भीष्म साहनी की कहानी 'लीला नंदलाल की' का मंचन जब पटना के कालिदास रंगालय में हुआ तो दूसरे दिन एक प्रमुख अखबार में कमाल की पूर्वाग्रह भरी समीक्षा प्रकाशित हुई। प्रस्तुति के समाचार के बीच में अलग से एक कॉलम का शीर्षक था – ऐसी रही निर्देशक की लीला। आगे जो कुछ भी एफआईआर जैसा दर्ज़ था शब्दशः पेश कर रहा हूँ – “पटना : आज की प्रस्तुति में कुछ खास नज़र नहीं आया। एक दो पात्रों को छोड़कर सबकुछ अति-नाटकीय। कॉस्टयूम पर भी ध्यान नहीं दिया गया। प्रकाश व्यवस्था कामचलाऊ रही। रौशनी से कलाकार के कदम कभी आगे कभी पीछे। (अब रौशनी से कदम आगे पीछे कैसे होता है वह तो लिखनेवाला ही जाने।) ऐसा लगा जैसे नाटक की ग्राउंड रिहर्सल (जी हां, ग्राउंड रिहर्सल ही लिखा है ग्रैंड रिहर्सल नहीं।) भी नहीं कराई गई। लीला नन्दलाल की शीर्षक नाटक में जज को चलते फिरते दिखाया गया है। जबकि सब जानते हैं कि किसी भी अदालत में जज चलते फिरते सुनवाई नहीं करते। खैर कुछ भी हो कुछ न कुछ कमियां हर प्रोडक्शन में होतीं हैं। लोग कहते हैं, यह तो प्रयोग है। लेकिन ऐसे प्रयोग का क्या मतलब जो आसानी से हजम न हो। वह भी नामी-गिरामी नाट्य निर्देशक के चेलों की ओर से।”
अब समीक्षा का यह स्तर पढ़कर ठहाका लगाने के अलावा और किया भी क्या जा सकता है। हास्य, व्यंग्य, फार्स, छायावाद, यथार्थवाद आदि को एक ही तराजू से तोलनेवाले इन महान रंग-समीक्षकों की जय हो। वैसे भी समय का खेल ही कुछ ऐसा है कि पुर्वआग्रहपुर्ण निंदा या प्रसंशा को ही लोग समीक्षा मान बैठे हैं। अब ऐसे मूढ़ नाट्य-समीक्षक को कौन समझाए कि यदि कोई भी कला यथार्थ की नक़ल मात्र ही करे तो फिर उस कला की उपयोगिता ही क्या है। वैसे भी रंगमंचीय यथार्थ और यथार्थ जगत में फर्क होता है। बहरहाल, भीष्म साहनी की इस कहानी से मेरा जुड़ाव कुछ दूसरे किस्म का भी रहा है। इसे भावनात्मक जुडाव भी कहा जा सकता है। सन 1997 की बात है। महाजन जिस रास्ते चलें सही रास्ता वही है की तर्ज़ पर देश भर में, खासकर हिंदी प्रदेशों में कहानी मंचन की धूम मची थी। अभिव्यक्ति नामक जिस नाट्य दल के साथ मैंने पटना के नुक्कडों पर नाटक करना शुरू किया था उससे किसी कारणवश मोह भंग हो चुका था। मैं अब एक नए और ऐसे ठिकाने की तलाश था; जहाँ रहकर रंगमंच की बारीकियां सीख सकूँ। यह ठिकाना बना विजय कुमार द्वारा संचालित मंच आर्ट ग्रुप। विजय कुमार राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय (रानावि) से प्रशिक्षित थे। हालांकि उस वक्त मैं रानावि के अस्तित्व से पुरी तरह अपरिचित था। मेरी मुलाकात विजय कुमार से हुई और उन्होंने मुझे दूसरे दिन प्रेमचंद रंगशाला आने को कहा। नाटक का पूर्वाभ्यास उस वक्त खंडहरनुमा प्रेमचंद रंगशाला में हो रहा था। मंच आर्ट ग्रुप के बैनर तले विजय कुमार के निर्देशन में भीष्म साहनी की इस कहानी का पूर्वाभ्यास शुरू हुआ। मैं पुरे नाटक में मंच पर ही रहता था किन्तु केवल एक ही संवाद बोलता था, वो भी जैसे-तैसे। इस प्रस्तुति ने ही मेरे वास्ते पटना रंगमंच के तथाकथित मुख्यधारा में प्रवेश का द्वारा खोला इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता।
छः साल बाद पुनः एक मौका मिला कि भीष्म साहनी की कोई रचना को मैं निर्देशित करूँ। इन छः सालों के दरमियां मैंने दस्तक नाम से अपना नाट्य दल गठित कर नाटकों को निर्देशित करना शुरू कर दिया था। इसके साथ ही उक्त दिनों मैं पटना के विभिन्न नाट्यदलों के साथ ही साथ प्रसिद्द नाट्य निर्देशक संजय उपाध्याय द्वारा संचालित निर्माण कला मंच से भी जुड़ा था और भीष्म साहनी कौन हैं इस बात से अब अपरिचित भी नहीं था। सन 2003 का साल था। इसी वर्ष 11 जुलाई को भीष्म साहनी का निधन हुआ था। इसलिए तय हुआ कि इन्हें श्रधांजलि देने के लिए निर्माण कला मंच से जुड़े तीन लोग इनकी तीन कहानियों का एक सेट तैयार करेंगें जिसका मंचन निर्माण कला मंच की पन्द्रवीं वर्षगांठ के अवसर पर आयोजित होने वाले वार्षिकोत्सव’03 में किया जाएगा। इसीलिए शारदा सिंह ने चीफ़ की दावत, प्रशांत कुमार ने अमृतसर आ गया और मैंने लीला नंदलाल की नामक कहानी का चयन किया। अब मेरा यह चयन महज एक संयोग तो नहीं ही हो सकता है। वैसे भी जिस कहानी की एक छोटी सी भूमिका से मैंने पटना रंगमंच पर अपनी मंचीय यात्रा शुरू की थी आज उसी कहानी को निर्देशित करना एक रोमांचक अनुभव होने वाला था। वैसे मुझे इनकी यह कहानी आज भी बेहद प्रिय है और यदि मौका मिले तो इसे बार-बार अलग-अलग तरीके से निर्देशित भी करना चाहूँगा। वैसे पटना में ही इनके नाटक कबीरा खड़ा बाज़ार में, हानूश और माधवी का सफल मंचन देखने का अवसर मिल चुका था और इनकी अन्य रचनाएं जैसे मुआबज़े, तमस, मय्यादास की माड़ी आदि पढ़ भी चुका था।
तो आखिर क्या खास है इस कहानी में? यह कहानी स्कूटर चोरी जैसी एक अति साधारण सी प्रतीत होनेवाली घटना के माध्यम से किस-किस की खबर नहीं लेती। परिवार, समाज, कानून-व्यस्था आदि आदि। तो किस्सा यह कि एक व्यक्ति का स्कूटर चोरी हो जाता है। फ़ौरन पुलिस में रिपोर्ट लिखवाने के पश्चात् जब यह बात वो अपने घरवालों को बताता है तो घरवाले इस घटना के लिए उसे ही ज़िम्मेदार मानते हैं। फिर शुरू होता है बीमा कंपनी और पुलिस का चक्कर। पुलिसवाले इस मामले को पहले तो टालते हैं फिर पैरवी लगाने के पश्चात् थोड़ा भाव देते हैं। स्कूटर की तलाश शुरू होती है। पता चलता है कि एक बाड़े में कई अन्य वाहनों के साथ स्कूटर रखा हुआ है। वो व्यक्ति बाड़े में जाता है तो वहां उसकी मुलाकात दयाराम नामक वाहन चोर से होता है। दयाराम को अपने कृत्य पर शर्म नहीं बल्कि गर्व है। फिर शुरू होता है पुलिस, कोर्ट का ऐसे घुमावदार चक्कर जिसके भंवर में फंसकर सब सफ़ेद वालों के मालिक हो जाते हैं और स्कूटर पेशी दर पेशी पेश होता हुआ एक खटारा में तबदील हो जाता है। पर पेशियों का सिलसिला बदस्तूर कायम है।
इस कथा के माध्यम से भीष्म साहनी ने हल्के-फुल्के हास्य के द्वारा क्या एक गंभीर कथा नहीं कहते हैं? यह कहानी इस बात का घोतक भी नहीं है कि वे एक ऐसे गंभीर लेखक हैं जिनकी पकड़ हास्य-व्यंग नामक विधा पर भी है? वैसे यह एक बहुत ही गलत मान्यता है कि हास्य-व्यंग्य एक गंभीर विषय नहीं है।
कविता, कहानी, उपन्यास, निबंध आदि को बिना उसके फॉर्म में कोई बदलाव किए मंचित करना अपने आप में एक चुनौतीपूर्ण कार्य है। क्योंकि इनकी रचना व्यक्तिगत पाठ के लिए होता है सामूहिक प्रदर्शन के लिए नहीं। कविता, कहानी, उपन्यास, निबंध आदि व्यक्ति से व्यक्तिगत रूप से साक्षात्कार करती है जबकि नाट्य-प्रदर्शन एक सामूहिक कला है। यहाँ लेखक के लिखे शब्दों को निर्देशक और परिकल्पक के निर्देशों और परिकल्पनाओं को आत्मसाथ करते हुए अभिनेता दर्शक समूह के लिए एक सामुहिक कला का सृजन कर रहा होता है। इसलिए कह सकते हैं कि जब कोई नाट्य-दल या निर्देशक कविता, कहानी, उपन्यास, निबंध आदि को मंचित करने का निर्णय लेता है तो वह चीज़ों को व्यक्तिगत से सार्वजनिक प्रदर्शन के लिए रूप का रूपांतरण कर रहा होता है। वैसे भी मेरी रूचि हमेशा से ही लिखे-लिखाए नाटकों से ज़्यादा कविता, कहानियों, उपन्यासों को मंच पर उतारने में रही है। बहुत अच्छे से लिखा नाटक अपने आप ही एक दायरा बनाता है और मुझे दायरे पसंद नहीं।
लीला नंदलाल की कहानी को मंच पर रूपांतरित करते हुए सबसे पहली इस बात का ध्यान रखना था कि यह मेरे द्वारा पूर्व में अभिनीत प्रस्तुति की कार्बन कॉपी ना हो और दूसरी बात यह कि हमें केवल कहानी का पाठ नहीं करना बल्कि ऐसे नाटकीय दृश्यबंध भी तैयार करने हैं जो प्रस्तुति को नाटकीयता और भव्यता दोनों ही प्रदान करे। फिर बहुत दिनों से मन में पॉपुलर एलिमेंट्स को नाटक में प्रयोग करने की भी दिली इच्छा थी। जिसे विद्वानों द्वारा क्लिशे कहा जाता है। मन में बार-बार यह प्रश्न उमड़ता-घुमड़ता रहता कि क्या क्लिशे के सावधानी पूर्वक प्रयोग से कोई सार्थक नाट्य प्रस्तुति नहीं गढ़ी जा सकती है। आखिरकार हमने अभिनेताओं के दल के साथ इसका प्रयोग शुरू किया। चंद ही रोज़ में परिणाम भी आने लगा। नायक अपनी पत्नी को स्कूटर पर बैठता है। पत्नी बड़े प्यार से नायक को देखती है और बैकग्राउंड में किशोर दा का गाना बजने लगता है – कोर कागज़ था ये मन मेरा। कहानी स्कूटर की थी तो मंच पर स्कूटर के साथ ही साथ कई अन्य दोपहिया वाहनों का प्रयोग किया गया। कुछ फ़िल्मी और प्राइवेट एलबम के गाने भी जोड़े गए और उन गानों पर कहानी के अनुरूप ही व्यंगात्मक दृश्यबंध तैयार किया गया। विलेन की इंट्री पर पूरा फ़िल्मी माहौल भी बनाया गया – सफ़ेद सूट, छिला हुआ सिर, मंच पर धुँआ और बैकग्राउंड में विलेनियाँ संगीत। कुल मिलाकर यह स्वयं मेरे और मेरे अभिनेताओं लिए एक अनूठा अनुभव था और शायद दर्शकों के लिए भी। यही हमारी भीष्म साहनी को श्रधांजलि भी। आज इस प्रस्तुति को याद करते हुए इसके मुख्य अभिनेता प्रवीण की याद बार-बार आ जाती है जिसकी निर्मम हत्या उसके ही मोहल्ले के कुछ सडक छाप गुंडों ने बेवजह ही कर दिया था।
भीष्म साहनी अर्थात एक ऐसा नाटककार, उपन्यासकार, कहानीकार जिन्हें किसी भी एक बने बनाए सांचे में नहीं डाला जा सकता। इनसे जुड़ी एक और इच्छा जो कई सालों से मेरे अभिनेता मन में पल रही है है वो यह कि इनके नाटक नाटक कबीरा खड़ा बाज़ार में मैं कबीर की भूमिका का करूँ। यह इच्छा मुझ जैसे न जाने कितने अभिनेताओं के दिलों पर आज भी राज कर रहा होगा। हां, यह अलग से कहने की ज़रूरत नहीं है कि आज के समय में भीष्म साहनी जैसे रचनाकार की उपयोगिता पहले से कहीं ज़्यादा है। इनकी रचनाओं को बार-बार पढ़ा-पढ़ाया, समझा-समझाया जाय, इनके नाटकों, कहानियों, उपन्यासों का बार-बार मंचन किया जाय, यही इस रचनाकार के प्रति हमारी सच्ची श्रधांजलि होगी।
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