदि हम ऐसा न कर सके तो जनता हमारे विरुद्ध खड़ी हो जाएगी।
इतिहास हमें सुन्दर भविष्य गढ़ने की शिक्षा देता है और अपनी गलतियों से प्रेरणा भी। लेकिन इसके लिए खुले दिल और दिमाग से अध्ययन करने की आवश्यकता है। मूर्खतापूर्ण व्यवहार और वक्तव्य सनसनी तो पैदा कर सकते हैं लेकिन शायद ही कोई सुन्दर और सार्थक बदलाव का सहयात्री बन सके।
पुनश्च - माओ के बारे में उपरोक्त किस्सा सुना सुनाया है। इसकी ऐतिहासिक सत्यता का दावा करने में तत्काल मैं असमर्थ हूँ।
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