संगीत और कला को जब-जब बाँधने की कोशिश की जाती है वह बाँध तोड़कर आगे बढ़ जाती है । - कोठागोई
अपने अंदर बृहद कालखंड समेटे वाणी प्रकाशन द्वारा प्रकाशित प्रभात रंजन की किताब कोठगोई (चतुर्भुज स्थान के किस्से) एक ही बैठकी में पढ़ी जानेवाली एक ज़रुरी रचना है । समाज और समाजिकता के स्याह और धूसर पन्नों के इतिहास और किस्सागोई में लेखक की विभिन्न लोगों से साक्षात्कारों, गप्पों, स्मृतियों और तमाम इन्द्रियों के सहारे गोते लगाती यह एक सामाजिक विज्ञान की पुस्तक भी बन जाती है । जिसमें इतिहास का स्याह और सफ़ेद अध्याय है, किस्सा है, कहानी है, गप्प है, गल्प है, उपन्यास है, निबन्ध है, कवित्त है, गीत है, आत्मकथा है, संस्मरण आदि है । तो मूल बात यह कि इस पुस्तक को किस स्थापित श्रेणी में रखा जाय ? शायद कहीं नहीं या शायद हर जगह । वैसे भी कुछ चीज़ें और कुछ इंसान ऐसे होते हैं जो बने बनाए किसी भी खांचे और सांचे में फिट नहीं बैठते । वैसे सच कहूँ तो मेरे व्यक्तिगत अनुभव और समझ उतनी उन्नत भी नहीं है कि इसे किसी खांचे में डालके पैक कर दूँ । और फिर लोक इतिहास यथार्थ और कल्पना के सटीक मेल से ही तो बनता है; नहीं क्या ? यह सुनी, सुनाई और इस सुनने सुनाने से बनाई गई कथागोई है । “जितनी उसने सुनाई थी, जितनी मैंने उसके सुनाए से बनाई थी ।” – (कोठागोई, पृष्ठ – 169) क्या इसे ही रिसर्च वर्क कहा जाता है ? यदि नहीं तो किसे कहा जाएगा ?
वैसे पुस्तक की जड़ में मुज़फ्फरपुर (बिहार) का चतुर्भुज स्थान तो है लेकिन यहाँ मन में आनेवाले विचारों की तरह उन्मुक्त फैलाव भी है । जिसमें “अंधेरे-उजाले के बीच संगीत इबादत से पहले !”, “सुना गुना समझा जाना बुना !”, “ज़िंदगी उस पार जितनी ज़िंदगी उस पार है”, “गुमनाम कवि बदनाम गायिका, बाकि बाजत रसनचौकी”, “इज्ज़त उसे मिली जो वतन से निकल गया”, “दर्द का किस्सा यार बहुत है”, “पढ़ कर आगे जाना है अपना दाग मिटाना है”, “दर मिला मुझको दरबदर होकर”, “ब्लू कलर का पैंट पहनकर हैंड कमर में लाती हो”, “दुनियां दुनियां जीवन जीवन”, “अंतिम प्रणाम लोक देवता को”, आखिरी बात आदि कुल तेरह शीर्षकों के सहारे किस्से स्वतंत्र, रोचक और सहज तरीके से विचरण करते है; बिलकुल दादी, नानी और लोक कथाओं के कहानियों की तरह । यहाँ कथा है तो कथा कि परिकथा और उपकथा भी । कला है तो नंगा और क्रूर यथार्थ भी है, विषय है तो विषयान्तर भी, “विषय के नाम पर विषयान्तर, कथा के नाम पर कथान्तर !” (कोठागोई, पृष्ठ – 96), या “क्या कीजिएगा विषय के नाम पर विषयान्तर हो ही जाता है ।” (कोठागोई, पृष्ठ - 73) कई स्थान पर तो एक ही कथा के कई वर्जन भी हैं । बिलकुल वैसे ही जैसे एक ही घटना पर अलग-अलग व्यक्ति का वर्जन थोड़ा अलग होता है । सच्चाई, सहजता और यथार्थ भी तो यही है । यथार्थ के धरातल पर भी सच है तो उसमें कल्पना का मिश्रण भी कम नहीं । तो फिर ? सच-झूठ से ज़्यादा ज़रूरी नज़रिया हो जाता है । नजरिया समझ, अनुभव और ज्ञान से ही बनता है; तब जब दिल-दिमाग खुले हों और मन में सवाल उत्पन्न होते हों, दिल में बैचैनी का घर हो । साधारण जीवन जीना और बने बनाए ढर्रे पर रेलगाड़ी के डिब्बों की तरह चलते चले जाना मुश्किल हो सकता है, मज़ेदार तो कतई नहीं है । ठीक वैसे ही जैसे कान तो सबके पास होते ही हैं लेकिन सब “कनरसिया” नहीं होते । वैसे यहाँ कथाओं का अंत गुमनाम है या फिर अंत के कई किस्से ।
साधारण जिंदगियों की कहानियां भी बड़ी ही साधारण होतीं हैं । शायद जीवन भी अति साधारण ही होता होगा । चुनौतियों का क्या, वो तो हर किसी की सहयात्री होती ही हैं । अलग-अलग रुतवे के लोग अपनी अलग-अलग ज़रूरतों के लिए अलग-अलग चुनौतियों का सामना करते हैं । इसमें कोई खास बात नहीं । तो ? कहानियां होती हैं उनकी जो दुनियां के बीच रहकर भी कुछ अलग जीते हैं । अब यह जीवन खुशी से स्वीकारते हैं या मज़बूरी से यह बात और है । वैसे भी मनपसंद जीवन जीने का मौका और ज़ज्बा मिलाता ही कितने लोगों को है ?
किस्सागोई एक सांस्कृतिक दस्तावेज़ भी है गाने-बजाने, सीखने-सीखने, सुनने-सुनाने, गुनने-गुनाने, बेचने-खरीदने, प्रसिद्धि और फिर गुमनामी के अंधेरे कोने में दफ़न हो जाने को अभिशप्त ना जाने कितने लोगों और संस्कृतियों का । लेकिन जैसा की प्रामाणिक सत्य है कि कुछ भी पूरी तरह से कभी खत्म नहीं होता, बल्कि उसका स्वरूप बदल जाता है । यह बदलाव अच्छा भी हो सकता है और अच्छा नहीं भी हो सकता है । बदलाव के बहुत से कारक होते हैं – सांस्कृतिक, एतिहासिक, आर्थिक, राजनैतिक और पता नहीं क्या क्या ! बदलाव कभी अंदरूनी होता है तो कभी बाहरी, लेकिन दोनों ही एक दूसरे को प्रभावित तो करते हैं, इस तथ्य से कैसे इनकार किया जा सकता है । इस प्रकार कोठागोई चतुर्भुज स्थान की स्थापना से लेकर और न जाने कितने किस्से समेटते हुए उसके उत्थान-पतन की भी कथा कहता है ।
कोठागोई इस पुस्तक के लिए एकदम अनुकूल शीर्षक है । भाषाशास्त्री, भोलानाथ तिवारी, “शब्दों का जीवन” नामक पुस्तक में लिखते हैं – “शब्द जनमते हैं । जी हां, शब्द जनमते हैं । नयी घटनाएँ, नए विचार, नयी परम्पराएं, नयी वस्तु, प्रायः नए शब्द को जन्म देते हैं । पाकिस्तानियों ने 1965 में भारत में घुस-पैठ की और हिंदी में ‘घुस-पैठिया’ शब्द ने जन्म लिया । विभिन्न प्रलोभनों ने हमारे विधायकों को दल बदलने को मजबूर किया जिसका परिणाम था ‘दलबदलू’ शब्द का जन्म ।” कोठों का किस्सा सुनाने के लिए लेखक ने किस्सागोई नामक शब्द से प्रेरणा लेकर कोठागोई नामक शब्द की रचना की होगी या क्या पता यह शब्द पहले से प्रचलन में हो । लेकिन क्या कोठागोई केवल कोठे के किस्से तक ही सीमित है । नहीं, हरगिज़ नहीं । कथा का सूत्र किसी बरगद की जड़ की तरह चतुर्भुज स्थान से होकर ना जाने कितने देस-परदेस तक का सफ़र तय कर विभिन्न जाने अनजाने चरित्रों और घटनाओं के माध्यम से शब्दों के मार्फ़त अपनी यात्रा तय करता है ।
कोठागोई का किस्सा सूत्रधारात्मक (Narrative) है सदियों पुरानी प्रथा किस्सागोई की तरह । जिसका सूत्रधार निश्चित रूप से लेखक ही हैं । हलांकि यह भी विश्वास से कहना उचित नहीं होगा । हां, इतना ज़रूर कहा जा सकता है कि किस्से लेखक के मार्फ़त ही आते हैं । अब लो यह भी कोई बात हुई, किस्से लेखक के मार्फ़त ही तो आएंगें ना ! खैर, पुस्तक के शुरुआत ही में लेखक ने यह दावा पेश किया है कि “मैं चतुर्भुज की शपथ लेकर कहता हूँ कि इस पुस्तक में जो लिखा है सब झूठ है । इसमें झूठ के सिवा कुछ नहीं है ।” यह बड़ा अटपटा है । दरअसल, लेखक का यह कथन ही इस पुस्तक का सबसे बड़ा झूठ है । वही कुछ और विचार पुस्तक में बार-बार अन्य-अन्य तरीके से दुहराए जाते हैं जो निश्चित ही उपरोक्त कथन की बार-बार पुष्टिकरण ही करते हैं । वो भी इतनी बार की कई बार तो इस पुष्टिकरण पर ही संदेह होने लगता है । किसी ने सच ही कहा है कि इंसान एक बार झूठ का सहारा ले ले तो उसे बरकरार रखने के लिए बार-बार झूठ का सहारा लेना पड़ता है और हो सकता है कि अगला झूठ पिछले झूठ से बड़ा झूठ हो । इस प्रक्रिया में भय यह रहता है कि झूठ का एक बड़ा पुलिंदा ही न बन जाए । लेकिन इंसान की बात अलग है और लेखक की अलग । लेखक झूठ में सच और सच में झूठ की मिलावट न करे तो शायद कोई किस्सा ही न बने । इसी को नाट्यशास्त्र में भरतमुनि कथावस्तु (Plot) कहते हैं । जिसके तीन श्रोत होते हैं - प्रख्यात यानि किसी प्रसिद्द कथा को विषय बनाकर लिखा गया । उत्पाध यानि किसी काल्पनिक कथा वस्तु को आधार बनाकर लिखा गया । मिश्रित यानि प्रसिद्ध तथा काल्पनिक कथा वस्तु को मिलाकर लिखा गया । हालाकिं भरतमुनि यह बात नाटक के सन्दर्भ में कह रहे हैं लेकिन क्या कथा, कहानियों व उपन्यासों आदि का भी सच यही या इसी के आसपास नहीं है ? वैसे “सच - झूठ होता क्या है ? अपना अपना नज़रिया है । --- जो हमें अच्छा लगता है हम उसे सच मान लेते हैं । --- सच असल में कुछ होता नहीं, अपने-अपने सोच की सुविधा होती है ।” (कोठागोई, पृष्ट - 57)
तो क्या कोठागोई का सच फार्स और काल्पनिकता है ? नहीं, हरगिज़ नहीं ! बल्कि यहाँ रचनात्मक सच है । भारतीय परम्परा में जिसे काव्यात्मक सच (Poetic Truth) कहा गया है । यह सच झूठ से परे एक विश्वास है । जिसकी अन्तःप्रेरणा है कथ्य । इसी कथ्य को अभिव्यक्त करने के लिए रचनाकार रचनात्मक सच रचता है । इसे सच नहीं, सच का एहसास (Sense of Truth) कहें तो ज़्यादा बेहतर होगा । यहाँ पाठ नहीं बल्कि समय, काल, स्थिति और परिवेश आदि ज़्यादा महत्वपूर्ण हो जाते हैं । यहाँ जितना इतिहास है उतना ही गप्प भी । जितना सच लगभग उतनी ही गल्प । निरा गप्प भी नहीं बल्कि चुन-चुनकर सजाया हुआ, इतिहास के पन्नों से निकाला और कुरेदा हुआ गप्प । जिसके केन्द्र में हैं एक पूरी की पूरी कला और पल-पल बदलता, टूटता, बिखरता और समृद्ध होता या तबाह होता नंगा यथार्थ । सामाजिक मान्यताओं ने जिसे बदनाम का नाम दे रखा था लेकिन उसका रस भी इसी समाज ने जम के चूसा और जब सारा गूदा खत्म हो गया तो आम की गुठली की मानिंद चतुर्भुज स्थान से बाहर फेंक दिया और किसी नए मनबहलाव की खोज में व्यस्त हो गया । वैसे कुछ आमों की किस्मत में चूसा जाना भी नहीं होता बल्कि वो वही पड़े-पड़े कुढ़ते-खीजते और अंततः कुम्हलाते हुए किसी अंधेरे कोने में गुम हो जाते हैं; तो कुछ चुसे जाने के बाद ज़मीन के सहारे एक नया पौधा बन जीवन प्राप्त करते हैं । यह सच है कोई हैरत की बात नहीं । वैसे भी “जब यथार्थ ही इतना अविश्वसनीय हो चला हो तो ऐसे में किसी भी बात पर हैरत नहीं होना चाहिए ।” (कोठागोई, पृष्ठ – 184)
कोठागोई, कोठे के मार्फ़त समाज की कथा कहता है । इसे ऐसे भी कहें तो गलत नहीं कि कोठागोई समाज के मार्फ़त कोठे की कथा कहता है । या फिर इसे यूं भी कहा जा सकता है कि कोठागोई कथाएँ कहता है जिसमें इतिहास, भूगोल, समाजशास्त्र, समाज विज्ञान, कोठा, सांस्कृतिक परम्परा, कला, देह, रुतबा, रूपया आदि और पता नहीं क्या-क्या समाहित होता जाता है । नहीं; इसे ऐसे भी कहा जा सकता है कि कोठागोई एक पेड़ है जिसकी जड़ तो एक है, लेकिन कई टहनियाँ हैं और अनगिनत नए, पुराने, सूखे, हरियाते, गिरे तुड़े पत्ते हैं ।
बाकी इस किताब के बारे में और क्या-क्या और लिखा जाना चाहिए मुझे नहीं पता । निश्चित रूप से इस पुस्तक में भी कई छेद होंगे ही, होने भी चाहिए । सम्पूर्ण तो आजतक कुछ हुआ ही नहीं है । लेकिन अभी तो इसके पहले प्यार में अभिभूत हूँ और प्यार जब नया नया होता है तो बस खुमारी ही खुमारी होती है । वहां कमजोरियों और बेतुकेपन पर भी प्यार ही आता है । जैसे प्रूफ की गडबड़ी के कारण शारदा सिन्हा, शारदा सिंह हो जाती हैं । अच्छा, क्या यह बात हमारे समय की सच्चाई बन चुकी है कि अब अच्छे प्रूफ रीडर बहुत ही कम हैं और प्रकाशकों ने लेखक को ही यह सारा काम करने को अभिशप्त कर दिया है ? वही एकाध जगह नैरेशन में अंगेजी के शब्दों का प्रयोग भी खटकता है । लेकिन यह सब छोटी-मोटी बातें हैं जिसे अगले संस्करण (यदि छपा तो !) में आराम से दुरुस्त किया जा सकता है ।
कोठागोई गुमनाम जगहों और लोगों का किस्सा है । जो काल्पनिक नहीं बल्कि यथार्थ है – नंगा यथार्थ । हम इसे स्वीकारें न स्वीकारें यह अलग बात है । वैसे भी “शाम होते ही मर्द बाहर निकल आते हैं और घर बाज़ार बन जाते हैं । दिन में वे घर होते हैं, पुरुष होते हैं, बच्चे होते हैं, शाम को बस बाज़ार । कुछ खरीदार होते हैं, कुछ तफरीहदार ।” (कोठागोई, पृष्ठ – 91) सच यह है कि दुनियां बाज़ार में तेज़ी से तबदील होती जा रही है और इंसान उपभोक्ता के रूप में परिवर्तित होने को अभिशप्त । लेकिन इस सच को स्वीकारने के लिए बहुत कम लोग तैयार है । अब यह अज्ञानता है, अनभिज्ञता, तटस्था, अक्खड़ता, अहम् या कुछ और या सब कुछ, या कुछ भी नहीं; कौन जाने ? बहरहाल –
शोहरत-वोहरत इज्ज़त-विज्जत जिसको चाहे मिल जाये
चादर-वादर दौलत-वौलत जिसको चाहे मिल जाए
सच्चे फनकारों को कदरदां हर टेशन पर मिल जाए
बाकि तो सब फाव की दौलत जिसको चाहे मिल जाए
तो अंत में बस इतना ही कि कोठागोई पढ़िए और मेरी लिखी सारी बातों को सिरे से ख़ारिज कर दीजिए मुझे ज़रा भी दुःख नहीं होगा – सच्ची-मुच्ची । चतुर्भुज स्थान की कसम । लेकिन बिना पढ़े खारिज़ करेंगें तो किसी का भला नहीं होनेवाला, आपका भी नहीं । वैसे लगे हाथ यह भी बता ही दूँ कि कसम उसम पर मेरा कोई यकीन नहीं है । वैसे भी “जीवन के उमंग से जगानेवाली आवाज़ें कभी अमर नहीं होतीं । उनका मरना ही उनकी नियति है शायद । जिनका कोई नाम नहीं होता उनका गुम हो जाना ही उनकी नियति होती है । हम बस खोज सकते हैं । उनको जो गुम हो गए ।” (कोठागोई, पृष्ठ – 65)
कोठागोई (चतुर्भुज स्थान के किस्से), लेखक – प्रभात रंजन, प्रकाशक – वाणी प्रकाशन, मूल्य 295 रुपया
पाखी में प्रकाशित
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