Monday, May 14, 2018

माँ कहते ही कितना कुछ एक साथ याद आने लगता है।

किसी भी मनुष्य के अनुभूतियों और ज्ञान के चक्षु जब खुलने लगते हैं तो माँ कहते ही स्मृतियों में एक साथ ना जाने कितने बिम्ब बनने लगते हैं। कभी गोर्की की माँ याद आती है, कभी हज़ार चौरासी की माँ, कभी मदर इंडिया की वो माँ जो किसी से जबरन "भारत माता की जय" नहीं बुलवाती और बहुमत के दम्भ में चूर होकर यह भी नहीं दहाड़ती कि यदि तुम ऐसा नहीं बोलते तो तुम देशद्रोही हो, बल्कि उसूलों की रक्षा के लिए अपने जिगरी बेटे को भी गोली मार देती है। फिर गोदान की गोबर की माँ भी है जो किसान से मज़दूर की ओर तेज़ी से अग्रसर होते होरी का पूरी जीवंतता से साथ देती है और आखिर में उस व्यवस्था का प्रतीकात्मक विरोध का प्रतीक भी बनती है जिसने होरी जैसे किसान की सज्जनता का खूब दुरुपयोग किया। धनियां को पता है कि प्रतिरोध ज़रूरी है परंपराओं से भी। मुझे the latter to a child who never born की माँ भी याद आ जाती है जो किसी भी शर्त पर अन्तः अपने नितांत निजी वजूद को समाप्त करने को कत्तई तैयार नहीं। मुझे रामायण की वो सीता याद आती है जो पति द्वारा परित्याग के बावजूद बड़ी ही बहादुरी से अपने बच्चों का कुशल पालन करती है और महाभारत की कुंती और द्रोपदी को कैसे भूल जा सकता है जिन्होंने कई मर्दों और पतियों का संसर्ग प्राप्त किया? वैसे माँ तो शकुंतला भी है, सावित्री भी और जगत जननी तो माता होती ही हैं जो अपने किसी भी बच्चे में कोई विभेद नहीं करतीं कभी भी, किसी भी परिस्थिति में। और फिर फ़िल्म राम-लखन, दूध का कर्ज़ और करण-अर्जुन आदि फिल्मों की भी माँ है जो अपने बच्चों को बुराई से लड़ने के लिए फौलाद बनाती हैं नाज़ुक good child नहीं। फिर "मेरे पास माँ है" वाली मां भी है।  फिर भगत सिंह और चंद्रशेखर जैसों की माँ भी है जिन्हें अपने बेटों की कुर्बानी पर गौरव का अनुभव होता है क्योंकि उनके बच्चों ने एक सुन्दर और एक ऐसे मानवीय समाज का सपना देखा था जहाँ किसी भी क़ीमत पर इंसान द्वारा इंसान का शोषण नहीं होगा। मुझे सति की याद भी आती है जो शक्ति का प्रतीक हैं ना कि केवल त्याग, बलिदान और ममता की मूरत।

सेना के उन लाखों जवानों की माँ को कौन भूल सकता है जिनके बच्चे रोज़ खतरों की आंधी में झुलसते हैं ताकि हम और आप चैन और सुकून की सुरक्षित ज़िंदगी बसर कर सकें और बहस कर सकें। मुझे कृष्ण की मईया यशोदा भी याद आती हैं जो किसी और के बालक को अपना बालक बनाकर पालतीं हैं। फिर मेहनतकश वर्ग के उस माँ को कैसे ना याद करूँ जो तमाम शोषण को नज़रन्दाज़ करते हुए और अपने बच्चे को चिपकाए हुए रोज़ मेहनत और मजूरी करती है और अपना व अपने परिवार का भरण पोषण करती हैं।

फिर उन माताओं का क्या जो आज अपने ही बच्चों के लिए एक बोझ हैं? कोई बृद्धा आश्रम में पड़ी हैं तो कोई अपने ही घर में किसी अनचाही वस्तु में परिवर्तित हो गईं हैं। ऐसी ना जाने कितनी माएं हैं। वैसे माँ काशी में भी हैं, वृंदावन में भी और सोनागाछी में भी।

मुझे उन सारी माओं से सहानुभूति हैं जिन्होंने पुरुषसत्तात्मक और सामंती समाज की चक्की में पिसकर अपने जीते जी ही अपना वजूद खो दिया, फलां की माँ, फलां की पत्नी और फलां की बेटी-बहु नामक उपनामों में बदल गईं और इसी को वो अपनी नियति और अपना वजूद मान लिया।

आज जब हम अपनी अपनी माँ को याद कर रहें हैं, उनकी तस्वीरों को शेयर कर रहें हैं तो आशा करता हूँ कि हम अपने भीतर अपनी और दुनियां की सारी मां व स्त्री के "स्वतंत्र वजूद" को स्वीकार करने का माद्दा भी पैदा करने का प्रयास करेगें और उनकी सनातन पीड़ा से मुक्ति में अपना हर संभव योगदान भी देंगें, क्योंकि एक स्त्री का अपना एक स्वतंत्र वजूद भी होता है या होना चाहिए माँ, बहन, बेटी, पत्नी, प्रेमिका और विश्वास व मान्यताओं आदि के परे भी। और दुनियां की कोई भी माँ हमें प्यार, सम्मान, स्नेह और सत्य सिखलाती है नफ़रत और हिंसा नहीं।

#आज mother's day है my mother day नहीं।

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