दस्तक की प्रस्तुति सुदामा पांडेय “धूमिल” लिखित
पटकथा
आशुतोष अभिज्ञ का एकल अभिनय
प्रस्तुति नियंत्रक – अशोक कुमार सिन्हा एवं अजय कुमार
ध्वनि संचालन – आकाश कुमार
पोस्टर/ब्रोशर – प्रदीप्त मिश्रा
पूर्वाभ्यास प्रभारी – रानू बाबू
प्रकाश परिकल्पना – पुंज प्रकाश
सहयोग – हरिशंकर रवि, राहुल कुमार,
राग, विश्वा, बिहार आर्ट थियेटर व पटना के तमाम रंगकर्मी.
परिकल्पना व निर्देशन - पुंज प्रकाश
पटकथा के बारे में
पटकथा हिंदी साहित्य की प्रतिष्ठित लंबी कविताओं में से एक है जो आम अवाम
के सपने, देश की आज़ादी और उसके सपनों के बिखराव की पड़ताल करती है। देश की आज़ादी से
देश आम आवाम ने भी कुछ सपने पाल रखे थे किन्तु उनके सपने पुरे से ज़्यादा अधूरे रह गए।
अब अपनी ही चुनी सरकार कभी क्षेत्रीय हित, साम्प्रदायिकता, तो कभी धर्म, भाषा,
सुरक्षा, तो कभी लुभावने जुमलों के नाम पर लोगों और उनके सपनों का दोहन कर रही है।
इस कविता के माध्यम से धूमिल व्यवस्था के इसी शोषण चक्र को उजागर करने के साथ ही लोगो
को नया सोचने, समझने तथा विचारयुक्त होकर सामाजिक विसंगतियो को दूर करने की
प्रेरणा भी देते हैं। कहा जा सकता है कि पटकथा प्रजातंत्र के नाम पर खुली भिन्न –
भिन्न प्रकार के बेवफाई की बेरहम दुकानों से मोहभंग और कुछ नया रचने के आह्वान की
कविता है। यह कविता बेरहमी, बेदर्दी और बेबाकी से कई धाराओं और विचारधाराओं और
उसके नाम के माला जाप करने वालों के चेहरे से नकाब हटाने का काम करती है; वहीं आम
आदमी की अज्ञानता-युक्त शराफत भरी कायरता पर भी क्रूरता पूर्वक सवाल करती है।
नाट्य दल के बारे में
रंगकर्मियों को सृजनात्मक, सकारात्मक माहौल एवं
रंगप्रेमियों को सार्थक, सृजनात्मक और उद्देश्यपूर्ण मनोरंजन प्रदान करने के
उद्देश्य से “दस्तक” की स्थापना सन 2 दिसम्बर 2002 को हुई। दस्तक
ने अब तक मेरे सपने वापस करो (संजय कुंदन की कहानी), गुजरात (गुजरात दंगे पर
आधारित विभिन्न कवियों की कविताओं पर आधारित नाटक), करप्शन जिंदाबाद, हाय सपना रे
(मेगुअल द सर्वानते के विश्वप्रसिद्ध उपन्यास Don
Quixote पर आधारित नाटक), राम सजीवन की प्रेम कथा (उदय प्रकाश की
कहानी), एक लड़की पांच दीवाने (हरिशंकर परसाई की कहानी), एक और दुर्घटना (दरियो फ़ो
लिखित नाटक) आदि नाटकों का कुशलतापूर्वक मंचन किया है।
दस्तक का उद्देश्य केवल
नाटकों का मंचन करना ही नहीं बल्कि कलाकारों के शारीरिक, बौधिक व कलात्मक स्तर को
परिष्कृत करना और नाट्यप्रेमियों तक समसामयिक और सार्थक रचनाओं की नाट्य प्रस्तुति
प्रस्तुत करना भी है। रंगमंच एवं विभिन्न कला माध्यमों पर
आधारित ब्लॉग मंडली का भी संचालन दस्तक द्वारा किया जाता है।
धूमिल का जन्म वाराणसी
के पास खेवली गांव में हुआ था। उनका मूल नाम सुदामा पांडेय था। सन्
1958 में आईटीआई (वाराणसी) से विद्युत डिप्लोमा लेकर वे वहीं विद्युत अनुदेशक बन गये। 38 वर्ष की अल्पायु मे ही ब्रेन ट्यूमर से उनकी मृत्यु हो गई। मरणोपरांत उन्हें 1979
में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
धूमिल हिंदी की समकालीन कविता के दौर के मील के पत्थर सरीखे कवियों में एक
है। उनकी कविताओं में आजादी के सपनों के मोहभंग की पीड़ा और आक्रोश की सशक्त
अभिव्यक्ति मिलती है। व्यवस्था जिसने जनता को छला है, उसको आइना दिखाना मानों
धूमिल की कविताओं का परम लक्ष्य है।
सन 1960 के बाद की हिंदी कविता में जिस मोहभंग की शुरूआत हुई
थी, धूमिल उसकी अभिव्यक्ति करने वाले अंत्यत प्रभावशाली कवि है। उनकी कविता में
परंपरा, सभ्यता, सुरुचि, शालीनता और भद्रता का विरोध है, क्योंकि इन सबकी आड़ में
जो हृदय पलता है, उसे धूमिल पहचानते हैं। कवि धूमिल यह भी जानते हैं कि व्यवस्था अपनी
रक्षा के लिये इन सबका उपयोग करती है, इसलिये वे इन सबका विरोध करते हैं। इस विरोध
के कारण उनकी कविता में एक प्रकार की आक्रमकता मिलती है। किंतु उससे उनकी कविता की
प्रभावशीलता बढती है। धूमिल अकविता आन्दोलन के प्रमुख कवियों में से एक हैं। वो
अपनी कविता के माध्यम से एक ऐसी काव्य भाषा विकसित करते है जो नई कविता के दौर की
काव्य- भाषा की रुमानियत, अतिशय कल्पनाशीलता और जटिल बिंबधर्मिता से मुक्त है।
उनकी भाषा काव्य-सत्य को जीवन सत्य के अधिकाधिक निकट लाती है। इनके कुल तीन
काव्य-संग्रह प्रकाशित हैं - संसद से सड़क तक, कल
सुनना मुझे और सुदामा पांडे का प्रजातंत्र।
आशुतोष
अभिज्ञ; पटना विश्वविद्यालय से अर्थशास्त्र विषय में ऑनर्स और पिछले लगभग सात
वर्षों से नाट्य अभिनय के क्षेत्र में कार्यरत हैं। इस अवधी में इन्होने अब तक कई
शौकिया और व्यावसायिक नाट्य दलों के साथ अभिनय किया। रंगमंच के क्षेत्र में
संस्कृति मंत्रालय, भारत सरकार द्वारा वर्ष 2008-10 का
यंग आर्टिस्ट स्कॉलरशिप अवार्ड से भी सम्मानित। इनके द्वारा अभिनीत उल्लेखनीय
नाटकों में रोमियो जूलियट और अंधेरा, होली, डाकघर, जहाजी, बाबूजी, दुलारी बाई,
हमज़मीन, निमोछिया, एन इवनिंग ट्री, अगली शताब्दी में प्यार का रिहर्सल, बेबी,
उसने कहा था, नटमेठिया आदि प्रमुख हैं।
निर्देशक के बारे में
सन 1994 से रंगमंच के क्षेत्र में लगातार सक्रिय अभिनेता, निर्देशक, लेखक, अभिनय
प्रशिक्षक। मगध विश्वविद्यालय से इतिहास विषय में ऑनर्स। नाट्यदल दस्तक के
संस्थापक सदस्य। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय, नई दिल्ली के सत्र 2004 – 07 में अभिनय विषय में विशेषज्ञता। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय रंगमंडल में सन 2007-12 तक बतौर अभिनेता कार्यरत। अब तक देश के कई प्रतिष्ठित अभिनेताओं,
रंगकर्मियों के साथ कार्य। एक और दुर्घटना, मरणोपरांत, एक था गधा, अंधेर नगरी, ये
आदमी ये चूहे, मेरे सपने वापस करो, गुजरात, हाय सपना रे, लीला नंदलाल की, राम सजीवन
की प्रेमकथा, पॉल गोमरा का स्कूटर, चरणदास चोर, जो रात हमने गुजारी मरके आदि नाट्य
प्रस्तुतियों का निर्देशन तथा कई नाटकों की प्रकाश परिकल्पना, रूप सज्जा एवं संगीत
निर्देशन। कृशन चंदर के उपन्यास दादर पुल के बच्चे, महाश्वेता देवी का उपन्यास
बनिया बहू, फणीश्वरनाथ रेणु का उपन्यास परती परिकथा एवं कहानी तीसरी कसम व
रसप्रिया पर आधारित नाटक तीसरी कसम, संजीव के उपन्यास सूत्रधार, भिखारी
ठाकुर रचनावली, कबीर के निर्गुण, रामचरितमानस को आधार बनाकर भिखारी
ठाकुर के जीवन व रचनाकर्म पर आधारित नाटक नटमेठिया सहित मौलिक नाटक भूख और विंडो
उर्फ़ खिड़की जो बंद रहती है का लेखन।
देश के विभिन्न
प्रतिष्ठित पत्र - पत्रिकाओं मे रंगमंच, फिल्म व अन्य सामाजिक विषयों पर लेखों के
प्रकाशन के साथ ही साथ कहानियों और कविताओं का भी लेखन व प्रकाशन। वर्तमान में
रंगमंच की कुरीतियों पर आधारित व्यंग्य पुस्तक आधुनिक नाट्यशास्त्र उर्फ़ रंगमंच की
आखिरी किताब की रचना सहित कई नाटकों के अभिनय में व्यस्त हैं। रंगमंच सहित विभिन्न
सामाजिक, आर्थिक, साहित्यिक विषयों पर आधारी डायरी (www.daayari.bolgspot.com) नामक ब्लॉग के ब्लॉगर और पठन
– पाठन और लेखन में विशेष रूचि रखनेवाले एक स्वतंत्र, यायावर
रंगकर्मी, लेखक व अभिनय प्रशिक्षक के रूप में सतत कार्यरत हैं।
निर्देशकीय
- पटकथा के बहाने
हिंदी रंगमंच में
ग्रुप थियेटर पतन के साथ ही साथ सिखाने – सिखाने की
समृद्ध परंपरा का भी सबसे ज़्यादा ह्रास हुआ है। विभिन्न प्रकार के महोत्सवों ने एक
ओर जहाँ नाटकों की प्रस्तुति की संख्या में इजाफा तो किया है लेकिन एक खास प्रकार
का गणित भी रचा है, जिसमें नाटक एक उत्पाद के रूप में विकसित
हो रहा है और निर्देशक प्रबंधक के रूप में परिवर्तित होने को भी अभिशप्त हुआ है।
नाटकों का आदान – प्रदान भी शुरू हुआ है और निर्देशक यात्रा
को ध्यान में रखकर भी नाटकों की परिकल्पना करने लगे हैं। वहीं अब लोगों के पास
अभिनेता को प्रशिक्षित करने का समय नहीं है। वहीं ऐसे अभिनेताओं की पुरी की पुरी
जामत इकठ्ठा हो गई है जो सीखने – सीखाने के बजाय खाने –
कमाने को ज़्यादा तबज्जो देते हैं।
सवाल यह कि एक पेशेवर
परिकल्पक और निर्देशक अभिनेता प्रशिक्षण में अपना वक्त जाया क्यों करे? क्या यह उसका काम है? बिलकुल नहीं। फिर ग्रुप थियेटर
तो है नहीं कि संस्थाओं के सदस्य होगें और वही इस समूह के नाटकों में अभिनय
करेंगें। अब निर्देशक या परिकल्पक अपनी ज़रूरत के अनुसार अभिनेताओं को जमा करता और
नाटक रूपी एक प्रोडक्ट तैयार करता है। ऐसे समय में अभिनय प्रशिक्षण का काम निश्चित
रूप से अनुभवी अभिनेताओं और अभिनय प्रशिक्षकों को ही करना चाहिए क्योंकि इस तथाकथित
पेशेवर समय में परिकल्पक और निर्देशक अभिनय और उससे जुडी समस्याओं के जानकार हों,
यह ज़रूरी नहीं। वैसे भी जिसका जो कार्य है उसे ही वह शोभता है;
और फिर इस बात से इनकार नहीं किया जाना चाहिए कि अभिनय प्रशिक्षण
अपने आपमें एक अलग और बृहद विषय है।
इन्हीं सब बातों को
ध्यान में रखते हुए हमने अभिनेता के साथ अलग से कार्य करना शुरू किया और योजना
बनाई कि जो भी अभिनेता सीखने – सिखाने की परंपरा में
विश्वास रखता हो और पूरी लग्न और मेहनत से रंगमंच की बारीकियां समझने को तत्पर हो,
उनके साथ कार्य किया जाय। इसी सोच की परिणति है यह प्रस्तुति। यहाँ
प्रस्तुति की सफलता – असफलता से ज्यादा महत्व निश्चित रूप से
प्रक्रिया की है; कम से कम हमारे लिए तो है ही।
एक कवि ह्रदय अक्खड़
व्यक्ति और वर्तमान राजनितिक परिवेश की विडम्बनाओं को प्रतिविम्बित करता हिंदी के
प्रसिद्द कवि धूमिल लिखित इस चर्चित कविता को केवल एक अभिनेता के साथ प्रस्तुत
करना निश्चित ही एक दुरूह कार्य है। लेकिन मज़ा तो न सध पाने वाली बातों को ही
साधने में है। हमने तो अपनी बुद्दी, विवेक और
समझ से इसकी लगाम साधते और कलात्मक चुनौतियों का सामना करते हुए भरपूर पीड़ादायक
आनंद और तनावपूर्ण रचनाशीलता का मज़ा लिया। उम्मीद है यह अनुभूति आप तक भी पहुंचे।
बहरहाल, महीनों समझने, बुझने, गुनने और पसीना बहाने के पश्चात् जो कुछ भी बन पड़ा अब आपके समक्ष प्रस्तुत
है। हाँ एक बात तो निश्चित है कि “मनोरंजन” मात्र हमारा उदेश्य को कदापि नहीं है।
प्रस्तुति के उद्देश्य को समझकर अपने विवेक से निर्णय करना आपका अधिकार है और सदा रहेगा।
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