आर्तो के रंगमंच सम्बन्धी विचारों को समझने के लिए रंगमंच की प्राचीनतम अवस्था से लेकर बीसवीं शताब्दी के मनोवैज्ञानिक रंगमंच तक की समझ होना अनिवार्य है। यदि ऐसा नहीं किया गया तो आर्तो का चिंतन एक पागलपन और प्रलाप से ज़्यादा शायद ही कुछ लगे। मोटे तौर पर बात इतनी है कि प्राचीन काल में धार्मिक अनुष्ठानों के साथ जुड़ा रंगमंच आर्तो से पहले एक समृद्ध मनोवैज्ञानिक रंगमंच के रास्ते, रंगमंच और समाज दोनों ही एक खास तरह की नैतिकता व शुद्धतावादी मानसिकता से ग्रस्त हो चुका था। पारंपरिक कलाएं हाशिए पर या संग्रहालय में स्थान पाने को अभिशप्त हो चुकी थी। और ओद्योगिक क्रांति और पूंजीवादी मानसिकता की चपेट में आकर मानवसमाज विश्वयुद्ध की पागलपन भरी राह की ओर अग्रसर हो चुका था। पूँजी और रुतवा सफलता के मापदंड के रूप में स्थापित हो चुके थे और सार्थकता की परिभाषा चुनौतीपूर्ण रूप से सफलता में बदल दी जा रही थी। तो क्या आर्तो का रंगमंच सम्बन्धी चिंतन इन तमाम चीज़ों से एक विद्रोह था?
आर्तो एक असफलता का भी नाम है लेकिन सफल व्यक्ति ही सार्थक हो ज़रुरी नहीं, ठीक उसी प्रकार यह भी ज़रुरी नहीं कि हर असफलता अर्थहीन ही हो। यह संभव है कि अपने समय का असफल व्यक्तित्व भविष्य के लिए बहुत कुछ गढ़ रहा हो। वैसे भी एक सफलता के पीछे कई सारी असफलताएं होती हैं। सफलता और सार्थकता दो भिन्न बातें हैं, जो एक साथ भी हो सकती हैं और नहीं भी।
हर सदी में बहुत से सफल लोग होते हैं और ढेर सारे असफल। इन असफल लोगों की भी अपनी-अपनी उपलब्धियां और सफलताएं-असफलताएं होतीं हैं। बीसवीं शताब्दी बहुत सारी उपलब्धियों के साथ ही साथ आधुनिक और वैज्ञानिक नाट्य व अभिनय चिंतन में उल्लेखनीय योगदान के लिए भी जाना जाता है। जिनमें कॉन्स्तानतिन स्तानिस्लाव्स्की, व्सेवलोद मेयरहोल्ड, माइकेल चेखव, बर्तोल्त ब्रेख्त, जैक्स कॉप्यु, ली स्त्रासबर्ग, स्टेला एडलर, सेनफोर्ड, सेनफोर्ड माइज्नर, जौसफ शैकीन, जेर्जी ग्रोतोव्सकी, पीटर ब्रुक, युजिन बार्बा, व्लोदजिमिर्ज़ स्तानिएव्सकी आदि जैसे अभिनेता, निर्देशक व चिन्तकों के नाम प्रमुख हैं। इन सबसे इतर एक नाम और है क्रूरता के रंगमंच के जनक आर्तो का, जिनके लिए रंगमंच ताउम्र मुक्ति और आत्मशुद्धि का मार्ग बना रहा। आर्तो कहते हैं “मैं अपने को जीवित महसूस नहीं करता, लेकिन मंच पर मैं महसूस करता हूँ अपने अस्तित्व को।” आर्तो एक कठिन पहेली भी हैं। ग्रोतोव्स्की ने थी ही यह कहा है कि “एक तरह से देखें तो आर्तो ने अपने पीछे न कोई सिद्धांत छोड़ा है न कोई तयशुदा तकनीक किन्तु दूसरी तरह से देखें तो दी है अंतर्ज्ञान, दृष्टिगत समझ और रूपयुक्त छवियों की भाषा।”
आर्तो एक परिचय – ताउम्र मुफलिसी, अस्वीकार, विवाद, आलोचना, अकेलापन व जीवन के नौ साल पागलखानों में जबरन यातना झेलते हुए व्यतीत करनेवाले अभिनेता, कवि, निर्देशक, चित्रकार, नाट्य सिद्धांतकार के रूप में प्रसिद्ध आर्तो का पूरा नाम ओंतोनी मारी जोसेफ़ आर्तो है। इनका जन्म 4 सितम्बर 1896 को दक्षिण फ्रांस के मार्सेल में तथा मृत्यु 4 मार्च 1948 को पेरिस में हुआ। महज पांच साल की उम्र से मेनेंजाइटिस दौरा पड़ा। इस बीमारी की वजह से ताउम्र उन्हें यातनादायक सिरदर्द सहना पड़ा। इस पीड़ा से लड़ने के लिए नशीली दवाओं का सेवन मजबूरन उनकी ज़िंदगी का एक ज़रुरी हिस्सा बन गया। कई अन्य बीमारियाँ भी ताउम्र उनसे चिपकी रहीं। नींद में चलने की आदत की वजह से फ्रेंच आर्मी से निष्काषित हुए। सन 1920 में लेखक बनने के उद्देश्य से पेरिस आगमन व कलात्मक जीवन का प्रारंभ। 1924 से 1935 के बीच लगभग बारह फ़िल्में में अभिनय, जिनमें नेपोलियन व द पैशन ऑफ जोन ऑफ आर्क प्रमुख फ़िल्में हैं। सन 1931 में उन्हें बलिनिज़ नृत्य देखने का अवसर मिला। यह बालिस्लैंड इंडोनेसिया की एक अतिप्राचीन पारंपरिक नृत्य शैली है जिसमें ताल-लय युक्त शारीरिक भाव-भंगिमा का उर्जावान प्रयोग द्वारा कहानी कही जाती है। इस नृत्य और मार्क्स बंधुओं की फिल्म एनिमल क्रेकर्स व मोंकी बिज़नेस का आर्तो के रंगमंच सम्बन्धी विचारों पर गहरा प्रभाव माना जाता है। आर्तो के रंगमंच में विद्रोही तत्व मार्क्स बंधुओं की फिल्मों की देन माने जाते हैं। इसी वर्ष First Manifesto for a Theatre of Cruelty नामक आलेख का प्रकाशन हुआ। उनकी प्रमुख रचना The Theatre and Its Double का प्रकाशन 1938 में हुआ। यह पुस्तक आर्तो के रंगमंचीय अवधारणा Theatre of Cruelty (क्रूरता का रंगमंच) का घोषणापत्र भी माना जाता है। आर्तो का मानना था कि रंगमंच को सच्चाई का पुनर्प्रदर्शन करके दर्शकों पर ज़्यादा से ज़्यादा प्रभावित करना चाहिए।
अमूमन यह ऐतिहासिक सच नज़रंदाज़ कर दिया जाता है कि आर्तो का काल विश्वयुद्धों (प्रथम 1914–1918, द्वितीय 1939–1945) का काल भी रहा है और दुनियां का कोई भी संवेदनशील कलाकार एतिहासिक, सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक घटनाक्रमों के प्रभाव से वंचित कैसे रह सकता है और वो भी फ्रांस जैसे देश का नागरिक होकर। रंगमंच और क्रूरता नामक अपने आलेख में आर्तो यूं ही नहीं कहते हैं कि “जिस वेदना और संकट के समय में हम रहते हैं, ऐसे में हम उस रंगमंच की ज़रूरत को तीब्रता से महसूस करते हैं, जो किसी घटना की छाया से प्रभावित न हो, जो उत्साहित कर सके हमारी गूंज को, जो उस अव्यवस्थित समय पर हावी हो जाए, उसको गहरे प्रभावित कर ले।” ज्ञातव्य हो कि अपने रंगमंच और प्लेग नामक आलेख में आर्तो मंच पर विकराल और डरावना समय में आपदा की स्थिति उत्पन्न कर क्रूरतम सच्चाई को उद्घाटित करने की बात करते हैं।
आर्तो और रंगमंच – रंगमंच एक स्वतंत्र अलौकिक कला है यह माननेवाले आर्तो के लिए रंगमंच की अवधारणा सच्चा है, जो सामाजिक अवधारणाओं को रद्द करने की बात करता है। यहाँ वैचारिक क्रांति के लिए जगह और नस्लवाद की मुखालफत है। रंगमंच पर विचार करते हुए आर्तो ने कई ऐसी बातें कही जिससे आजतक ना जाने कितनों ने प्रेरणा हासिल किया है। आर्तो कहतें है “हम रंगमंच के विचार से वेश्यावृत्ति जारी नहीं रख सकते जो सिर्फ़ उस नैतिक मूल्य के साथ बसती है। जो पीड़ा और संघर्ष से भरे जादुई अंतर्सबंधों के यथार्थ और खतरे में निहित है।”सच्चा रंगमंच एक सृजनात्मक अनुभूति है जो ‘यथार्थ जगत’ की नक़ल नहीं हो सकता। यहाँ यथार्थ का पुनर्परीक्षण होता है। शब्द, संकेत, सार्थक सैधान्तिकी (Metaphysical) को सृजित करने के साथ ही साथ आर्तो रंगमंच की अपनी एक विशिष्ट भाषा तलाशने के पैरोकार थे, बने-बनाए आलेख से उनका मोह नहीं था बल्कि वो तो बार-बार आवरण रहित, जादुई, ताल-लय से भरपूर, काव्यात्मक, प्रतीकात्मक, अनुष्ठानिक, कोडिफाइड, सीमारहित और सपनों जैसा रंगमंच की बात करते हैं।
आर्तो रंगमंच में प्रभावशाली दृश्य और उत्तेजना को फिर से तलाश करने के पक्षधरता के साथ कहते हैं “रंगमंच में जीवन है, ऐसा जीवन जो अपनी प्रमाणिकता लिए हो, जिसमें कोई असत्य, कोई दिखावा और पाखंड न हो। जीवन, जो भूमिका खेलने के विपरीत है, जिसमें जीवन का पुनर्निर्माण होता है। किसी भी प्रदर्शन के मूल आधार में क्रूरता के तत्व के बिना कोई दृश्य प्रभावशाली नहीं हो सकता। हमारी गिरती संवेदनशीलता आज उस बिंदु तक आ पहुंची है जहाँ हमें यक़ीनन एक ऐसे रंगमंच की ज़रूरत है जो हमारी भावनाएँ और विचार दोनों को जाग्रत कर दे। हम ऐसा रंगमंच चाहते हैं जो विश्वसनीय सच्चाई की ठोस रूप से पड़ताल कर सके, जो भावनाओं के रूप में ह्रदय और इन्द्रियों में समा सके, ठीक उस तरह जिस तरह हमारे स्वप्न हमारे यथार्थ को उस हद तक प्रभावशाली रूप में अभिनीत करते हैं, जहाँ पहुंचकर वे उस हिंसा को महसूस करते हैं।”
आर्तो रंगमंच को किसी भी राजनैतिक विचार के प्रभाव से मुक्त रखने के पक्षधर थे। वे अपने लिखे को हमेशा अपर्याप्त और दोषपूर्ण मानते थे। उसकी एक वजह एक खास तरह की बेचैनी, उन्हें उचित स्थान व सम्मान न मिलना हो सकता है। पल-पल इम्तहानों से गुजरनेवाले आर्तो ने शायद विषाद से ग्रस्त होकर यह लिखा कि “दैत्याकार शक्तियों ने मुझे धकेल दिया है, इसलिए इसे स्वीकार करते हुए मैं क्या हूँ, मैंने यह तलाश छोड़ दी है।”
आर्तो प्राचीन रंगमंच के मिथकों, अनुष्ठानिकता, स्वप्नलोक से बड़े प्रभावित थे और उसे नए अर्थ में अपनाने की भी बात करते थे क्योंकि यदि इन चीज़ों को जैसे का तैसा रख दिया जाय तो वो अर्थहीन होगा। आर्तो रंगमंच में शब्दों से ज़्यादा मनोवृति और भावनाओं के समर्थक थे। वे मानते थे कि शब्दों का प्रभाव सामान्य सा होता है। उनका यह भी मानना था कि वास्तविक भावनाओं को मंच पर अभिनीत नहीं किया जा सकता है बल्कि ऐसा करने को वो एक धोखा भी मानते थे।
रंगमंच और प्लेग – आर्तो के इस बहुचर्चित व मुश्किल संभाषण का पाठ 1933 में आएन्दी के आयोजन में सर्बोन बौधिक श्रृंखला के तहत किया गया था। इसमें आर्तो रंगमंच की तुलना प्लेग जैसी महामारी से करते हुए कहते हैं – रंगमंच प्लेग जैसा है, एक ऐसा संकटकालीन चरमबिंदु जो स्वयं ही उसकी दवा है। प्लेग एक ऐसी निरंकुश संकट है जिसमें मौत, तबाही या सबकुछ पाक-साफ़ के अलावा तीसरा रास्ता नहीं होता। रंगमंच ऐसी ही स्थिति बनाता है। रंगमंच अपने में सर्वोत्कृष्ट संतुलन है, जो मस्तिष्क का आह्वान करता है, उसे सन्निपात की स्थिति तक ले जाकर उसकी सोचने की शक्ति तीव्रतर कर देता है और अंत में सब विध्वंस होने के बाद गहन मानवीय दृष्टिकोण उद्घाटित होता है : रंगमंच प्लेग जैसा है क्योंकि हमें यह देखने के लिए उकसाता है कि हम वास्तव में अंदर से कैसे हैं। यह हम पर दबाव डालता है ताकि हम बाहरी मुखौटे को गिराकर झूठ, पाखंड, पंगुपन का पर्दाफ़ाश होने दें।” आर्तो लिखते हैं “मैं दर्शकों को सीधी मुठभेड देना चाहता हूँ, प्लेग के लिए प्लेग ही देना चाहता हूँ, ताकि वे डर जाएँ, जाग जाएँ। मैं उनको जगाना चाहता हूँ। उनको यह एहसास नहीं कि वे मर चुके हैं। उनका मरना, उनका अंधा, उनका बहरा होना, यही मेरी व्यथा है जिसे मैंने सामने रखा है। हां मेरी और हर उसकी व्यथा जो ज़िंदा है।”
आर्तो रंगमंच की तुलना प्लेग से इसलिए नहीं करते कि यह एक संक्रमण और छूत की बिमारी है बल्कि उसके प्रभाव की बात करते हैं जो भड़कता है और फैलता चला जाता है। आर्तो के अनुसार प्लेग एक महामारी का रूप धारण कर तमाम सामान्य सामाजिक अनुशासन व्यवस्था को ध्वस्त कर देता है ठीक यही काम रंगमंच अपने दर्शकों पर करता है। आर्तो प्लेग की तरह रंगमंच के द्वारा समाज की सारी बीमारियाँ साफ़ करने की बात करते हैं। रंगमंच को प्लेग जैसा प्रभावकारी बनाना चाहते हैं। वे प्लेग की ही तरह रंगमंच में ऐसी ताकत देखते हैं जो अपने फैलाव में ऐसी ताकत पैदा करती है जो विचार (दिमाग) की तरफ़ लौटती है और अंदर चल रहे संघर्ष को प्रेरित करती है; और हम फैंटेसी को अपनी संवेदना में साफ़-साफ़ अनुभव करने लगते हैं। तब एक अवचेतन में खौफभरी स्थिति पैदा होती है जिसमें रहस्यमय स्थिति का भ्रम पैदा होता है, उसका सच सामने आने लगता है और अंधेरे में पुलकित होता दिखाई पडता है।
रंगमंच प्लेग जैसा ही लाभकारी है। यह हमें तमाम बाधाओं और भौतिक जड़ता को पार कर आमने आपको देखने-समझाने को बाध्य करता है, बने बनाए नियम-कायदे सब टूट जाते हैं और छिपे हुए अंधेरे के पीछे से इंसानी शक्ति उजागर होती है। यह शक्ति इंसान को साहस, नैतिकता के साथ परिस्थितियों के सामने सर उठाकर खड़ा होने की शक्ति देती है।
रंगमंच और क्रूरता – यह हर तरह के आधिपत्य से मुक्त और आडम्बरहीन रंगमंच की एक विद्रोही अवधारणा है, आर्तों के इस अवधारणा को हिंसा के सन्दर्भ में नहीं बल्कि नवीन सृजन के सन्दर्भ में समझा जाना चाहिए। यहाँ क्रूरता का अर्थ कुछ-कुछ वैसा ही है जैसे धरती का सीना फड़के कोई नया बीज पनपता है। आर्तो कहते हैं कि “किसी भी कर्म को अभिनीत करना क्रूरता है। क्रूरता के रंगमंच का विचार जनमानस के रंगमंच को प्रस्ताव देना है, उसको अपनाना है। इसलिए हमें रंगमंच का पुनर्निर्माण करना चाहिए। हम रंगमंच की समझ खो चुके हैं। हमारी मनःस्थिति उस छोर तक जा पंहुची है जहाँ उस रंगमंच की नितांत आवश्यकता है, जो हमारे दिलों की धडकन, हमारे धैर्य और हमारी इन्द्रियों को जागृत करता है। विरासत में मिले ध्यान को भटका देनेवाली आदतों के चलते हमने उस गहन सूक्ष्म रंगमंच के विचार को भूला दिया है जिसमें हमारे अपने पूर्व ज्ञान को नष्ट कर देने की शक्ति है। अपने आपमें उस गहन और उग्र विचार के साथ जिसको संकीर्ण कर सीमित कर दिया गया है। रंगमंच को एक विश्वास करनेवाली वस्तु बनाया जाय जो भावना और चेतना के स्तर पर आगे बढ़ाई जा सके। एक ऐसा रंगमंच जो अपने में पूरी कायनात समेटे नए बिम्बों के साथ दर्शकों से सीधा संवाद करे। यहाँ मंचीय घटनाओं में इतनी जीवन्तता हो कि वो पहले से नपी तुली तमाम तैयारियों को झटके में तोड़ दे। एक ऐसा रंगमंच जहाँ ज़िंदगी अपना सब कुछ खो दे और दिमाग सब पा ले।”
क्रूरता के अर्थ को प्रतिपादित करते हुए आर्तो का मानना है “क्रूरता मेरे विचार की सहयोगी नहीं यह तो हमेशा से ही रंगमंच मौजूद थी। मैं क्रूरता या निर्ममता का उपयोग, जीवन्तता की भूख, ब्रह्मांडीय पूर्णता, न चुकनेवाली अनिवार्यता, इस कायनात में बसे उसके रूप, अंधेरे में समेटे रहस्यमय भवंर के रूप में लेता हूँ। जहां जीवन के लिए अनिवार्य रूप में क्रूरता की आवश्यकता है। इस कष्ट को उठे बिना जीवन का चक्र चलाया नहीं जा सकता। ऐसे ही अर्थों में क्रूरता का अर्थ प्रतिपादित किया जाना चाहिए। प्रत्येक वस्तु जिसका जीवन जड़ नहीं, वह क्रूरता के लिए है। उदाहरणार्थ : जब बच्चे का जन्म होता है तो पीड़ा क्या होती है, जन्मदाता जानती है। मृत्यु हो या जन्म, दोनों में सामान क्रूरता है। भूख, प्रेम, आग, वर्षा, इस पृथ्वी का स्वभाव सभी क्रूरता लिए हुए हैं। गति की ज़रूरत में परिवर्तनशीलता, अंधेरे के लिए रौशनी, पदार्थ के लिए जीवन भाव, जड़ से चेतन का भाव, संघर्ष से पीड़ा तक सभी में क्रूरता निहित है।”
क्रूरता का रंगमंच : पहला घोषणापत्र – 1933 से 34 के बीच लिखित आर्तो की यह रचना उनके रंगमंच सम्बन्धी खोजों को प्रस्तुत करती है जिसमें वे रंगमंचीय तकनीक, प्रयोग वस्तु, प्रदर्शन, अभिनय, भाषा, संगीत उपकरण, प्रकाश, वेशभूषा, मंच-सभागार, मंच सामाग्री, सजावट, सामयिकता, प्रस्तुति, अभिनेता, नाट्यलेख आदि विषय पर अपने विचार रखते हैं। क्रूरता का रंगमंच यह शीर्षक देने से पहले आर्तो सर्व रसायन रंगमंच (The all chemical Theatre), अधिभौतिक रंगमंच (The metaphysical theatre), सत्यपरिक्षा का रंगमंच (The theatre of the doily), विकास का रंगमंच (The theatre of evolution), चरम रंगमंच (The theatre of the absolute) आदि नामों पर विचार कर रहे थे।
आर्तो और अभिनेता – अभिनेता एक क्रियाशील व्यायामी की अवधारणा आर्तो रेड इंडियंस के पयोते नामक नृत्य से प्रेरित होकर किया था। अभिनेता को आर्तो ने भावनात्मक स्तर पर कसरत करनेवाला व्यक्ति भी कहा है। वे अभिनेता को रंगमंच का एक प्रमुख कारक मानते हुए कहते हैं “क्योंकि प्रस्तुति की सफलता उसके अभिनय की प्रभावशीलता पर निर्भर करता है।” एक सच्चे अभिनेता का मकसद है मंच पर जीवन को जीवंत तरीके से जीना और उसे शाश्वत साकार करना है। आर्तो कहते हैं “अभिनेता मेरे लिए एक भावनात्मक व्यायामी की तरह है जो एक ही समय में भावों का संचार, उनका संचालन और अभिनय करता चलता है। मंच पर अभिनय करते समय वह अपने को विभाजित करता है और भावनात्मक संघटन की स्थिति प्राप्त करता है।”
आर्तो का नाटक द सेंसी – एल्फ्रेड जैरी थियेटर द्वारा क्रूरता के रंगमंच का एक मात्र प्रयोग नाटक द सेंसी असफल साबित होता है। यह नाटक सोलहवीं सदी की एक सत्य घटना पर आधारित थी। फ्रांको सेंसी (1549-1598) रोम का एक निर्दयी संभ्रांत व्यक्ति था। सात बच्चों की माँ बनने के पश्चात इसकी पत्नी का देहांत हो जाता है। तत्पश्चात वह एक अत्यंत ख़ूबसूरत महिला पेत्रोनी से ब्याह और अपने बेटों की हत्या और बेटी के साथ बलात्कार करता है। उसकी एक बेटी अपने बाकि बचे भाइयों तथा सौतेली माँ के साथ मिलकर सेंसी की हत्या की योजना बनाती है। अन्तः भाड़े के हत्यारों के द्वारा सेंसी की क्रूर हत्या कराई जाती है। साजिशकर्ता पकड़ लिए जाते हैं और उनपर मुकद्दमा चलाया जाता है। सेंसी की हत्या के जुर्म में रूढ़िवादी पोप सबका सिर कलम कर देने का हुक्म देता है।
इस नाटक के बारे में आर्तो का कथन था “यह नाटक दर्शकों के लिए आग के स्नान घर में घुसने के सम्मान होगा। दर्शक अपनी आत्मा और स्नायु के कंपन के साथ प्रदर्शन में भाग लें।” नाटक का पूर्वाभ्यास अत्यंत दैनीय स्थिति में चला रहा था। अभिनेताओं के समझ में ही नहीं आता कि आर्तो उनसे क्या चाहते हैं। बहुत सारी कठिनाइयों के बावजूद इस नाटक का प्रथम प्रदर्शन 7 मई 1935 हुआ, जो दर्शकों के लिए एक दुस्वप्न सबित हुआ और मात्र सत्रह प्रदर्शनों के पश्चात नाटक बंद हो गया।
द थियटर एंड इट्स डबल – आर्तो द्वारा रंगमंच पर लिखित निबन्धों का यह संग्रह मात्र नहीं बल्कि एक ऐसी दुर्लभ रचना है जो रंगमंच की नब्ज़ को पकड़ती है, पूर्वी रंगमंच की समझ और आधुनिक रंगमंच में मिथकों की अनिवार्यता पर ज़ोर देती है।
अंततोगत्वा -“यह है वह – अविश्वनीय, हां – अविश्वसनीय, यह अविश्वसनीय ही है, जो सच है।” जैसे ख़याल थे जो आर्तो के अकेलेपन की उपज थे। आर्तो अब अजीब हरकतें कर रहे थे। कभी डब्लिन की गलियों में अपनी छड़ी हिलाकर लोगों को अपने अभिनय में साथ देने की ज़िद्द करते तो कभी ईसा की शक्ति को आर्तो के अंदर समाहित करने का ख्याल करते। जीवन के अंतिम वर्षों में आर्तो बंदी बना लिए जाते हैं और लगभग नौ साल तक पागलखानों में इलाज के नाम पर बिना बेहोश किए बिजली के झटकों की यातना सहने पर मजबूर कर दिए जाते हैं। आर्तो ताउम्र अपने रंगमंच की खोज में लगे रहे। आर्तो अपने टूटे फूटे शब्दों में कहते हैं “मुझे मालूम है मेरा व्यवहार धीरे-धीरे खराब होता जा रहा है। मैं जब भी अपनी छड़ी का इस्तेमाल करता हूँ, मुझे अपने भीतर अयोग्यता और आत्मा में खालीपन का अनुभव होता है।”
आर्थर अदामव, मार्थ रॉबर्ट, ब्रेटो जूवे, ब्राक, पिकासो, गिआकोमेती, सार्त्र, सिमोन आदि के प्रयासों से आर्तो को पागलखाने से निकालकर एक निजी चिकित्सालय में रखा जाता है, जहाँ अपनी बची खुची उर्जा वो वॉनगॉफ के चित्रों के देखने के पश्चात एक महत्वपूर्ण आलेख लिखने में लगते हैं। 52 वर्ष की अवस्था में पीड़ा, यातना, अस्वीकार और अकेलपन से जर्जर हो गए आर्तो 4 मार्च 1948 को अपने पलंग के पास शांति से बैठे हुए पाए जाते हैं। यह मृत्यु और सुकून का आलिंगन था।
यह सबकुछ आर्तो का पागलपन था या वो कुछ कह रहे थे जिसे विश्वयुद्ध के दौरान कोई समझने को तैयार नहीं था ! आर्तो भौतिकता से आध्यात्मिकता, वास्तविकता से कल्पना की ओर उड़ान भरनेवाले जिस रंगमंच की परिकल्पना कर रहे थे उसके लिए शायद उस वक्त दर्शक और नाट्य समीक्षक तैयार नहीं थे। क्रूरता के रंगमंच के जनक के ऊपर क्रूरता के बावजूद विश्व रंगमंच के आकाश में आर्तो और उनका रंगमंचीय चिंतन आज एक ऐसी चमकती पहेली है जिन्हें सुलझाया और समझा जान अभी शेष है।
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