राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय रंगमंडल से त्यागपत्र देने के पश्चात मैं कुछ दिन पूरी तरह से विश्राम की मुद्रा में था कि एक दिन रणधीर कुमार का फोन आया और पूछा कि क्या सूत्रधार (संजीव का उपन्यास) पर नाटक लिखा जा सकता है? यह उपन्यास पढ़े कई साल हो गए थे इसलिए तत्काल कुछ कहना संभव नहीं था। मैंने कहा पहले पढ़ता हूं फिर आगे की बात करता हूं। झारखण्ड की राजधानी रांची में साहित्यिक पुस्तकों की बड़ी किल्लत है। मगर घर में धुरंधर पढाकों की वजह से मुझे एक जगह का पता चला जहां किताब मिलने की संभावना थी। बल्कि पढाकों के पास वहाँ का फोन नंबर भी निकल आया और दुकान चूँकि घर से बहुत दूर थी इसीलिए पहले फोन से ही कन्फर्म कर लिया गया कि किताब वहाँ है। मैं रांची के लिए नया था इसलिए मैं और स्वाति स्कूटी से दुकान की ओर चले। पता चला कि स्वाति को दुकान के जहां होने का पता था दुकान वहाँ है ही नहीं। आखिर घर से फोन पर बातचीत के कई दौर और गलियों के कई चक्कर लगाने के बाद आखिर पता चला कि दुकान कहीं और चली गयी है। किसी तरह वहाँ जाने का पैदल रास्ता पता चला। हम ये सोच ही रहे थे कि वहाँ स्कूटी से कैसे पहुंचा जा सकता है कि तब तक स्वाति की स्कूटी ने स्टार्ट होने से ही मना कर दिया। दुकान के बजाये अब हम किसी मेकैनिक का पता लगाने लगे और ठेल ठाल कर वहाँ पहुंचे। हमारी तीन महीने की बिटिया घर में नाना नानी के पास थी तो हम बहुत देर भी नहीं कर सकते थे। सो स्वाति मुझे स्कूटी बनवाने छोड़कर अकेले दुकान की खोज में चली। उसके जाने के कुछ ही देर बाद ज़ोरदार बारिश शुरू हो गयी और लगभग घंटे भर होती रही। हमारे पास न छाता न बरसाती। स्वाति का फोन मेरी जेब में रह गया था तो उससे कोई संपर्क भी नहीं हो पा रहा था। बीच में घर से फोन आया तो मैंने गाडी ले कर आने को कह दिया। बारिश के बीच में ही उस सज्जन दुकान मालिक ने, जो स्वाति के बाबूजी के मित्र भी हुआ करते हैं, स्वाति को परेशान देख कर उसे अपनी गाडी पर भिजवा दिया। उस पतली सी दुकान में लगभग घंटे भर मकैनिक हमारी स्कूटी ठीक करता रहा और हम किसी तरह उस टपकते छत के नीचे अपने आपको बारिश से बचाते रहे। पहाड़ी इलाके की बारिश बड़ी ज़ालिम होती है, भीगे नहीं कि सर्दी, जुकाम और बुखार ने आ दबोचा। आख़िरकार गाडी का आगमन हुआ और स्वाति मुझे छोड़ कर दौडी दौडी अपनी माँ और बेटी के साथ उस पर बैठ गयी। गाडी में जगह और थी मगर स्कूटी को तो घर ले ही जाना था। गनीमत है कि घर से बरसाती आ गयी थी। अब मैं और बेचारी बीमार स्कूटी लगभग दस किलोमीटर ठुमक-ठुमककर चलकर भींगते हुए घर पहुंचे।
बहरहाल, कई दिनों तक भिखारी ठाकुर रचनावली, सूत्रधार व उनके ऊपर लिखे कई अन्य आलेख पढ़ने के बाद यह तो तय हुआ कि भिखारी ठाकुर के रचनाकर्म और संघर्षों के लेकर नाटक लिखा जाना चाहिए किन्तु उसके केन्द्र में उसके अलावा क्या होगा यह बात अभी तय होना बाकी थी। नाटक और डाक्यूमेंट्री दो अलग विधा है इसलिए नाटक में क्या होना चाहिए क्या नहीं इस बात को लेकर रणधीर और मेरे बीच फोन पर लंबी-लंबी बातों का सिलसिला शुरू हो गया। इन बातों से जो सार निकला वो यह कि नाटक संगीतमय होगा और हम भिखारी ठाकुर को एक आम रंगकर्मी की तरह ट्रीट करेंगें, पहले ही दृश्य से महान कलाकार के रूप में नहीं। साथ ही यह भी तय हुआ कि इसमे जातीय संघर्ष, नाट्यकला और सामाजिक सन्दर्भ को भी समाहित करने का प्रयास किया जाएगा। इसी क्रम में कहीं न कहीं यह भी निर्धारित हुआ कि एक ही नाटक में सबकुछ कह देना संभव और उचित नहीं इसलिए हम इसमे भिखारी ठाकुर के जन्म से लेकर एक प्रतिबद्ध कलाकार बनने तक की कथा ही कहें तो ठीक है। अब सवाल यह था कि इसे केवल भिखारी ठाकुर के जीवन तक ही सीमित किया जाय या फिर इसमें आज के कलाकारों के सवाल और चुनौतियों से भी जोड़ा जाय। क्योंकि समय भले ही बदला हो कलाकारों की दिशा और दशा में कोई गुणात्मक परिवर्तन लगभग ना के बराबर ही हुआ है। लेकिन सबसे पहले यह समझना ज़रूरी था कि मोकाम कुतुबपुर दियर, पोस्ट कोटवा पट्टी रामपुर, छपरा, जिला सारन के भिखारी ठाकुर आखिर थे कौन। इसे समझने के लिए संजीव का उपन्यास और बिहार राष्ट्रभाषा परिषद् द्वारा प्रकाशित भिखारी ठाकुर रचनावली तो थी ही साथ ही हृषिकेश सुलभ का नाटक बटोही, मधुकर सिंह का नाटक क़ुतुब बाज़ार के साथ ही साथ जगदीशचंद्र माथुर, तैयब हुसैन ‘पीड़ित’, नारायण भक्त, विद्याभूषण, डॉ बालेंदु शेखर तिवारी, उमापति पाण्डेय, अंकुश्री, डॉ सिद्धेश्वर, चंद्रशेखर, ब्रज कुमार पाण्डेय, प्रोफ़ेसर रामसुहाग सिंह, जख्मिकांत ‘निराला’, गजेन्द्र नारायण सिंह, उर्मिल कुमार थापियाल, सुभाषचंद्र कुशवाहा, केदारनाथ सिंह, निराला, रघुवंश नारायण सिंह, मुन्ना कुमार पाण्डे आदि के आलेखों और रिसर्च का सहारा भी था। फिर उसी दौरान मैं रौवार्तो क्लासो की पुस्तक क भी पढ़ रहा था तो कुछ प्रभाव उसका भी था। इसी किताब का प्रभाव था जो इस तरह के संवाद नाटक में समाहित हुए – “ब्राहमण वह है जो ज्ञानी हो और स्वयं अपनी काया गलाकार संतुष्ट रहे। यहाँ तो ज्ञानी-पंडित भी जात देखकर बात करता है।”
तभी पता चला कि मेरे गांव बड्डोपुर में भी भिखारी ठाकुर अपने नाटकों की प्रस्तुति कर चुके हैं। तो पापा के साथ ही साथ गांव के कुछ बड़े बुजुर्गों से बातचीत कर उनके नाटकों और व्यक्तित्व के बारे में जानकारी प्राप्त करने का प्रयास किया। भिखारी ठाकुर के जीवन और रचनाओं पर तुलसीदास कृत रामचरितमानस का बड़ा प्रभाव था इसलिए इस ग्रंथ को भी पढ़ा। इंटरनेट पर भी खूब सर्च किया। वहां बहुत सी जानकारी मिली किन्तु एक अनमोल खजाना जो हाथ लगा, वह था भिखारी ठाकुर की आवाज़ में उन्हीं के नाटक बिदेसिया का गीत – डगरिया जोहत ना। बुढ़ापे में भी आवाज़ की खनक सुनकर उनकी बहुमुखी प्रतिभा का सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। फिर बिहार के सांस्कृतिक, सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक इतिहास की भी पड़ताल ज़रुरी थी। बचपन में रात-रात भर जागकर देखे गए नाच-तमाशे और श्री संजय उपाध्याय के साथ लगभग दो साल तक भिखारी ठाकुर के प्रसिद्द नाटक में मेरे द्वारा निभाया गया नायक बिदेसी का अनुभव भी काम आ ही रहा था।
इतना सबकुछ हो जाने के बाद मन में एक सवाल बहुत प्रखरता से कौंध रहा था कि हमारा भिखारी ठाकुर कैसा होगा? यदि वह बाकी लेखन से इतर न हुआ तो फिर इस लेखन की ज़रूरत ही क्या है? दो नाटक तो लिखे ही गए हैं उनके ऊपर फिर एक और नाटक की ज़रूरत ही क्या है? यह चिंतन मन में चल रहा था। रणधीर और मैं लगभग रोज़ घंटों इस मुद्दे पर फोन से बातचीत करते। इसी क्रम में यह समझ में आया कि हम नैरेटिव स्वरुप में काम करेंगें और हमारा भिखारी ठाकुर ऐसा रंगकर्मीं होगा जिसने तमाम संकटों, चुनौतियों, जातिगत संघर्षों आदि को पार करते हुए पूर्णतः देसज अंदाज़ में रंगकर्म को एक नया आयाम प्रदान किया। फिर यह भी समझ में आया कि जो काम बड़े-बड़े आधुनिक भरतमुनि नहीं कर पाए वह काम अपने समय में अनपढ़ माने जानेवाले भिखारी ठाकुर ने कर दिखाया। बिना समझौते और किसी प्रकार के ग्रांट के बिना सालों भर चलनेवाले एक व्यावसायिक रंगमंडल की स्थापना की। अपने नाटक लेकर जगह-जगह घूमे और अपने नाटकों के माध्यम से नाम और दाम कमाया। नाटक में एक जगह भिखारी कहते हैं – “खाली लगन भर कमाए से साल भर का खर्ची नहीं निकलेगा और जब नाच का धंधा कर लिया तो खाली लगन ही काकहे, साल भर कमाय के हिसाब बनावल जाओ।”
अब सबसे पहले यह तय होना था कि नाटक की भाषा क्या हो – तथाकथित बिहारी हिंदी, भोजपुरी या कुछ और? उक्त विषय पर रणधीर से बातचीत होने पर यह साफ़ हो गया कि चुकी इस नाटक को व्यापक दर्शकवर्ग के लिए तैयार किया जाना है इसलिए इसकी भाषा ऐसी रखी जाय जो व्यापक दर्शक वर्ग के समझ में आए। हालांकि इस बात का खतरा था कि एक भोजपुरिया पात्र जब शुद्ध हिंदी में संवाद अदायगी करेगा तो उसे लोग सहजता से स्वीकार करेंगे या नहीं। किन्तु यह सत्य ही है कि जब तक नाटक दर्शकों के समक्ष प्रदर्शित नहीं हो जाता तब तक हम दावे से कुछ नहीं कह सकते कि क्या स्वीकार किया जाएगा और क्या नहीं। इसी दौरान रणधीर ने यह भी बताया कि यह उसका “ड्रीम प्रोजेक्ट” है। मुझे काटो तो खून नहीं। एक तो भिखारी ठाकुर जैसा प्रसिद्द कलाकार और ऊपर से निर्देशक का ड्रीम प्रोजेक्ट। अब लिखूं तो क्या लिखूं। वैसे सच ही है कि वह भय ही है जो हमें चुनौती देता है। इससे डर गए तो मात और लगन, सार्थकता, सकारात्मक और सृजनात्मक उर्जा से भिड गए तो कुछ न कुछ अच्छा तो हो ही जाएगा। चिंतन की प्रक्रिया में एक बात तो साफ़ हो गई कि मुझे भिखारी ठाकुर के माध्यम से तुलसीदास से लेकर कबीर तक की यात्रा करनी है और दूसरी यह कि भिखारी ठाकुर के जीवन में घटित प्रमुख घटनाओं के माध्यम से जितनी भी मेरी समझ है उसके अनुसार कुछ सवाल भी खड़े करने हैं और साथ ही साथ तब से लेकर अब तक वर्ग, वर्ण और संस्कृतिकर्म पर टिपण्णी भी करनी है। भिखारी ठाकुर अपने नाटकों को नाच नहीं बल्कि तमाशा कहते हैं किन्तु नाच उनके तमाशे की प्रमुख श्रृंगार था, इसे भी परिभाषित करना था। नाटक में एक स्थान पर नाच को परिभाषित करते हुए भिखारी ठाकुर कहते हैं – “यह देह एक बागीचा है जिसमें तन-मन और आत्मा का वास होता है। नाच केवल तन नहीं बल्कि मन और आत्मा की चीज़ है। जब हम नाचते है तो पूरा देह नाचता है। सभी कुछ ताल में। एक ताल समाजी का, मतलब बजबैया का ढोलक, झाल और सारंगी और दूसरा ताल हमारे देह से निकलता है। कलाकार का ताल-लय, गीत-संगीत सब आत्मा से निकलना चाहिए तभी रस पैदा होगा नहीं तो सबकुछ ऊपर ही ऊपर रह जाएगा। जब देह, मन और आत्मा एकाकार हो जाता है तब आगे, पीछे, ऊपर, नीचे, दीन, दुनियां का अस्तित्व खत्म हो जाता है और कला अपने पूरे कलात्मक स्वरूप से ओतप्रोत हो निराकार और उर्जावान रूप धारण कर लेती है।” कहने की ज़रूरत नहीं कि यहां जानबूझकर नाट्यशास्त्र का सात्विक अभिनय और स्तानिस्लावासकी के अभिनय सिंद्धातों का समावेश किया गया है। भिखारी ठाकुर ने भले ही कोई नाट्य सिद्धांत नहीं लिखा किन्तु यह स्वीकार नहीं किया जा सकता कि उनके मन में इस प्रकार के विचार नहीं चले होंगे। वैसे भी नाट्य-रचना में काल्पनिकता का समावेश न हो तो फिर रचना का आनंद खत्म हो जाता है। इतिहास लेखन और वृत्तचित्र से नाटक एक अलग विधा है।
हमें एक ऐसे कलात्मक चरित्र की रचना करनी थी जो सामाजिक ताने बाने में जाति के आधार पर कर्म निर्धारण को चुनौती पेश करे और मनमाफ़िक काम को करने की चुनौती स्वीकार करे। मैंने खुद से सवाल किया कि हमने रंगमंच जैसी अस्वीकृत और चुनौतीपूर्ण विधा का चयन क्यों किया? और जो जवाब मिला उसे भिखारी ठाकुर के मार्फ़त कुछ यूं कहलवाया - “काम ऐसा हो जिसमें मन लगे। और मन ऐसा हो, जो मनमाफिक काम करने को बैचैन रहे। मनमाफिक काम का स्वाद एक बार मिल जाय, तो कहीं और मन कहां लगता है? तब क्या किया जाय – नाच? लोग क्या कहेंगें! मन में बहुत सारे ख्याल उठ रहें हैं। थोड़ा उजाला और ढेर सारा अँधेरा। क्या करें, कैसे करें?”
सूत्र मिल चुका था तो आखिरकार ए4 साइज़ के 84 पन्ने में नाटक का पहला ड्राफ्ट तैयार हुआ। इस ड्राफ्ट में ढेर सारे सीन थे बहुत सारे प्रकाश के अन्धकार और उजाला के साथ। यह निश्चित रूप से बहुत ही प्राथमिक स्तर का आलेख था जिसे रणधीर ने बड़े ही गौर और धर्य के साथ पढ़ा होगा और पहली प्रतिक्रिया दी कि नाटक में फेड आउट, फेड इन नहीं चाहिए ज़्यादा से ज़्यादा क्रॉस फेड कर सकते हो। फिर हम फोन पर एक-एक सीन पर घंटो बात करते रहे। आखिरकार मैंने कुछ दिन बाद दूसरा ड्राफ्ट भेजा जो 71 पन्ने का था। इस ड्राफ्ट के भेजने के कई दिनों तक रणधीर ने कोई फोन नहीं किया। इधर वो अभिनेताओं के साथ भिखारी ठाकुर से जुड़ी चीज़ों को पढ़ने-पढ़ाने की प्रक्रिया शुरू कर चुका था। मैं भी इस संकोच से फोन नहीं कर रहा था कि शायद उसे नाटक पसंद नहीं आया। अचानक एक दिन उसका फोन आया जिसका लब्बोलुआब यह कि “कई बार नाट्यालेख पढ़ने के पश्चात् उसकी राय यह है कि एक मुक्कमल नाटक तैयार करने के लिए बहुत सारा कच्चा माल उपलब्ध है इस आलेख में तो अब इस आलेख के सहारे काम शुरू किया जा सकता है। लेकिन नाटक बहुत बड़ा है लगभग पांच घंटे का हमें ज़्यादा से ज़्यादा डेढ़ घंटे का नाटक बनाना है।” वैसे यह पहले से ही तय था कि नाटक का फाइनल ड्राफ्ट फ्लोर पर काम करते हुए ही बनाना है। कुछ दिन रणधीर अभिनेताओं के साथ काम करेगा फिर वो, मैं और अभिनेतागण उसे सामूहिक रूप से अंतिम रूप देंगे। तो आलेख के साथ अभिनेताओं ने प्रयोग शुरू किया और मैं एक थियेटर वर्कशॉप के लिए डोंगरगढ़ (छत्तीसगढ़) चला गया। अब समस्या यह कि नाटक का नाम क्या रखा जाय? मैंने जो नाम सुझाए थे वो रणधीर को पसंद नहीं थे। फिर मैंने भिखारी ठाकुर, नटयोगी, नटनायक, दलनायक, खेला, रंगमहल, नाच, तमाशा, मंडली, नाचलोक, समाजी, सवैय्या, नेवता, संवदिया, सट्टा आदि नाम सुझाए किन्तु कोई भी नाम उसे जंच नहीं रहा था। हर नाम पर खूब चर्चा ज़रूर हुई। बाद में पता चला कि नाम के तलाश में कई अन्य लोग भी लगे थे। नाम को लेकर मेरा मानना था कि नाम ऐसा हो जिसे सुनते ही पता चल जाए कि यह भिखारी ठाकुर के बारे में है लेकिन रणधीर का मानना था कि नहीं, हम ऐसा कुछ नहीं करना चाहते जिससे दर्शक किसी भी प्रकार पूर्वाग्रह से ग्रसित होकर नाट्य प्रदर्शन देखने आए।
पुरी रचना प्रक्रिया में हम दोनों एक दूसरे से क्रिएटिव रूप से सहमत-असहमत होते रहे। यह सहमति-असहमति नाटक के पहले भी थी और आज भी है। आज भी नाटक में कुछ चीजे मुझे पसंद नहीं तो कुछ उसे। बहरहाल, मैंने कहा तुम्हें जो नाम पसंद है रख लो। कुछ दिन के बाद उसने पूछा कि नटमेठिया नाम कैसा रहेगा? मैंने कहा एकदम सही। नट माने अभिनेता और मेठिया मेठ से बना है अर्थात नेतृत्वकर्ता। भिखारी ठाकुर नायक ही तो थे - नटों के नायक।
बहरहाल, कार्यशाला खत्म कर मैं पटना पहुंचा और कुछ दृश्य इधर-उधर, कुछ नए संवाद जोड़कर, कुछ घटाकर नाटक को एक रूप देने का कार्य सामूहिक रूप से शुरू हुआ। आज इस नाटक के बारे में विश्वास से यही कह सकता हूं कि यह एक जीवनीपरक (Bio-graphical) नाटक है जिसके केन्द्र में हैं लेखक, कवि, अभिनेता, निर्देशक, गायक, रंग-प्रशिक्षक भिखारी ठाकुर और भारतीय समाज की जटिल वर्गीय व जातीय बुनावट। यह नाटक जितना सच है उतना ही काल्पनिक भी। भिखारी ठाकुर की संघर्षशील जीवनयात्रा का काल 1887 से 1971 है यानि ब्रिटिश राज से लेकर आज़ाद भारत और भारत निर्माण तक का काल। यह वही समय है जिसमें दुनियां में क्रांतियों व विश्वयुद्धों का दौर चलता है, भारतीय स्वतंत्रता संग्राम अपने चरमोत्कर्ष पर पहुंचता है और भारत एक आज़ाद देश घोषित होता है। वैश्विक धरातल पर तेज़ी से घटित होता यह तमाम सामाजिक - राजनीतिक परिघटनाएं इस नाटक के विषय वस्तु को प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप से प्रभावित करती हैं और कहीं-कहीं तो सीधे विषय-वस्तु ही बन जाती हैं। नाटक के केन्द्र में ‘नाच’ जैसी ‘इरोटिक’ और विशुद्ध मनोरंजन मात्र के रूप में लोकप्रिय विधा भी है जिसे परिष्कृत और कलात्मक बनाकर आज के आम आदमी का दुःख दर्द को अभिव्यक्त करने का माध्यम के रूप में प्रस्तुत करने की छटपटाहट भिखारी ठाकुर के अंदर साफ़-साफ़ महसूस किया जा सकता है; जिसमें एक तरफ़ सामाजिक संघर्ष है तो दूसरी तरफ़ एक कलाकार के अपने अंतर्जगत का संसार। कहीं परम्परा का निर्वाह है तो कहीं उसके घुटन भरे ताने-बाने से निकलने की चटपटाहट भी।
यह नाटक नाट्यकला के प्रति पूर्णतः समर्पित भिखारी ठाकुर के जीवन, कला व लेखन के माध्यम से एक खास प्रकार का दलित, स्त्री व रंगमंचीय विमर्श भी प्रस्तुत करने का प्रयत्न भी करता है। जिसमें उनके संघर्ष के साथ ही साथ भारतीय वर्ग-वर्ण व्यवस्था का सजीव, रोचक व क्रूर चित्रण भी सामने आता है।
एक ऐसे समाज में जहाँ पर्व-त्येहारों व कर्म-कांडों आदि के अलावा नाचना-गाना शूद्रों का पेशा माना जाता है और “नाटक/नौटंकी मत करो” जैसे वाक्य लगभग गाली के रूप में इस्तेमाल होते हैं वहां समाज में व्याप्त कुरीतिओं के खिलाफ़ जब कोई कलाकार पारंपरिक कलात्मक व सामाजिक तौर-तरीकों, प्रतीकों (Traditional artistic & Social Styles-Symbols) का इस्तेमाल सुधारवादी चिंतन के लिए करता है तो उसे लोकप्रियता के साथ ही साथ कला और समाज के विचारों के अंतरद्वन्द का भी सामना करना ही पड़ता है। इस द्वन्द के सार्थक इस्तेमाल से ही तो कला और समाज दोनों में निखार आता है और मानवीय संवेदनाएं वर्जनाओं और कर्मकांडों से ऊपर उठकर और ज़्यादा मानवीय होने की दिशा में अग्रसर होतीं हैं।
तमाम वर्गों, वर्णों, जातियों, समुदायों में विभाजित, सामंती और उपभोक्तावादी मानसिकता से ग्रसित समाज में कला, कलाकार, वर्ग और समाज का संघर्ष पुराना है। तिथियाँ बदली हैं, परिस्थितियां बदली हैं, स्वरुप बदला है, तरीका बदला है किन्तु यह संघर्ष आज भी समाप्त नहीं हुआ है। प्रस्तुत नाटक भिखारी ठाकुर के माध्यम से कला-कलाकार व समाज के बीच व्याप्त इसी द्वन्द व संघर्ष की एक व्यावहारिक गाथा है।
इस नाटक की रचना प्रक्रिया में निर्देशक रणधीर कुमार के अलावा सुनील बिहारी, मनीष महिवाल, अजित कुमार, बुल्लू कुमार, आशुतोष अभिग्य, रवि महादेवन, शिल्पा भारती, आकाश कुमार, रवि कौशिक, निखिल, और आकाश आदि अभिनेताओं तथा भूपेंद्र कुमार, मार्कंडेय पांडे, आदित्य गुंजन, विनय राज आदि पार्श्वकर्मियों ने बराबर की भागेदारी की है। पटना की भीषण उमस वाली गर्मी में इस नाटक के एक-एक दृश्य को रचने, सजाने-सवारने में जम के अपना पसीना बहाया है। इनके प्रति आभार व्यक्त किए बिना इस नाटक की रचना अधूरी है। राग, पटना के तत्वावधान में 8 जुलाई 2014 को इस नाटक की पहली प्रस्तुति पटना के कालिदास रंगालय में हुई। तब से लेकर आजतक कई सारे दृश्य बदले, अभिनेता बदले लेकिन इसकी प्रस्तुति पटना सहित देश के विभिन्न शहरों में सतत जारी है। लगातार मंचित होते रहने और उसमें सक्रिय भागीदारी निभाते रहने से एक-एक करके नाट्यालेख की कमज़ोर कड़ियां पता चल रही हैं जिसे हम निर्देशक, अभिनेताओं के आपसी सामंजस्य से दूर करते चल रहे हैं। प्रसिद्द नाटककार दरियो फ़ो ने कहा है कि – “एक रंगमंचीय, एक साहित्यिक, एक कलात्मक अभिव्यक्ति जो अपने समय के लिए नहीं बोलती, उसकी कोई प्रासंगिकता नहीं है।” फ़ो के इसी कथन की परिणति है मेरा पूरा रंगकर्म और नटमेठिया नामक यह नाटक भी।” कहा जा सकता है कि इस नाटक मे भिखारी ठाकुर और उन पर लिखी तमाम साहित्यिक कृतियों के माध्यम से हम सब अपने आपको ही तलाश रहे हैं और यह तलाश आज भी सतत जारी है। नटमेठिया रोज़ नए रूप धरता है, यही उसकी नियति है। उसमें शायद ही कभी पूर्ण-विराम लगे।
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