एच कन्हाईलाल का पूरा नाम हैसनाम कन्हाईलाल है। इनका जन्म 17 जनवरी 1941 में कैसंथोंग थान्ग्जाम लाइरक इम्फाल में हुआ। सन 1969 में उन्होंने मणिपुर में कलाक्षेत्र की स्थापना की। उन्हें अब तक निर्देशन के लिए संगीत नाटक अकादमी सम्मान 1985, संगीत नाटक अकादमी रत्न पुरस्कार 2011 सहित पता नहीं कितने सम्मान मिल चुके हैं। इससे शायद ही किसी को इनकार हो कि आज एच कन्हाईलाल का नाम भारतीय रंगमंच का पर्याय बन चुका है।
2007 - 08 की बात है। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय से बतौर छात्र मैं और मेरे कुछ बैचमेट पढाई पूरी करने के पश्चात् राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय रंगमंडल में प्रशिच्क्षु (Apprentice) कलाकार के रूप में कार्यरत थे। रंगमंडल में प्रशिक्षुओं की स्थिति किसी मुहाजिर की तरह ही होती है, जो किसी देश में रहते हुए भी उस देश का शरणार्थी होता है। हमारी भी स्थिति कुछ ऐसी ही थी। हम शरणार्थियों के लिए रंगमंडल में तत्काल कोई योजना नहीं थी तो एच कन्हाईलाल को बुला लिया गया कि वो आएं और हमारे साथ “कुछ” काम करें। तीन साल के प्रशिक्षण के पश्चात् भी यह “कुछ” काम वाला तर्क हमारे गले से उतरना आसान नहीं था। लेकिन यह रंगमंडल हैं स्कूल नहीं। यहाँ विरोध का कोई स्थान नहीं है। हमें ऐसा लगा जैसे हमारी पढ़ाई तीन साल में खत्म नहीं हुई बल्कि चौथे साल में भी शुरू हो गई थी।
बहरहाल, कन्हाईलाल आए तो उनके साथ सावित्री जी और उनका पुत्र तोम्बा भी आए। तीनों ने हमारे साथ अभ्यास आरम्भ किया। तीनों व्यवहार में इतने सहज कि लगता ही नहीं था कि हम भारतीय रंगमंच के एक लिजेंड्री जोड़ी और परिवार के साथ काम कर रहे थे। कन्हाईलाल जी और सावित्री जी की जोड़ी को रंगमंचीय कलाकार की आदर्श जोड़ी है। दोनों एक दूसरे के पूरक जैसे ही हैं। कन्हाईलाल जी थ्योरी हैं तो सावित्री जी उस थ्योरी की व्यावहारिक आत्मा।
उन्होंने हमारे साथ कई सारे अभ्यास किए। अपनी रंगमंचीय तकनीक से अवगत करवाया और रंगमंचीय अभिनय को लेकर कई सारे जाले भी साफ़ किए। खोखली बौधिकता और जादुई शब्दावलियों से परे स्वतः और स्वभाविक मानवीय इंस्टिंक्ट को फिजिक्लाइज करना सिखाया। शुरू में हमें दिक्कत हुई क्योंकि आधुनिकता, विकास और बौद्धिकता के नाम पर हमने हमने इन्हीं चीज़ों का ही तो त्याग किया है। शारीरिक अभ्यास किए और शब्दों से ज़्यादा ध्वनियों पर काम किया। शुरूआती असफलताओं के बाद एक बार सूत्र पकड़ में आ गया और हमने "इसे ही रंगमंच कहते हैं" की बनी बनाई मान्यता को त्यागकर अपने को कन्हाईलाल जी के हवाले कर दिया तो फिर तो मज़ा ही मज़ा था। अभिनेता का शरीर ही उसका मूल अस्त्र है तो हमने सर्वप्रथम शरीर को साधना सीखा ताकि उससे संवेदना का सतत संचार हो सके। यह सब अभ्यास हमारे लिए बिलकुल भी नए थे ऐसा भी नहीं कहा जा सकता क्योंकि राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के तीन वर्ष के पाठ्यक्रम में अभिनय के कई सारे रूप और प्रकार से परिचय तो प्राप्त हो ही जाता है।
कन्हाईलाल जी ने हमारे साथ कुछ डेमोस्ट्रेशन भी तैयार किया। वो चाहते थे कि राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के छात्रों और शिक्षकों के सामने इस डेमोस्ट्रेशन को प्रदर्शित करेगें ताकि कन्हाईलाल जी कैसे काम करते हैं यह समझ में आए और यह भी समझें कि उनके काम को तथाकथित शहरी रंगकर्मी भी आराम से आत्मसाथ कर सकते हैं जो यह कहके उनके काम को खारिज़ कर देते हैं कि उसके लिए एक खास प्रकार की ट्रेनिग की ज़रूरत है और उसे हर कोई नहीं अपना सकता। लेकिन डेमोस्ट्रेशन के दिन कोई भी नहीं आया - न कोई छात्र, न शिक्षक और ना ही कोई अन्य। किसी के भी पास इनके काम को देखने के लिए एक घंटा नहीं था। कन्हाईलाल और सावित्री जी इस बात से विचलित नहीं हुए बल्कि वो तो शायद यह जानते थे कि यही होनेवाला है। बहरहाल, उन्होंने हमें चाय समोसा की एक छोटी पार्टी और हमें खूब सारा प्यार दिया।
इस कार्यशाला के दौरान हमें उनके जीवन संघर्षों की गाथा सुनने का अवसर भी मिला। हम कभी दुखी, कभी आश्चर्यचकित भाव से उनकी कहानी सुनते रहे। मणिपुर जैसे राज्य में रहकर आज के खाऊ - पकाऊ और आत्ममुग्धता भरे दौर में कोई तो है जो जीवन के तमाम दुःख-सुख को आत्मसाथ करते हुए पूरी जीवटता, सहजता और लगन के साथ रंगमंच को न केवल खेलता है बल्कि जीता भी है।
यह तो सर्वविदित है कि कन्हाईलाल जी राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के छात्र थे लेकिन उन्होंने अपनी पढ़ाई पुरी नहीं की। उसका सबसे बड़ा कारण भाषा तो था ही साथ ही साथ जो कुछ भी वहां पढ़ाया जा रहा था वह शायद उनके काम का ज़्यादा कुछ था नहीं। कुछ लोग इस घटनाक्रम को पारिवारिक जिम्मेदारियों से भी जोड़ कर देखते हैं। असली करण चाहे जो भी ही किन्तु यह सच है कि स्थिति आज भी कुछ ज़्यादा बेहतर नहीं है। जो छात्र हिंदी भाषी नहीं होते वह कैसे धीरे – धीरे तनाव का शिकार होते हैं यह हम सबने खुद अपने बैच में महसूस किया है। अच्छे से अच्छा अभिनेता ठीक से हिंदी न बोल – समझ पाने से की वजह से कुंठाग्रस्त होने को अभिशप्त होते हैं क्योंकि राष्ट्रीय के नाम पर यहाँ आज भी अमूमन हिंदी का ही बोलबाला है।
कन्हाईलाल जी ने अपनी जीवन संगनी सावित्री जी के साथ मिलकर न केवल रंगमंच की अपनी एक अंतर्राष्ट्रीय भाषा खोजी बल्कि उसे किसी भी भाषा से ऊपर उठाकर समसामयिक और सार्थक भी बनाया। यह कहा जाय तो शायद अतिशयोक्ति नहीं होगी कि उनका रंगमंच किसी प्रकार के तड़क – भड़क से परे मूलतः अभिनेता – अभिनेत्री केंद्रित एक ग्लोबल रंगमंच है जहाँ भाषा से ज़्यादा भाव, भंगिमाओं, गतियों और ध्वनियों आदि जैसे वैश्विक चीज़ों का इस्तेमाल ज़्यादा है। इससे कथा का प्रवाह वाधित नहीं होता बल्कि वो और ज़्यादा व्यापक और वैश्विक होकर मुखर हो जाता है। यह वजह है कि कुछ लोग यह मानते हैं कि कन्हाईलाल जी जैसे लोगों का रंगमंच राष्ट्रीय रंगमंच है। एच कन्हाईलाल को वर्ष 2016 का पद्मभूषण सम्मान देने की घोषणा हुई है। वर्तमान सरकार और उसकी नीतियों से सहमति – असहमति के बावजूद इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि एच कन्हाईलाल जैसे लोगों का सम्मान राष्ट्रीय रंगमंच का उचित सम्मान है।
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