मध्यप्रदेश का एक किसान 45 डिग्री सेल्सियस में 4 दिन से मंडी में अपनी फसल की तुलाई होने का इंतज़ार लाइन में लगकर करता है और अन्तः उसकी मौत हो जाती है। अब मरने से पहले मूलचंद नामक इस किसान ने "हे राम" या "भारत माता की जय" या "मेरा भारत महान" का जयघोष किया था या नहीं, यह अभी तक पता नहीं चल सका है। यह भी संभव हो कि मरते वक्त इसका पेट ख़ाली हो और उसके मुंह से "आलू" "चना" या 'प्याज़" नामक शब्द निकल हो। यह किसको वोट देता था और किसकी भक्ति करता था, यह भी अभी तक पता नहीं चल सका है। अगर पता चल जाता तो कहीं न कहीं से एक ट्यूट ज़रूर आता।
वैसे भी यह कोई ख़ास ख़बर नहीं है क्योंकि देश "हर हर घर घर" की भक्ति या विरोध में मस्त है, लीन है और व्यस्त है। बड़ा बड़ा विकास हो रहा है, इन फालतू की बातों पर कौन ध्यान दे!
वैसे भी इस देश का किसान, मजदूर, बेरोज़गार नवयुवक आदि एक कीड़े में परिवर्तित कर दिया गया है, एकदम काफ़्का की कहानी "मेटामोरफॉसिस" की तरह। जो धर्म, जाति, देशप्रेम, संस्कृति, नैतिकता, मर्यादा आदि के नाम पर या तो मानसिक ग़ुलामी करने को अभिशप्त है या अराजक होने को या फिर जीने की जीतोड़ कोशिश में अपने प्राण त्यागने को। यह सुनियोजित साजिश के तहत की जानेवाली हत्याएं हैं, एक्सिडेंटल डेथ या आत्महत्या की शक्ल में और इन हत्याओं के लिए वो सब ज़िम्मेवार हैं जिनपर भी इनकी सूरत बदलने की जवाबदेही और ज़िम्मेदारी है, या होती है।
कोई सत्ता के घमंड में चूर है तो कोई छीन गई सत्ता को कैसे भी वापस लाने की जुगाड़ में। कोई अपना जुगाड़ में लगा है तो कोई अपनों की जुगाड़ में। कहीं अपनी हवाई उपलब्धियों का हवा-हवाई और आक्रामक प्रचार है तो कहीं उस हवाई फायर का पुरज़ोर हवाई विरोध और समर्थन और कुछ हम आप जैसे भी महात्मा हैं जो फेसबूक पर पोस्ट मात्र डालकर लाइक कमेंट के खेल से अपनी सार्थकता और सामाजिक सरोकरता सिद्ध करने में लगे हैं। हम सब मिगुएल द सर्वांते के उपन्यास के पात्र डॉन क्युकजोर्ट बन चुके हैं जो सामाजिकता और सरोकार के नाम पर हवाई लड़ाइयों में मस्त है। हमारे हाथों में बरछी, भला, बल्लम की जगह चाइनीज़, कोरियन, अमेरिकन आदि मोबाइल है फ्री के डाटा कनेक्शन के साथ और दिन रात इसमें उंगली करने को अभिशप्त हो गए हैं। टीवी डिबेट से हम क्रांति की उम्मीद करने वाले यूटोपियन पिस्सू बन गए हैं हम। बाकी सच में और यथार्थ की धरातल पर समाज को सुंदर, सुलभ और मानवीय मेहनकश वर्ग के सर्वथा अनुकूल बनाने के लिए कौन क्या कर रहा है, यह तथ्य हम सब जानते हैं - अब उसे माने या ना माने यह अलग बात है। वैसे भी पूंजीपतियों के टुकड़ों पर चलने वाली पार्टियां और पलने वाले नेता क्या ख़ाक सेवा करेगें देश के आवाम की।
पूरे देश में किसानों की दैनीय स्थिति के बारे में शायद ही कोई अनभिज्ञ होगा और अगर कोई अनभिज्ञ है तो उस महान आत्मा को 101 तोपों की सलामी। तो साहिबान, लीजिए प्रस्तुत है उस मारे हुए किसान की तस्वीर ताकि आपको दुःख जैसे महसूस कुछ करने में ज़्यादा ज़ोर ना लगाना पड़े। तो आइए हम सब "जय जवान, जय किसान और जय विज्ञान" कहते हुए दुःखी जैसा कुछ इमोशन क्रिएट करते हैं। हमारी भावनाएं मिथकीय चरित्रों के लिए जागती हैं और जागती आखों और जीवित मनुष्यों के लिए ना जाने कब का हमारा हृदय पत्थर हो गया है, आंखों के आंसू सूख चुके हैं और गुस्से का हस्तमैथून हो चुका है।
बतोलेबाज़ी और जुमलेबाजी और सत्य का फ़र्क ना जाने कब का भूल चुके हैं हम। सच हमने जाना नहीं, पढ़ा नहीं, खोजा नहीं तो सच सच हो या ना हो लेकिन झूठ भी सच ही होगा। सवाल यह नहीं कि हम किसको मानते हैं बल्कि सवाल यह है कि हम सच में किसको जानते हैं, एकदम सही सही।
यह उस किसान की एक फाइल फोटो है। ग़ौर से देखिए इसके सिंघासन को, इसकी फसल ही इसका सिंघासन है और यह आशा भरी नजरों से पता नहीं किधर देख रहा है। पता नहीं किससे इसे उम्मीद है अब भी। देश का पेट भरनेवाला यह किसान खुद कैसा दिखता है, यह भी देख ही लीजिए। प्रधानसेवक के चेहरे से इसके चेहरे का मिलान भी कर लीजिए। उसकी दर्दनाक मौत (हत्या) की तस्वीरें और मौत का तमाशा देखते लोगों की तस्वीर भी नेट पर उपलब्ध हैं। अगर इस फोटो से सच्ची फिलिंग नहीं आ रही तो कृपया एल बार उन तस्वीरों का भी अवलोकन करें।
इस फालतू के स्टेटस को पढ़ने में जो कीमत समय गया उसकी भरपाई हम पतंजलि के स्वदेशी प्रोडक्ट के साथ आईपीएल का T20 क्रिकेट मैच देखकर या कर्नाटक पर गर्मागर्म बहस करके कर सकतें हैं या कुछ नहीं तो आराम से खाते - पीते मोदी-राहुल-कम्युनिस्ट-समाजवादी, हिन्दू-मुसलमान, भारत-चीन-रूस-पाकिस्तान, देशप्रेमी-देशद्रोही ही कर लेते हैं - वक्त कट जाएगा, आराम से।
जब तक सर्वहारा, मजदूर, किसान, मेहनतकश और शोषित तबका एकजुट होकर अपने सच्चे प्रतिनिधित्व को सत्ता के शीर्ष पर काबिज़ नहीं करते और लगातार सतर्क और सक्रिय नहीं होते, तब तक स्थिति यही होगी। केवल इसको या उसकव वोट करने मात्र से हमारे लोकतांत्रिक अधिकारों का निर्वाह नहीं हो जाता। बाकी धोखा का क्या है वो तो हर रंग वाले रंगे सियार घूम ही रहें हैं नेता, बुद्धिजीवी, कलाकार का चोला धारण करके, जिसे धूमिल "कानून की भाषा बोलता हुआ अपराधियों का संयुक्त परिवार कहते हैं।" और सत्य के साथ पूरी ताक़त और मजबूती से खड़े होने के हमारे साहस का बलात्कार हो चुका है, रोज़ हो रहा है बाकी सत्यमेव जयते का कानफाड़ू जयघोष तो हर जगह है ही!!!
ज़िंदा लोग मौन रहें तो मुर्दे सवाल करते हैं।
इस देश को कौन चला रहा है ? इस सवाल का जवाब में हम सबके दिमाग में किसी नेता का नाम आता है जबकि सच यह है कि भारत जैसे कृषि प्रधान देश उसके मेहनतकश किसान और मज़दूर चलाते हैं लेकिन दुःखद सच यह है कि इस देश में सबसे ज़्यादा बुरी स्थिति इन्हीं की है। देश के नौजवानों की बेरोज़गारी, किसानों की आत्महत्या (जो दरअसल हत्या है), मज़दूरों और सर्वहारा क्लास की नारकीय ज़िन्दगी के बीच विकास का क़सीदा कोई कसाई भी नहीं पढ़ सकता।
यह व्यवस्था अगर केवल मुआवजे देने और हम केवल अत्यंत दुःखद वाक्यों से सराबोर फेसबूक स्टेटस लिखने में मशगूल हैं तो यह कहने में कोई गुरेज नहीं कि हमारी हत्या बहुत पहले हो चुकी है और हम केवल ज़िंदा रहने का नाटक कर रहें हैं।
जिस मुल्क में जिंदा लोग मुर्दा हो जाएं वहां लाशें बोलती हैं और अपने लहू और पसीने का हिसाब पाई पाई वसूलती हैं। जब ज़िंदा लोग सवाल करना बंद कर देते हैं और भक्ति में लीन हो जाते हैं तब मुर्दे सवाल करेगें और उनके सवालों को जिसने भी अनदेखा किया उसका नामोनिशान इतिहास से खत्म हो गया। अच्छे-अच्छे का सिंघासन डोल गया।
सिर्फ सरहद पर लड़नेवाला ही शाहिद नहीं होता बल्कि आंख खोलकर देखा जाय तो उस देश के किसान मजदूर और युवा रोज़-रोज़ तिल - तिल करके शाहिद हो रहे हैं।
जिस दिन इस देश के मेहनतकश एकजुट होकर अपना हिसाब मांगेंगे उस दिन पता चलेगा कि सच में किसने क्या किया। तबतक देश को जितना बहकाना है, बहका लो।