सत्ता, संघर्ष और मानव संस्कृति का इतिहास भी लगभग विश्व
इतिहास के जितना ही पुराना है। आज का मानव समाज जहाँ खड़ा है वह विभिन्न एतिहासिक
कालों और संघर्षों से श्रम के सहारे ही गुज़रकर इस मुकाम पर पहुंचा है। इतिहास की
पुस्तकों में इसे अलग – अलग नामों से पढ़ाया भी जाता है। अलग - अलग कालों में सत्ता
और संस्कृति की अच्छाई, बुराई और चुनौतियाँ अलग – अलग रहीं हैं। लेकिन कथित या
तथाकथित रूप से सत्ता से आम जन का सीधा – सीधा जुड़ाव प्रजातंत्र नामक व्यवस्था के
उपरांत ही देखने को मिलता है। वही सत्ता की संस्कृति और आम जन की संस्कृति का
मेल-मिलाप और विभिन्न प्रकार के विरोधाभास भी सामने आते है। वहीं वामपंथ के आगमन
के साथ ही जनवादी संस्कृति जैसे शब्द भी सुनाई पड़ने लगता है और यह मान्यता भी
प्रखर रूप से सामने आती है कि असली जनवादी संस्कृति अक्सर सत्ता के विरोध या
विपक्ष का काम करती है।
प्रसिद्द नाट्य चिन्तक नेमिचंद्र जैन का “सत्ता और संस्कृति”
नामक एक आलेख है। यह आलेख सभी संस्कृतिकर्मियों को ज़रूर पढ़ना चाहिए और खासकर उनको
जो यह मानते हैं कि कला, संस्कृति, साहित्य आदि स्वभाव से ही सत्ता विरोधी होते
हैं; और असली संस्कृति वही है जिसका मूल चरित्र सत्ता विरोधी हो। वहीं ऐसी मान्यता
वालों की भी कोई कमी नहीं जो यह मानते हैं कि सत्ता का हस्तक्षेप या संरक्षण
कला-संस्कृति को अनिवार्य रूप से भ्रष्ट करता है इसलिए संस्कृतिकर्मी या कलाकार को
सत्ता से कोई सरोकार नहीं रखना चाहिए; कला साहित्य की पवित्रता की रक्षा के लिए यह
एकदम ज़रूरी है। तो कुछ लोग यह भी मानते हैं कि समाज में दो संस्कृतियाँ होती हैं -
एक सत्ताधारी अर्थात शोषक वर्ग की और दूसरी क्रांतिकारी अर्थात शोषित वर्ग की और
असली संस्कृति वही है जो सत्ताधारी वर्ग और उसकी संस्कृति से निरंतर संघर्ष करके
शोषित वर्ग की सत्ता और संस्कृति की स्थापना में हाथ बंटाती है। नेमिचंद्र जैन इन
सारी बातों का तर्क और उदाहरणों के साथ खंडन करते हैं और इन मान्यताओं को मानने
वालों को कोरा भावुक, चतुर, सतही, भोला या पाखंडी मानते हैं क्योंकि इन बातों में
एतिहासिक सच्चाई नहीं है। यदि यह सच होता तो विश्व इतिहास के उन महान लेखकों –
कलाकारों का तो वजूद ही नहीं होना चाहिए था जो सामंतवाद काल में और सत्ता के नजदीक
रहकर एक से एक महत्वपूर्ण रचनाएँ कीं।
वर्तमान में भी सरकारी संस्थानों और उससे मिलनेवाले सहयोगों
के लेकर खुद को जनवादी संस्कृति के वाहक मानने वाले समूहों और लोगों में एक खास
किस्म का हिकारत का भाव है। वहीं सरकारी नौकरियां करनेवाले से इन्हें कोई परहेज़
नहीं। ऐसे लोग इन समूहों के न केवल सदस्य हैं बल्कि बड़े-बड़े पदों पर भी विराजमान
हैं। लेकिन यहाँ भी शायद पदाधिकारियों और सामान्य कार्यकर्ताओं के लिए अलग-अलग
नियमावली हैं। लिखित रूप में न सही व्याहारिक रूप में तो हैं हीं। वैसे भी इन
समूहों में जो आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर नहीं है उनकी स्थिति निहायत ही दैनीय ही
है और वो आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर कार्यकर्ताओं के दबंगई को सहना पड़ता है।
ऐसे ही एक समूह के एक सदस्य ने नाटक के लिए सरकारी ग्रांट लिया
तो उसको दल से निकालने तक के लिए बैठक पर बैठक की जाने लगी जबकि उसकी खस्ता माली
हालत पर ज़िम्मेवारी तो दूर, किसी ने उस विषय पर तनिक भी चिंता करना तक ज़रुरी नहीं
समझा। नेमीचंद जैन कहते हैं – “इस मामले में वामपंथियों का रवैया पूरी तरह से
दोमुंहा है। एक ओर वे संस्कृति को स्वभाव से सत्ता - विरोधी माननेवालों के साथ बड़े
उत्साह से शामिल होते हैं और दूसरी ओर वो अपनी (और अपने जैसों – लेखक) सरकारों के
सांस्कृतिक कार्यक्रमों के समर्थक हैं।”
अब तो कई सारे जनवादी संस्कृति के वाहक दल और व्यक्ति NGO के
रूप में परिवर्तित हो गए हैं। एक तरफ सरकारी और अन्य गैरसरकारी माध्यमों से मोटी
रकम उठा रहे हैं वहीं मौके बे-मौके जनवाद का ढोल भी बजाते रहते हैं। नुक्कड़ नाटक
विधा में विशेषज्ञता की वजह से प्रचार-प्रसार के लिए कई सारे सरकारी और गैर
कंपनियों का काम भी इन्हें आसानी से मिल जाते हैं। दुखद सच तो यह भी है कि जनवाद
के कुछ ठेकेदार कई शहरों और गांव में दलाली नामक नई “जनवादी” विधा के सबसे बड़े
पैरोकार भी बनकर उभरें हैं। यह उनकी आर्थिक मजबूरी हो सकती है लेकिन मजबूरियां
संविधान नहीं हो सकतीं।
नेमिचंद्र जैन सवाल करते हैं कि “संस्कृति और सत्ता के
सम्बन्ध को लेकर सस्ती जुमलेबाज़ी करने से पहले हमें अपने आप से पूछना चाहिए कि
क्या हम सचमुच चाहते हैं कि सरकार ने जो सांस्कृतिक संस्थान स्थापित किए हैं,
उन्हें बंद कर दिया जाय और संस्कृति के क्षेत्र में कोई साधन सुलभ न कराए?” सत्ता
के बारे में वह लिखते हैं कि “निस्संदेह, सत्ता हाथ में आने पर सत्ताधारी अनेक बार
उसे अपना जन्मसिद्ध अधिकार मानने लगते हैं, स्वार्थ साधन में लग जाते हैं, या
निरंकुश होकर सत्ता की स्थापना के मूल उद्देश्य को ही नष्ट करने लगते हैं। ऐसी
हालत में उससे हटाकर सत्ता की कोई दूसरी व्यवस्था आवश्यक हो जाती है। --- जो भी
सत्ता मौजूद हो, उसकी ज़िम्मेदारी और एक गैर ज़िम्मेदार सत्ता को बदलने की ज़रूरत के
बीच फर्क करना बहुत ही आवश्यक है। यह न कर सकने से ही बहुत से खोखले विचार और नारे
पैदा होते हैं।”
लेख के आखिर में वो लिखते हैं कि “अगर संस्कृति को सत्ता का
पिछलगुआ बनना धातक है तो उतना ही आत्मघाती है उसे किसी राजनैतिक पार्टी, कार्यक्रम
या विचारधारा का पिछलगुआ बनाना। यह एक विडम्बना ही है कि अपने आपको वैज्ञानिक
चिंतन के हामी माननेवाले भी इस तरह के ढोंगी दोमुहें आचरण तथा वैचारिक खोखलेपन से
अपने आपको मुक्त नहीं कर पाते।”
अब थोड़ी सी पड़ताल जनवाद भी किया ही जाना चाहिए। जन का क्या
अर्थ होता है? क्या जन का अर्थ केवल मेहनकश वर्ग है? तो क्या बाकि लोग जन नहीं
हैं? यह समूह जब ब्रेख्त के नाटकों का मंचन करते हैं तो वह जनवादी नाटक हो जाता है
और कोई और करे तो कलावादी! यह दोहरापन एक पाखंड नहीं तो और क्या है? जनता और जनवाद
की इनकी व्याख्या एक खास प्रकार की संकीर्णता युक्त नहीं तो और क्या है? इनकी
संकीर्णता का आलम तो यह है कि यह वाद्यों तक को सामंती और सर्वहारा बना देते हैं। मसलन
सितार सामंती मानसिकता का परिचायक है और नगाडा जनवादी मानसिकता का। सितार से जो
ध्वनि निकलती है वह सामंतवाद की ध्वनि होती है और नगाड़े से निकलने वाली जनवाद की? ऐसी
मान्यताओं वाले लोग खुद तो हास्यास्पद होते ही हैं और अपने साथ उस वैज्ञानिक विचारधारा
को भी हास्यास्पद बना देते हैं जो हज़ारों फूलों को खिलने दो जैसा सिद्धांत मानता
है।
जहाँ तक सवाल कला और साहित्य है तो उसके लिए प्रसिद्द नाटककार
दरियो फ़ो का यह कथा ही काफी है कि “एक रंगमंचीय, एक साहित्यिक,
एक कलात्मक अभिव्यक्ति जो अपने समय के लिए नहीं बोलती, उसकी कोई प्रासंगिकता नहीं
है।” फ़ो के इस कथन में क्या जनवादिता नहीं है?
अपने माथे पर किसी फलाने
वाद का तमगा भर लगा लेने से कोई जनवादी और प्रासंगिक नहीं हो जाता? जनवाद और
प्रासंगिकता एक गंभीर और व्यापक विषय है। अ-गंभीर, संकीर्ण, मूढ़ और स्वार्थी लोगों
को केवल अपने और अपनों का फ़ायदा नुकसान दिखता है। वो अगर जन और जनवाद की बात करते
भी हैं तो यह उनका केवल एक छलावा मात्र है। ऐसे लोग न केवल जन और जनवाद के कट्टर
और सबसे बड़े शत्रु हैं बल्कि उस विचार को भी संकीर्ण कर देते हैं जिन्हें मानने का
दंभ ये भरते हैं।
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