Monday, May 7, 2018

फ़िल्म 102 Not Out : जिओ ज़िंदादिली से भरपूर ज़िन्दगी !


किसी भी इंसान के जीवन का मूल लक्ष्य क्या है? इस प्रश्न का सीधा जवाब है ख़ुशी की तलाश। इंसान जो कुछ भी करता है या करना चाहता है या नहीं भी करता है, उसके पीछे का कारण ख़ुशी नहीं तो और क्या है? दुःख का कारण क्या है? इस सवाल के जवाब में सिद्धार्थ गौतम बुद्ध हो जाते हैं और फिर गहन चिंतन-मनन के पश्चात जो जवाब उन्हें सूझता है वो यह है कि सुख और दुःख एक अंदुरुनी मामला है हम नाहक ही उसे बाहर ढूंढते रहते हैं। 
आज की दुनियां में भी इंसान चैन पाने के लिए बेचैन है। वो अमूमन भौतिक चीज़ों और नकली दुनियावी आडंबरों और दिखावे में सुख तलाशता रहता है जबकि वो मन की चीज़ है। मन जिसे कोई बाहरी चीज़ नहीं बल्कि अंदुरुनी चीज़ संचालित करती है लेकिन इंसान के पास इतना वक्त ही कहाँ कि वो अपने अंदर की शक्ति को पहचाने और उसका समुचित उपयोग करे और ऐसा करने के लिए किसी भी बाहरी आडंबर की ज़रूरत नहीं है बल्कि उसके भीतर पैशन, जुनून और जीवन का एक एक कतरा निचोड़कर पी लेने के माद्दे का होना ज़रूरी है। कनफ्यूशियस कहता है - "ऐसा काम चुनें, जो करना पसंद हो। इस तरह आपको ज़िन्दगी भर काम करने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी"
एक बार इंसान अपनी शक्ति को पहचान ले और तमाम किंतु-परंतु को दरकिनार कर अपने मनपसंद के काम में भीड़ जाए, फिर उसे दुनियां का कोई भय भयभीत नहीं कर सकता और ना ही कोई निराशा ही उसे निराश कर सकती है। लेकिन समस्या यह है कि अमूमन लोग यहां जीवन जीते कम, जीने का ढोंग ज़्यादा करते हैं। वो ना ख़ुद सुखी होते हैं और ना दूसरों को ही कोई सुख दे सकते हैं जबकि उनकी भी इच्छा सुख ही होती है। तभी तो फ़िल्म में 102 नॉट आउट वाला चरित्र कहता है - ठकेला, पकेला, बोरिंग इंसान के साथ ज़िन्दगी अच्छी और लंबी नहीं हो सकती।
किसी भी बात के लिए देरी कभी नहीं होती, वैसे भी कहावत मशहूर है कि जब जागो तभी सवेरा। फिर जहां तक सवाल इंसानी रिश्ते नातों का है तो तमाम मजबूरियों, किंतु-परंतु, I hope you will understand से ऊपर उठकर जिस रिश्ते की डोर ज़िम्मेवारियों के साथ ही साथ सुख, शांति और सुकून से न बंधी हो, वो जितनी जल्दी ख़त्म हो जाए उतना ही बेहतर है। तभी तो फ़िल्म में एक 102 साल का वृद्ध अपने बेटे (पोते) की वजह से अपने 75 साल के बेटे की हालत और झुके हुए कंधे को देखकर कहता है - "बेटा अगर नालायक निकले तो उसे भूल जाना चाहिए और केवल उसका बचपन याद रखना चाहिए।" क्योंकि बचपन निःस्वार्थ और मासूम होता है। यही बात अन्य रिश्तों पर भी लागू होती है। इसी निःस्वार्थपाना और मासूमियत को बड़ी ही शिद्दत से गढ़ता है यह फ़िल्म। वैसे भी जिसने अपने बचपना खो दिया, निःस्वार्थ भाव को भुला दिया और मासूमियत का गला रेत दिया वो इंसान नहीं बल्कि दो पैर पर चलता हुआ भौतिक वस्तुओं में सुख तलाश करता काफ़्का का एक मेटॉरफॉसिस मात्र है। बहरहाल, फ़िल्म पर कुछ और बात करूं उससे पहले एक शेर अर्ज़ करने का मिजाज़ बन रहा है। फ़ैजाबाद के एक अजीम शायर थे इमाम बक्श नाशिक़ (1772 - 1838) उन्होंने एक बाकमाल शेर लिखा था कि
ज़िन्दगी ज़िंदादिली का नाम है
मुर्दादिल क्या ख़ाक जिया करते हैं
इसी फिलॉसफी को केवल तीन पात्रों के माध्यम से बड़े ही रोचक अंदाज़ में प्रस्तुत करती है यह फ़िल्म, जिसका अंदाज़ कुछ कुछ हृषीकेश मुखर्जी की फ़िल्म आनंद वाली ही है। आंनद नामक वो फ़िल्म याद तो है ना जिसमें राजेश खन्ना का चरित्र कैंसर जैसा लाइलाज बीमारी से पीड़ित होते हुए भी लोगों में जमकर ज़िंदादिली बांटता है और उसके मरने के बाद यह संवाद गूंजता है कि "आंनद मारा नहीं, आनंद मरते नहीं।" 102 नॉट आउट में भी आखिरी में एक मौत होती है और होता है पर्दे पर एक ब्लैकआउट और फिर एक सिटी सुनाई पड़ती है उस ब्लैकआउट में। इसका तात्पर्य भी आनंद वाली उस संवाद की तरह है बल्कि उससे कुछ ज़्यादा ही बाकमाल कि वो चरित्र अमर होते हैं जो अपने दुःख दर्द से ऊपर उठकर दूसरे को सीधी रीढ़ के साथ जीना सिखलाते हैं। लेकिन यहां तो आलम यह है कि लोग जीते जी जीना भूल जाते हैं। बहरहाल, इन दोनों फिल्में में एक समानता यह है कि सीनियर बच्चन साहब इन दोनों ही फ़िल्में में बड़ी शिद्दत से मौजूद हैं। लेकिन उस आनंद में और इस 102 नॉट आउट में बच्चन साहब के अंदाज़ में ज़मीन और आसमान का अंतर है। किसी ने बिल्कुल सच कहा है कि कलाकार की उम्र जैसे जैसे बढ़ती जाती है वैसे वैसे उसकी कला और जवान होती जाती है, बशर्ते वो निरंतर प्रयासरत रहे और उतनी ही शिद्दत से भिड़ा रहे। 102 नॉट आउट में भी बच्चन साहब का अभिनय अपने पूरे जवानी के जोश से लबरेज़ है। फ़िल्म पर और बातें हों उससे पहले एक बात यह कि वर्तमान समय में और ख़ासकर हिंदी में कोई ढंग का फ़िल्म समालोचक शायद नहीं है, जो है उनमें से अधिकतर समालोचना नहीं बल्कि FIR लिखने में महारत हासिल रखते हैं। यदि होते तो बेहतरीन फिल्मों पर बेहतरीन लेखन करते और ख़राब फिल्मों को ख़ारिज, लेकिन पूंजी से संचालित वर्तमान समय में बिल्ली के गले में घंटी बंधने का जोखिम कौन ले?
खैर, तत्काल बात यह कि यह एक टोकेटिव फ़िल्म है जिसके कई संवाद दिल को छू तो लेते हैं लेकिन यह फ़िल्म ज़्यादा कॉम्प्लिकेशन में नहीं पड़ती। यहां हास्य भी है तो आंसू भी। एकाध जगह गंभीरता भी है लेकिन तभी एक पांच आता है और आपका मिजाज़ लाइट बना देता है। यह गुजराती कॉमर्शियल नाटकों स्टाइल है कि हंसते खेलते निकल लो और यह फ़िल्म भी एक गुजराती नाटक का सिनेमाई वर्जन है। जिसकी चाल हृषीकेश मुखर्जी की आनंद वाली तो है बस मामला थोड़ा इधर का उधर और उधर का इधर है। हां, जिस प्रकार आनंद में बेहतरीन संगीत था यहां उसका सर्वथा अभाव है और शायद उसकी कमी भी नहीं खलती है। एक 102 साल के बाप का अपने 75 साल के बेटे को वृद्ध आश्रम भेजने की परिकल्पना ही गुदगुदाने के लिए काफी है और फर इससे बचने के लिए बाप द्वारा जो शर्तें लादी जातीं है वो हास्य, व्यंग्य और अन्य इमोशन को उत्पन्न करते हुए जीवन और जीवन जीने के तरीक़े की एक महानतम दर्शन से रूबरू कराया जाती हैं। बहरहाल, फ़िल्म में कुछ समस्याएं भी हैं लेकिन वर्तमान में भारतीय सिनेमा जिन मुकामों पर खड़ा है वहां हम तत्काल कोई ग्रेट आर्ट की उम्मीद कर भी नहीं सकते क्योंकि अगर फ़िल्म ग्रेट हुई तो ना उसे वितरक मिलेगें, ना हॉल और अगर ग़लती से यह दोनों मिल गए तो दर्शकों के नहीं मिलने की पूर्ण गारेंटी तो होगी ही होगी।
एक गुजराती नाटक से प्रभावित यह फ़िल्म एक महान कलाकार की एक दूसरे महानतम कलाकार को श्रद्धांजलि भी माना जा सकता है - इशारों इशारों में। इस फ़िल्म में 102 साल के अमिताभ बच्चन के चरित्र का गेटअप प्रसिद्ध चित्रकार मकबूल फ़िदा हुसैन की तरह हैं जिन्हें हम सबने अघोषित देश निकाला दे दिया था और बेचारे अन्तः अपनी धरती और अपनी ज़मीन से दूर प्राण त्यागने को अभिशप्त हुए। कहा जाता है कि वो अमिताभ ही हैं जिन्होंने फ़िल्म के निर्देशक के सामने अपने चरित्र का गेटअप मकबूल फिदा हुसैन की तरह रखने का प्रस्ताव दिया जिसे स्वीकार कर लिया गया और जिन्हें हमने जीते जी मार डाला आज वो रुपहले पर्दे के मार्फ़त पूरी दुनियां में सजीव हो रहें हैं। अब यह एक कलाकार का दूसरे कलाकार के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि नहीं तो और क्या है? वैसे भी जब बात सीधे-सीधे कहने में भावनाओं का आहत होने का ड्रामा खुद जोश से खेला जाता है वैसे माहौल में एक कलाकार चुप नहीं होता बल्कि अपनी सच्ची भावनाएं प्रतीकों में व्यक्त करता है, उदाहरण के लिए आप विश्व के उन देशों की कलात्मक अभिव्यक्ति देख सकते हैं जहां बात सीधे-सीधे कहने की आज़ादी उतनी नहीं है और आजकल हमारे भी देश में भावनाएं कुछ ज़रूरत से ज़्यादा ही आहत होकर बेवजह हिंसक भी हो रहीं हैं और उसे सत्ता का मौन समर्थन भी हासिल हो रहा है। अच्छे से अच्छा बड़बड़िया नेता इन बातों पर मनमोहन हो जा रहे हैं और उनका मौन अन्तः गलत का समर्थन ही हो जाता है। बहरहाल, वोट बैंक की राजनीति जो ना कराए!
इस फ़िल्म पर अगर इससे ज़्यादा बात किया तो आपका फ़िल्म देखने का आनंद ही ख़त्म हो जाने का ख़तरा है इसलिए जाइए और यह फ़िल्म देख आइए, अगर अब तक नहीं देखे हैं तो। आप अमिताभ बच्चन को पसंद करते हो या ना करते हों, आप ऋषि कपूर के प्रशंसक हों ना हो, आप निर्देशक उमेश शुक्ला के नाम से परिचित हों या ना हों; आपने नाटक के क्षेत्र में सौम्य जोशी का नाम सुना हो या ना सुना हो - इस बात से कोई फ़र्क नहीं पड़ता। तमाम बातों में एक बात यह कि इस फ़िल्म से कुछ नहीं तो जीवन को जीने का सलीका ही सिख लीजिए, क्योंकि यह फ़िल्म नहीं बल्कि एक फिलॉसफी है जीवन को जीवन की तरह जीने का और अगर इस फ़िल्म को देखने के पश्चात भी अगर आपके जीवन में कोई बदलाव नहीं आता तो मुझे आपसे कुछ नहीं कहना। 
सनद रहे, जिसे हम रुकावट मानते हैं वो दरअसल एक चुनौती होता है, जिसे पर कर लिए तो सार्थकता हाथ लगती है नहीं तो जो है वो तो है और होगा ही।

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