Friday, January 29, 2016

हिंदी रंगमंच और महाभोज


हाय, हाय ! मैंने उन्हें देख लिया नंगा, इसकी मुझे और सजा मिलेगी  । – अंधेरे में, मुक्तिबोध
हिंदी रंगमंच के सन्दर्भ में एक बात जो साफ़-साफ़ दिखाई पड़ती है वो यह कि वह ज़्यादातर समकालीन सवालों और चुनौतियों से आंख चुराने में ही अपनी भलाई देखता है । नाटक यदि समकालीन सवालों को उठता भी है तो उसकी पृष्ठभूमि या पात्र अमूमन इतिहास के पन्नों से निकलके सामने आते हैं और आम बोल-चाल की भाषा के बजाय हिंदी की पंडिताई भाषा और परिवेश से सराबोर होते हैं । नकली एतिहासिकता का चोला धारण किए और दादा की बात पोते से करनेवाले ऐसे नाटक आधुनिक नाटक क्यों कहे जाते हैं और समकालीन भारतीय हिंदी रंगमंच और रंगकर्मी समकालीन सवालों और चरित्रों का सीधा-सीधा साक्षात्कार करने से परहेज़ क्यों करते हैं? यह सवाल एक बार आधुनिक भारतीय नाटक पढानेवाले से पूछा तो टका सा जवाब मिला कि “नाटक एक “कला” है, कोई अखबार की कतरन नहीं कि घटना हुई नहीं कि उसे मंच पर प्रस्तुत कर दिया जाय ।” इस जवाब से संतुष्ट होना संभव नहीं । यह निश्चित रूप से सवाल का सही जवाब नहीं है । यदि होता तो विश्व के प्रसिद्द नॉबेल पुरस्कार विजेता नाटककार दरियो फ़ो यह न कहते  – “एक रंगमंचीय, एक साहित्यिक, एक कलात्मक अभिव्यक्ति जो अपने समय के लिए नहीं बोलती, उसकी कोई प्रासंगिकता नहीं है ।” 
हिंदी रंगमंच सदा ही समकालीन सवालों से कतराता रहता है, ऐसा कहना भी निश्चित रूप से एक अतिशयोक्ति ही होगी । यह समस्या ज़्यादातर तथाकथित मुख्यधारा, महानगरीय और अकादमिक रंगमंच वाले स्थानों की है । कारकों की पड़ताल की जाय तो इसका एक मुख्य कारक जो समझ में आता है वो यह कि वैचारिक शून्यता से सराबोर हिंदी रंगमंच कुछ अपवादों को छोड़कर अमूमन आज भी एक परजीवी के रूप में ही जीवित और सामाजिक सरोकार से लगभग दूर है । वहीं लोग भी यही मानते हैं या उन्हें यह मनवा दिया गया है कि नाटक, फिल्म, संगीत, नृत्य आदि का कार्य मनोरंजन मात्र है । कलावाद का भी एक समृद्ध और स्वयम्भू इतिहास रहा है, तो इस इतिहास के मोह से निकलना भी उतना आसान भी नहीं । समकालीन सवालों से सीधे साक्षात्कार का अर्थ है जलते अंगारों पर हाथ रखना, अपने लिए और अपनों के लिए चुनौतियों और जिम्मेदारियों का दामन थामना । हो सकता है इन सबके लिए रंगकर्मी और समाज तैयार ना हो । किन्तु सभी ऐसे नहीं हैं । रंगकर्मियों का एक वर्ग रंगमंच को केवल एक कला मात्र नहीं बल्कि सामाजिक परिवर्तन का सांस्कृतिक हथियार भी मानता है । यह बात अलग है कि इन रंगकर्मियों की स्थिति भी आज निराशाजनक ही है । फिर भी मंच पर समय-समय पर समकालीन सवाल पूरी कलात्मक अभिव्यक्ति के साथ प्रकट हुए और यह परम्परा आज भी कमोवेश बनी हुई है । इन अभिव्यक्तियों को रंगकर्मियों, दर्शकों और नाट्य-समीक्षकों का अपार स्नेह भी हासिल हुआ । मन्नू भंडारी का नाटक महाभोज समकालीन सवालों और जलते अंगारों को छूने की एक ऐसी ही कोशिश थी/है । 
आज़ादी के जश्न का भोज खत्म हो चुका था । गांधीवाद अनुकरणीय कम, पूजनीय ज़्यादा की उपाधि प्राप्त कर चुका था, साम्यवादी गलियारे या तो कांग्रेस के दरवाज़े पर जाकर खत्म हो जा रहे थे या फिर बारूद के गोदाम में, देश आपातकाल का स्वाद चख रहा था । कई गणमान्य चेहरों से नकाब उतर चुके थे और सम्पूर्ण क्रान्ति के नाम पर एक नए किस्म की अराजकता ने अपना पासा फेंक दिया था । मतलब कि महाभोज की पृष्ठभूमि तैयार थी ।  
मन्नू भंडारी लिखित महाभोज पहले उपन्यास के रूप में छपा ततपश्चात नाटक के रूप में आया । यह हिंदी साहित्य की शायद एकमात्र कृति है जो उपन्यास और नाटक दोनों ही रूपों में मंच पर सफलतापूर्वक मंचित हुआ । प्रसिद्द नाट्य निर्देशक और कहानी का रंगमंच नामक विधा के प्रणेता के रूप में विख्यात देवेन्द्र राज अंकुर ने इसे अपने नाट्यदल के साथ उपन्यास के रूप में मंचित किया तो अमाल अलाना के निर्देशन में पहली बार इसे नाटक के रूप में खेला गया । तत्पश्चात देश के कई प्रसिद्द नाट्य निर्देशकों ने भी इसे नाटक के रूप में मंचित किया । लगभग तीस प्रमुख पात्रों और ग्यारह दृश्यों में समाहित इस नाटक को हिंदी प्रदेश में शायद ही ऐसा कोई नाट्य केंद्र हो जहां मंचन न हुआ हो । बिहार की राजधानी और हिंदी रंगमंच का एक प्रमुख केन्द्र पटना में इसका एक मंचन सन 1984 में इप्टा के बैनर तले परवेज़ अख्तर के निर्देशन में भारतीय नृत्य कला मंदिर के मुक्ताकाशी मंच पर हुआ था । जिसका इतिहास आज भी बिहार रंगमंच पन्नों और दर्शकों की स्मृतियों में अंकित है । उस प्रस्तुति में दा साहब की भूमिका निभानेवाले चर्चित रंगमंच और फिल्म अभिनेता विनीत कुमार बताते हैं – “वह हिंदी रंगमंच के महानगरीय संस्करण का स्वर्णिम काल था । देश की राजधानी समेत कई अन्य शहरों में रंगमंच अपने जूनून के घोड़े पर सवार हो पूरी रफ़्तार से दौड़ रहा था । पटना के अलग अलग नाट्यदलों के लगभग 80 अभिनेता इस नाटक में कार्यरत थे । भारतीय नृत्य कला मंदिर के मुक्ताकाश मंच पर विशाल सेट लगाया गया था । मैं खुद जोराबर की भूमिका करना चाहता था लेकिन निर्देशक ने दा साहेब की भूमिका के लिए चयन किया । वैसे इस नाटक के हर चरित्र का अपना एक अलग ही महत्व और सुर है । दा साहेब की भूमिका करते हुए मैंने पाया कि यह चरित्र कठोर से कठोरतम बात भी कोमल स्वर में बोलता है, केवल एक स्थान पर इसका स्वर तीब्र या शुद्ध लगता है । इस नाटक के एक साथ कुल पांच या छः मंचन हुए और सबके सब शो हाउसफुल । जैसे पूरा शहर ही नाटक देखने उमड़ पड़ा हो ।”   
महाभोज नामक यह उपन्यास नाटक का रूप धरकर बेहद चर्चित, सुदृढ़ और सार्थक हुआ । सरोहा नामक गांव की पृष्टभूमि और बिसू की हत्या की विसात पर बिछी इस नाटक की कथा में वर्णित दा साहेब, जमना बहन, जोराबर, बिंदा, रूक्मा, महेश, थानेदार, दत्ता बाबू, सुकुल बाबू, नरोत्तम, सक्सेना, हीरा आदि चरित्र हिंदी रंगमंच के अग्रणी चरित्रों में से एक हैं, जिन्हें अभिनीत करते हुए कोई भी अभिनेता गौरवान्वित महसूस करता है । नई रंगचेतना और हिंदी नाटककार नामक पुस्तक में रंगचिन्तक जयदेव तनेजा लिखते हैं -  “समकालीन जीवन और परिवेश को विविध स्तरों पर प्रामाणिक और निर्धारित करनेवाले सत्ता व्यवस्था के ऊपर से भोले एवं मासूम किन्तु भीतर से क्रूर और घिनौने चेहरे को निर्ममता से बेनकाब करनेवाला सुप्रसिद्ध कथाकार मन्नू भंडारी का स्थिति प्रधान राजनैतिक उपन्यास महाभोज नाट्य रूपांतरित एवं अभिमंचित होकर अभूतपूर्व चर्चा का विषय बना ।”
लेखिका मूलतः नाटककार नहीं हैं । निश्चित ही नाट्य निर्देशिका अमाल अलाना और महाभोज को मंच पर पहली बार प्रस्तुत करनेवाली नाट्यदल ने नाट्य लेखन में भी भरपूर सहयोग और सलाह दिए होंगें । इसमें कुछ गलत भी नहीं है क्योंकि नाटक एक सामूहिक कला है । यहाँ हर प्रकार का सृजन समूह में आकर ही अंतिम आकार लेता है । एक सामूहिक कला निश्चित रूप से एक दूसरे के सार्थक सहयोग से ऊर्जा और दिशा ग्रहण करता है । नाट्यालेख नाट्य-प्रस्तुति का मूल-आधार है और कोई भी नाट्य रचना दर्शकों के समक्ष मंच पर प्रदर्शित होकर ही अपनी सम्पूर्णता को प्राप्त होती है । इसलिए नए नाट्यालेख को एक कुशल और मंचीय आकार बनने के लिए निर्देशक, अभिनेता व अन्य लोगों का सार्थक सहयोग एक अनिवार्य शर्त भी बन जाती है । यह सहयोग निश्चित ही मन्नू भंडारी को मिला और परिणामस्वरूप भारतीय नाट्य साहित्य को महाभोज नामक एक अनुपम और निहायत ही ज़रूरी रचना की जन्म हुआ । जिसे देखना, पढ़ना, सुनना केवल रोचक और कलात्मक ही नहीं बल्कि सत्य से साक्षात्कार और एक तकलीफ़देह अनुभूति भी है । इस अनुभूति के बीज भारतीय व्यवस्था के अंदर ही प्रमुखता से मौजूद हैं और आज तो और भी बेशर्मी की हद तक मुखर हो गए हैं । अभिनेता विनीत कुमार कहते हैं – “अब तो दा साहब नामक चरित्र भारतीय राजनीति में खत्म से ही हो गए हैं, अब जिधर देखिए उधर जोराबर राज कर रहे हैं ।”
महाभोज का बीज सूत्र 1977 में घटित बिहार के पटना जिले का बेलछी नरसंहार है । इस नरसंहार में दर्जन भर से ज़्यादा लोगों की निर्मम हत्या की गई थी । कुछ लोगों को ज़िंदा तक जला दिया गया था । यह अंग्रेजों से आज़ादी के बाद दूसरा सबसे बड़ा नरसंहार था । यह वही काल था जब इंदिरा गांधी और कांग्रेस ने पराजय झेली थी और बिहार में 1974 के आंदोलन के फलस्वरूप जनता पार्टी की सरकार बनी थी । लेखिका ने बेलछी की इस घटना की रिपोर्ट किसी अख़बार में पढ़ी और महाभोज नामक उपन्यास के बीज उनके मन में अंकुरित होने लगे । वैसे, बेलछी की इस घटना के कई संस्करण हैं । सम्पूर्ण क्रांति के समर्थक इसे जनता पार्टी की सरकार को बदनाम करने की साजिश के तौर पर देखते हैं, तो जानकार बताते हैं कि यह दरअसल राजनीतिक शह प्राप्त दो आपराधिक गुटों की आपसी रंजिश का नतीज़ा था जिसे एक राजनीतिक स्वार्थ के तहत दलित संहार के रूप में भी प्रचारित किया गया । वहीं यह घटना इंदिरा गांधी की अति-नाटकीय बेलछी यात्रा के लिए भी इतिहास में दर्ज़ है, जहाँ श्रीमती गांधी हाथी पर सवार होकर नरसंहार पीडितों के दुःख दर्द बांटने गईं थी । कुल मिलाकर इतना तो कहा जा सकता है कि यह भारत की आजादी के सपनों से मोहभंग, कानून और न्याय व्यवस्था के पतन, सत्ता और व्यवस्था का अपराधीकरण और लोकतंत्र के चौथे खम्भे के शर्मनाक तरीके से चरमराने का काल था । व्यवस्था क्रूरता और अमानवीयता का एक से एक उदाहरण प्रस्तुत कर रही थी और जनता केवल वोटर मात्र के रूप में परिणित हो जाने को अभिशप्त कर दिए गए थे । यही बात मन्नू भंडारी के उपन्यास और नाटक के मूल में है । एक ऐसे समय में महाभोज नामक इस कृति का आना अपने आपमें एक सुखद घटना थी । ब्रेख्त के शब्दों को थोड़ा फेरबदल करके कहा जाय तो यह अंधेरे समय में, अंधरे के बारे में गीत था । मन्नू भंडारी की यह कृति भारतीय रंगमंच में एक एतिहासिक महत्व की परिघटना है, लेकिन दुखद सच यह है कि नाटक में वर्णित स्थितियां-परिस्थितियां सुधरने के बजाय कहने, सुनने, देखने, समझने की तमाम सीमाओं को पार कर शर्मनाक रूप से क्रूर से क्रूरतम रूप धारण कर आज ज़रूरत से ज़्यादा खतरनाक और अराजक हो गई हैं । यह ऐसा समय है जब देशभक्ति की परिभाषाएँ बदल दी गई हैं । एक से एक आर्थिक, सामाजिक व राजनैतिक घोटालों और नैतिक पतनों पर फ़ाइल के फ़ाइल भरे पड़े हैं । मूर्खता और उदंडता ने हमारी मौन स्वीकृति के फलस्वरूप क्रूरतापूर्वक अपना साम्राज्य स्थापित कर लिया है और मानवता और लोकतंत्र बिसू की लाश के रूप में परिणत होने को अभिशप्त बना दी गई हैं । ऐसे समय में महाभोज जैसी कृति का महत्व और ज़्यादा भी ज़्यादा बढ़ जाता है ।

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