बात उस ज़माने की है जब कम्युनिस्ट पार्टी के पास जूनून था, हौसला था। उसके कार्यकर्ताओं की आँखों में नई दुनियां बसने और बनाने का सपना था। हां कुछ नहीं था तो - पैसा। यह बिहार के पृष्ठभूमि में 1974 के छात्र आंदोलन के बाद वाले काल की बात है। जब कम्युनिस्ट होलटाइमर अपना घर परिवार छोड़कर अपने-अपने इलाके में किसी फकीर की तरह रहते थे। जो मिलता वो खाते, जहाँ नींद लगती वहीं जनता के साथ ही किसी घर, दालान या खुले आकाश के नीचे में सो जाते। सम्पत्ति के नाम पर उनके पास बस एक सर्वोदयी झोला होता जिसमें कलम, कॉपी, किताब, एकाध कपड़े के अलावा यदि कुछ होता तो वह था नई दुनियां बनाने का सपना। इसी काल में शायद “झोलटंग” नामक शब्द भी प्रचालन में आया था, जो शायद इनका ही उपहास बनाने के लिए प्रचलित हुए होगा। वैसे भी झोला और दाढ़ी तो उन दिनों फैशन बन ही गया था। महिलाओं की दाढ़ी आती नहीं, हां महिला कार्यकर्त्ता भी होंगे ही उन दिनों, अब वो झोलटंगी करती थीं या नहीं यह एक अध्ययन का विषय है।
वह चिट्ठी युग था - मोबाईल और टेलीफोन युग नहीं। वे कार्यकर्त्ता घर से महीनों महीना गायब रहते और उनके घरवालों को उनकी कहीं कोई खोज-खबर नहीं मिलती। अब ज़रा कल्पना कीजिए उन पत्निओं की हालत का जो इनसे ब्याह दी गईं थी और जिन बेचारियों को यह समझ ही नहीं आता था कि उनका पति आखिर करता क्या है। भिखारी ठाकुर की नायिका प्यारी सुंदरी को तो कम से कम यह तो पता था कि उसका पति बिदेसी बिदेस गया है तो नगदा-नगदी दाम कमाने; लेकिन इन पत्नियों को तो यह भी पता नहीं था कि उसके अच्छे खासे पढ़े लिखे पति कोई ढंग की नौकरी करने के बजाय जाता कहाँ है और करता क्या है! नगदा-नगदी दाम की तो बात ही बेकार है। घर आते वक्त कभी पांच पैसे का एक लमचुस (उस वक्त का टॉफी) भी ले आए तो गनीमत। अब इन बेचारियों की किस्मत में इंतज़ार और घर और आस पड़ोस के ताने सुनने के सिवा शायद ही कुछ और था। इनके पति जब कभी पुलिस द्वारा गिरफ़्तार कर लिए जाते तब तो दुःख का पहाड़ ही टूट पड़ता जैसे। क्योंकि मान्यता यह है कि पुलिस तो गुंडे मवाली को पकड़ती है! खैर ये बेचारी पत्नियाँ किसी बटोही के कंधे पर सिर रखके सरेआम – “पीया निपटे नादंवा ए सजनी” भी नहीं गा सकतीं थी।
यह महिलाएं सिमोन द बुवआर भी नहीं नहीं थी कि अपने इस क्रांतिकारी और समाज की चिंता में बेदर्द हो गए पति को त्याग कर अपनी आज़ादी को गले लगा लें। यह एकदम साधारण सोच रखने वाली औरतें थीं जिनके लिए शादी का अर्थ जन्म जन्मांतर का बंधन जैसा ही कुछ था। अब इनके सामने घर के किसी अंधेरे कोने में मुंह दबाते हुए रोने-सिसकने और चुपचाप घरवालों के ताने सुनते हुए घर के काम में व्यस्त रहने के सिवा कोई और चारा भी नहीं था। अपने पति के आगमन पर कितनी रातें इन्होनें मीना कुमारी अंदाज़ में बिताएँ होंगें, किसी सामाजिक विज्ञानी के पास शायद ही इसकी कोई जानकारी उपलब्ध हो!
इनके बच्चों का आलम तो पूछिए ही मत। परिवार यदि निम्न मध्यवर्गीय है तो ये कब खाए, क्या खाए, क्या पहने और कब कुपोषित होते हुए बड़े हुए – किसे पता? साल में एक नया कपड़ा मिल जाए तो गनीमत। ऐसे ही एक ग्यारह वर्षीय लड़के को एक बार दिवाली में दो उपहार मिले। पहला कि पापा/पिताजी/बाबू घर आए और साथ ही कुछ पटाखे भी लाए। पता चला कि पापा को पटना में कोई कम्युनिस्ट पार्टी के नौकरी पेशावाले समर्थक मिल गए थे। उन्हें जैसे ही पता चला कि कॉमरेड घर जा रहे हैं – खाली हाथ, तो बच्चों के लिए कुछ पटाखे खरीदकर पकड़ा दिए और शायद कुछ पैसे भी। पत्नी के लिए कुछ साड़ी – वाडी जैसा कोई उपहार तो शायद नहीं ही था।
अब उस बच्चे को बीड़ीया पड़ाका (पटाखा) और छुर्छुरी तो चलाना आता था लेकिन आसमान तारा कैसे चलाया जाय, पता ही नहीं था। तो गोतिया के एक चाचा आए और शीशे की एक खाली शीशी (बोतल) में रखके आसमान तारा चलाते रहे और वो लड़का उसे ही देखकर मस्त होता रहा।
कुछ साल बाद फिर दिवाली आई। तबतक वो लड़का अपने एक भाई, बहन और माँ के साथ अपने पापा के कार्यक्षेत्र में ही रहने लगा था। उसकी माँ ने अन्तः यह तय कर लिया था कि अब चाहे जो हो उसे अपने पति के साथ ही रहना है। वह एक दलित जाति की बस्ती थी जिसमें उसके पापा कार्यरत थे। उस दिवाली की रात बाकि सारे लड़के पांच-दस बीड़ीया पड़ाका (पटाखा) लेकर फोड़ रहे थे। चौदह साल का यह बच्चा खाली हाथ ललचाई नज़रों से उन्हें देख रहा था। फिर वो दौड़ता हुआ आया और पटाखे की ज़िद्द करने लगा। पापा की जेब खाली थी और माँ के पास पैसे कहाँ से आएगें? पापा ने पहले समझाया, लेकिन बच्चा ज़िद्द पर अडा रहा तो पापा का धैर्य जवाब दे दिया और अपनी मज़बूरी और लाचारी को गुस्से में बदलकर पहले तो बच्चे की पिटाई की फिर उसे घर से (जिस सार्वजनिक स्कूल के एक कमरे में वो रहते थे) बाहर निकाल दिया। बच्चा बाहर निकला और बस्ती के एक खाली पड़े झोपड़ी में घुसकर बहुत देर तक सिसकता रहा। गुस्सा शांत होने पर उसके पापा उसे खोजते हुए आए और गोद में उठाकर सीने से लगा लिया। बच्चा अब भी सिसक रहा था और शायद पिता के आँखों में भी आसूं थे लेकिन अँधेरा इतना ज़्यादा था कि उस बच्चे को उसके पिता के आसूं शायद दिखाई नहीं पड़े।
उस बच्चे ने उसी दिन पटाखा नहीं चलाने का कसम खाया और वो अपने इस कसम पर आज भी कायम है। उसके पिता आज 60 की उम्र पार कर चुके हैं और आज भी मार्क्सवाद में उनकी आस्था अटूट है। वो आज भी कम्युनिस्ट पार्टी के होलटाइमर हैं लेकिन आज पार्टी को उनकी कोई परवाह नहीं है। पिछले दिनों उसके पापा का एक गंभीर सड़क दुर्घटना हुआ था, जिसमें उनकी जान जाते जाते बची। लेकिन उनके कुछ व्यक्तिगत शुभचिंतकों के अलावा किसी को कोई खास फर्क नहीं पड़ा। पार्टी ने तो उन्हें न जाने कब का मृत मान चुकी है। कारण यह कि आज जिस लाइन पर उनकी पार्टी चल रही है उससे इनकी पूर्ण-सहमति नहीं है।
पार्टी के पास जब कुछ पैसा आया था तो उसने अपने होलटाइमरों के लिए महीने की उतनी राशि देने का वादा किया था जितने में कि इनका परिवार साधारण तरीके से खा-पी और जी सके लेकिन पिछले कई सालों से इस रकम पर बिना किसी कारण और वाद-विवाद के रोक लगा दी गई।
और बेटे का आलम यह है कि मार्क्सवाद में पूर्ण विश्वास होते हुए भी वह किसी पार्टी का सदस्य नहीं है क्योंकि वह सिद्धांत चाहे कितना भी अच्छा क्यों न हो यदि वह व्यवहार में नहीं है तो उसका उसके लिए कोई महत्व नहीं है।
बेटा पापा को कहता है - "पापा आपने अपने पुरी ज़िंदगी कम्युनिस्ट पार्टी में लगा दी, इस दौरान आपने कई जेनरल सेक्रेटरियों के साथ काम किया और आज आप यहाँ अनवांटेड की श्रेणी में डाल दिए गए हैं। कुछ नहीं तो कम से कम अपनी पुरी ज़िन्दगी पर बेवाकी से संस्मरण ही लिख दीजिए ताकि आनेवाली पीढियां आपलोगों की गलतियों और अच्छाइयों से कुछ सीख ले।” पापा साफ़ माना करते हुए कहते हैं – “इससे कम्युनिस्ट पार्टी की बहुत बदनामी होगी और अभी वो समय नहीं है। हमारा कार्य अभी अधूरा है और अभी बहुत सारे महत्वपूर्ण कार्य करने हैं।”
बेटा एकटक उनकी तरफ़ देखता और सोचता है कि ये लोग किस मिट्टी के बने हैं। इनका विश्वास क्या कभी थकेगा नहीं? हालांकि बेटा ऐसे कई पिताओं को जानता है जो आज अपनी ही पार्टी में अनवांटेड की श्रेणी में डाल दिए गए हैं कुछ तो न जाने कब के मौत के गर्त में समा गए जिनकी असमय और अवसादग्रस्त मौत पर कुछ व्यक्तिगत साथियों के अलावा किसी ने लाल सलाम तक पेश नहीं किया।
बहरहाल, परिस्थिति शायद अभी ज़्यादा अनुकूल नहीं हैं। चुनौतियाँ और अंदर-बाहर का संघर्ष भी खतरनाक रूप से बढ़ा है लेकिन सबसे अच्छी बात है सपनों का ज़िंदा रहना क्योंकि सबसे खतरनाक होता है सपनों का मर जाना।
पुनश्च – बेटे के पिता शायद इस पोस्ट को सबसे ज़्यादा नापसंद करें, लेकिन क्या किया जाय बेटे ने भी तो सत्य बोलना और उसके पक्ष में खड़ा होना अपने पिता से ही सिखा है। इसकी कीमत की परवाह जब पिता ने आजतक नहीं किया तो बेटा क्यों करे? वैसे भी सर्वहारा के पास खोने के लिए कुछ नहीं होता और पाने के लिए सारी दुनियां।
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