जैसे ही पटकथा की प्रस्तुति गांव गोंदर बिगहा, हिसुआ, नवादा (बिहार) में करने की बात हुई एक सवाल यह उठ खड़ा हुआ कि क्या धूमिल की कविता की यह विम्बत्मक प्रस्तुति गांव के दर्शकों की जिज्ञासा को शांत कर पाएगी? क्या वो इस प्रस्तुति को सहजतापूर्वक ग्राह्य कर समझ पाएगें? इस सोच के पीछे कई सारे पूर्वाग्रह थे। गांव को आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक, बौद्धिक आदि स्तर पर पिछड़ा मानने का प्रचलन इस कदर व्याप्त है कि इसी देश में देहाती और गंवार जैसे शब्दों को गाली के रूप में इस्तेमाल किया जाता है। लेकिन यह भी सच है कि शिक्षा का अर्थ केवल किताबी और डिग्री नहीं होता।
कविता ज़्यादातर लोगों के समझ में नहीं आती। समझ में आएगी कैसे जबतक कि कविता पढ़ने या समझने की कोशिश न किया जाय, उसे आदत में शम्मिलित नहीं किया जाए। वैसे भी कोई भी चीज़ समझने से समझ में आती है, उसके लिए थोड़ा प्रयास खुद भी करना पड़ता है न कि यह मान लेने से कि वो चीज़ समझ में ही नहीं आती है।
बहरहाल, समझ में आने, न आने का भय तो हमें पटना जैसे शहर में पहली प्रस्तुति करने के दौरान भी था लेकिन प्रस्तुति प्रारंभ होने के कुछ मिनटों के पश्चात् ही यह भय जाता रहा था। कालिदास रंगालय में दर्शक जिस जीवंतता के साथ धूमिल की इस प्रतिष्ठित कविता पर एकल अभिनय कर रहे आशुतोष अभिज्ञ का साथ दे रहे थे; वह अद्भुत था। अब तो आशुतोष ने इस कविता और उसके रंगमंचीय विम्बों को इस तरह आत्मसात कर लिया कि उसे पटकथा में अभिनय करते देखना एक सुखद अनुभूति की तरह हो गया है। तकनीकी भाषा में इसे इज़ कहते हैं।
बहरहाल, हम पटना के चर्चित रंगमंच, टेलीविजन और फिल्म अभिनेता बुल्लू कुमार के गांव गोंदर बिगहा, हिसुआ, नवादा (बिहार) पहुंचे। राजगीर पर्वतमाला, नदी, खेत-खलिहान से शुशोभित यह एक अद्भुत गाँव है। कुछ ऐसा कि कोई भी कलाकार ह्रदय व्यक्ति यहाँ पहुंचकर आह्लादित हो उठे। अपने जूनून से इसी पहाड़ी का एक सिरा दशरथ मांझी ने काटकर रास्ता बना दिया था। कौन जाने हम में से किस-किसकी नियति कुछ ऐसी ही हो।
यहाँ छठ के अवसर पर हर वर्ष कम से कम संसाधनों में तीन दिन नाटक खेलने का प्रचलन है। चौकी जोड़कर टेम्प्रोरी मंच बनाया जाता है। माइक लगाए जाते हैं। दरी आदि बिछाए जाते हैं। ग्रामीण नाटकों की अपनी शैली और चुनौतियाँ हैं जिनपर बात फिर कभी। रात करीब 8 बजे के आसपास पटकथा की प्रस्तुति प्रारंभ हुई। शाम से ही लोग बोरा बिछाकर अपनी-अपनी सीट लूटने में व्यस्त थे। दर्शक दीर्घा में गांव के बच्चों से लेकर बूढ़े तक विराजमान थे। स्त्री-पुरुष, बच्चे-बच्चियां, लड़के-लड़कियां सब; और जिस शांत भाव से इन्होंने पटकथा और अन्य नाटक की प्रस्तुति देखी वह सच में कमाल है। उनकी जीवंतता किसी भी दर्शकों से कतई भी कम नहीं थी। बल्कि शालीनता में चार कदम आगे ही थे। धैर्य तो ऐसा कि कोई भी कलाकार फ़िदा हो जाए। लगता है जैसे गांव और गांववालों ने कला के नाम पर केवल स्वीकारना ही सीखा है, नकारना और पूर्वाग्रह शहरवालों के लिए छोड़ दिया है।
तमाम चुनौतियों के बावजूद, गांव में आज भी चैन है, सुकून है, तकनीक से ज़्यादा बात का भाव है। कुछ बड़े महोत्सव में no entry का दंश झेलता हमारी पटकथा शहर-कस्बों के सभागारों, स्कुल-कॉलेजों से होता हुआ उनतक पहुंचकर जैसे थोड़ा और ज़्यादा सार्थक सा कुछ हो गया हो। पटकथा में वर्णित स्थितियों-परिस्थियों को सबसे ज़्यादा जनता को ही समझने की ज़रूरत है और गांव से बेहतरीन जनता और कहाँ मिलेगी। वैसे भी धूमिल दाद और वाह-वाह वाले कवि तो हैं नहीं।
अंत में, भिखारी ठाकुर की रचनाओं और जीवनवृत पर आधारित अपने ही लिखे नाटक "नटमेठिया" की एक लाइन याद आ रही है - "नाच न बंद होगा। नाच खातिर तो सबकुछ किया, अब कैसे छोड़ दें यह नाच।"
यह ज़िद्द है तो ज़िद्द ही सही। वैसे भी बिना ज़िद्द के कुछ हासिल भी तो नहीं होता। इसलिए जूनून कायम रहे और हौसला बुलंद।
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