"बिहार की पहली शौक़िया नाट्य-संस्था की स्थापना केशवराम भट्ट ने 1876 में पटना नाटक मंडली के नाम से गठित की थी। उन्होंने बिहारबंधु पत्रिका के छापाखाने में बने अस्थाई रंगमंच पर इसी मंडली द्वारा अपने दो नाटकों - शमशाद सौसन और सज्जाद सुंबुल को प्रदर्शित किया था। कई वर्षों बाद आरा में जैन नाटक मंडली (1918-19), सार्वजनिक नाट्य मंडली (उन्नीसवीं सदी का अंतिम दशक), मनोरंजन नाटक मंडली (1918-19), छपरा क्लब (1919) और शारदा नाट्य समिति (बीसवीं सदी का दूसरा दशक) आदि नाट्य-संस्थाएं बनी। इन मंडलियों के गठन और रंगकार्यों के पीछे पारसी कंपनियों द्वारा प्रदर्शित नाटकों का प्रभाव था। .... इन्ही कंपनियों के अनुकरण पर यहाँ पहली व्यवसायिक नाट्य-मंडली बिहार थियेट्रिकल ट्रूप (1884) की स्थापना हुई। ... किन्तु एक महीने के बाद ही कम्पनी के कर्मचारियों और किसी दर्शक के बीच मारपीट हो हुई और फ़ौजदारी का मुकद्दमा दायर हो गया।"
(रंग दस्तावेज़, सौ साल, 1850-1950, संपादक - महेश आनंद, प्रकाशक - राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय)
पुस्तक से उपरोक्त जानकारी प्राप्त होने पर दो बातें मेरे मन में घुमड़ रही हैं। पहली यह कि नाटक देखने का संस्कार आज भी बिहार में शैशव अवस्था में ही है और दूसरी वह जिसका संकेत महेश आनंद सर प्रस्तुत पुस्तक की भूमिका में हीं कर देते हैं कि हिंदी के नाट्य-दस्तावेज़ीकरण का मामला अधर में ही लटका पड़ा है।
उदाहरणार्थ; बिहार का एक कस्बा है पंडारक। वहां हिंदी नाटक समाज नामक नाट्यदल सन् 1922 से आजतक लगातार कार्यरत है। हर वर्ष दुर्गापूजा के अवसर पर नाटकों का मंचन आज भी करती है। किन्तु दस्तावेज़ों की ख़ाक छानने के पश्चात् भी इनकी कोई जानकारी शायद ही मिलती है। ऐसे न जाने कितने इतिहास के अनमोल पन्ने बिखरे पड़े हैं बिहार की धरती पर। पता नहीं कब होगा इनका दस्तावेज़ीकरण।
वैसे दस्तावेज़ीकरण के मामले में पूरा हिंदी समाज ही आलसी है। हां बक बक करने और अपनी महानता साबित करने में कोई किसी से एक सूत भी कम नहीं। लिखने बोलिए तो नानी याद आने लगती है। कोई बहुत उदार हो भी जाता/ती हैं तो कह देगें हम बोलते हैं तुम लिख लो या फिर ऐसा करो तुम लिखके ले आओ हमको सुना देना फिर जो कम बेसी होगा हम बता देंगें।
सरकारों की बात क्या किया जाय! उसको नाटक-नौटंकी, कल्चर-कल्चरल से क्या मतलब! उसे तो अग्रिकलचल नहीं बुझाता तो कल्चर और कल्चरल क्या बुझाएगा? आप चिल्लाईएगा कल्चर-कल्चरल तो सरकार बोलेगी ग्रांट ले लो और जो करना है करो और चुप रहो।
नाट्य चिंतक कोंस्तांतिन स्तानिस्लावसकी 'actors without makeup' नामक आलेख में कहते हैं -"जो हो, मैं समझता हूँ हर कला साधक को लिखना चाहिए, केवल आम शब्दावली में अपनी जीवन गाथा नहीं, बल्कि अपने कलाकर्म को व्यवस्था देने की कोशिश में लिखना चाहिए। उसे अपनी रचना और रचना प्रक्रिया का विश्लेषण प्रस्तुत करना चाहिए। इन्हीं विश्लेषणों से रचना प्रक्रिया के संसार की गुत्थियां सुलझाएगी और ठोस सूत्र हाथ आएंगें। इस काम में पुराने महारथियों की जवाबदेही बहुत ज़्यादा है - उन्हें अपने धंधे (पेशे) का राज छुपाने और उन पर अपना स्वत्वाधिकार बनाने का कोई अधिकार नहीं। उन्हें अपने सारे गोपन सत्य उजागर करने चाहिए, क्योंकि चाहे अनचाहे नई पीढ़ी देर-सबेरे इन सभी नतीजों को हासिल कर ही लेगी।" (स्तानिस्लावस्की-अवचेतन के मुहाने पर अभिनय, लेखक - श्रीकान्त किशोर)
बहरहाल, उपरोक्त पुस्तक हर रंगकर्मी को एक बार ज़रूर ही पढ़नी चाहिए।
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