एक पुरानी भारतीय कहावत है कि पैसा अपने साथ बहुत सारी बुराइयों को भी लाता है। एक समय ऐसा भी था जब बिहार के कम्युनिस्ट पार्टियों के पास पैसा था ही नहीं। लेवी और विभिन्न प्रकार के टेक्स लेने का पेशा अभी शुरू नहीं हुआ था। कैडरों की ईमानदार, प्रतिबद्धता और जूनून और मेहनतकश जनता की एकता और अपने नेता पर उनका विश्वास ही उनकी कुल जमा पूंजी थी। आज का हाल तो खैर सबको पता है ही।
तो उसी ईमानदार काल का एक किस्सा कुछ यूं है – किसी इलाके के में पर्चा छपना था। पहले पर्चे का ड्राफ्ट तैयार किया गया। उस ड्राफ्ट को कुछ लोगों के बीच (जिनमें ग्रामीण ज़्यादा थे, नेता एक या दो) पढ़ा गया। फिर जो सुधार लोगों ने सुझाया उसे ठीक लगने पर दुरुस्त किया गया। फिर गाँव में चंदा किया गया। गांव क्या था कुछ झोपड़ियों से सुशोभित दलितों की बस्ती थी। रोज़ कुआँ खोदना और रोज़ पानी पीना यही उनकी ज़िंदगी थी। तो ऐसी बस्ती में चंदे के रूप में नगदी की कल्पना तो किया ही नहीं जा सकता है। वहां चंदे के रूप में वह अनाज ही मिलता जो औरत, मर्द रोज़ कमाकर या मेहनत से कमाए पैसे से खरीदकर लाते थे।
हम बच्चों को यह ज़िम्मेवारी मिलती थी कि कई प्रकार का झोला लेकर शाम के समय बस्ती में दरवाज़े दरवाज़े जाते और लोग उसमें अपनी मुट्ठी से चावल, दाल, आंटा आदि चीजें डालते। फिर उसको दूकान में बेचा जाता और उससे जो पैसा मिलता उससे पर्चा छप के आता। पर्चा जब छपकर हाथ में आता तो वह किसी अनमोल धरोहर से कम नहीं होता।
पर्चा चुकी बहुत ही कम छप पता था तो हर गांव के हिस्से कुछ दर्जन पर्चे ही आते; जिसे लोग किसी अमानत की तरह संभालकर पढ़ते। अमूमन कोशिश यह किया जाता कि शाम में सबको बुलाकर यह पर्चा पढ़कर सुनाया जाय और बाकि पर्चे को बांटने के काम में लाया जाय। फिर भी कुछ लोग ऐसे थे जो अपने हाथों से पढ़ते। जो पढ़ सकते थे खुद पढ़ते और जो नहीं पढ़ सकते थे वो हम जैसे किसी बच्चे को पकड़कर पढ़वाते और बीच-बीच में हां-हूँ करते रहते। कहीं कुछ नहीं समझ में आने पर उस पंक्ति को बार-बार पढ़वाते। जब पर्चा पढ़ लिया जाता तो उसे किसी और को पढ़ने के लिए सौंप दिया जाता।
उस काल में कोई पर्चा फेंका हुआ पा लिया जाना एक बहुत बड़ी घटना थी और ऐसी घटनाएं शायद ही कभी हुईं।
केवल पर्चा ही नहीं बल्कि बैनर और पोस्टर भी ऐसे ही बनाए जाते। कूट (गत्ता) पर सदा कागज़ चिपकाया जाता और उस पर दातुन की कुंची बनाकर नारे लिखे जाते और उसे बांस के फट्ठे या किसी सीधे डंडे में किसी पतली रस्सी की सहायता से बड़ी ही सफाई से बंधा जाता।
बैनर के लिए लाल कपड़ा और एल्युम्युनियम पेंट का छोटा सा डब्बा ख़रीदा जाता और उसे अपने हाथों से बनाया जाता। दीवाल लेखन भी कुछ ऐसे ही होता था। टीन के छोटे-छोटे डब्बे में होली में इस्तेमाल होने वाले रंगों को थोड़ा गढा मिलाया जाता और उसे बबूल के दातून की कुंची बनाकर दीवाल पर लिखा जाता।
अब तो पर्चा कौन लिखता है, कैसे छपता है और कब बाँट दिया जाता है, किसी को कुछ पता ही नहीं चलता। बैनर, पोस्टर तो अब प्रोफेशनल ही बनाते हैं। सबकुछ एक रहस्य की तरह हो गया है। पर्चे पर वाद-विवाद तो अब दूर की बात है। लेकिन यह परम्परा हार जगह से खत्म हो गई है; ऐसा भी नहीं है। खैर, सन 1985 से 95 के बीच घटित यह पुरी घटना सुनाने के पीछे मेरा स्वार्थ केवल इतना है कि इस पुरे प्रकरण से ही मैंने पेंट और ब्रश से लिखना (कैलीग्राफी) सीखा और आज तो काफ़ी ठीक-ठाक लिख लेता हूँ। मैंने अपने नाटकों में भी मैंने अपनी इस कला का खूब इस्तेमाल किया। शुक्रिया कॉमरेड्स और जनता।
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