Monday, February 24, 2020

दमा दम मस्त कलंदर


आज सुबह-सुबह वडाली ब्रदर्स का गाया हुआ दमा दम मस्त कलंदर सुन रहा था. गाने के दौरान उन्होंने फ़कीर मस्त कलंदर से जुड़ा एक अद्भुत किस्से का ब्यान किया है. एक बार की बात है – मस्त कलंदर एक बेरी के पेड़ के नीचे नवाज़ पढ़ रहे थे कि बच्चे आए और उन्होंने एक पत्थर उठाकर बेरी के पेड़ की तरफ़ उछाल दिया. पत्थर बेरी के पेड़ को लगा, वहां से बेरी नीचे गिरी और बच्चे उसे खाने लगे. फिर दूसरा पत्थर मारा, फिर बेरी गिरी और बच्चों ने फिर से बेरी खाई. तीसरा पत्थर जब बच्चों ने चलाया तो पत्थर बेरी को न लगकर फकीर मस्त कलंदर को लग गई. मस्त कलंदर का ध्यान भंग हो गया और गुस्से में बोले – “किसने यह पत्थर चलाई, मैं उसको श्राप दूँगा.”
यह सुनकर बच्चे हाथ जोड़कर खड़े हो गए और बोले – बाबा, हम बेरी को पत्थर मार रहे थे, जो गलती से आपको लग गई. वैसे बाबा, बेरी पत्थर खाकर हमें खाने को बेरियां देतीं हैं लेकिन आप हमें श्राप देने की बात कर रहें हैं!”
मस्त कलंदर को अपनी भूल का एहसास हो गया और उन्होंने बच्चों से तीन वरदान यह कहते हुए माँगने को कहा कि – मागों, जो भी मांगना है.
बच्चों ने पहला वरदान मांगा – माफ़ी.
दूसरा वरदान माँगा – माफ़ी.
और तीसरा वरदान माँगा – माफ़ी.
फिर क्या था, मस्त कलंदर मस्त होकर उन्हें इस और उस दोनों लोकों के लिए माफ़ी दे दी.
कहने का तात्पर्य यह कि अगर गलती करनेवाला मासूम हो तो उसकी गलती के बदले माफ़ी ही सबसे उपयुक्त सजा है और बडकपन का घोतक भी. और यह भी कि अगर हमसे गलती होती है तो लाभ का अवसर मिलने पर भी माफ़ी की उम्मीद ही काफी है.  

Wednesday, July 4, 2018

अक्टूबर : रातरानी की हल्की और भीनीभीनी महक जैसी फ़िल्म


विश्विख्यात फ़िल्मकार Federico Fellini कहते हैं - "I don’t like the idea of “understanding” a film. I don’t believe that rational understanding is an essential element in the reception of any work of art. Either a film has something to say to you or it hasn’t. If you are moved by it, you don’t need it explained to you. If not, no explanation can make you moved by it."

सिनेमा एक कलात्मक अनुभव है जो आंखों, कानों और संवेदनात्मक ज्ञान के माध्यम से दिल और दिमाग पर असर करती है। यह सबकुछ हमारी समझ और समझदारी, दृष्टि और दृष्टिकोण पर निर्भर करता है। जब हम यह बात कर रहें हैं तो इसका संदर्भ उस सिनेमा से है जो सिनेमाई कला का सम्मान करने हुए सिनेमा रचता है ना कि अफ़ीम की गोली बनाता है। भारतीय संदर्भ में अमूमन सिनेमा अतिवाद की कला हो गई है और दर्शकों के दिमाग में यह बात पता नहीं कैसे घर कर गई है कि सिनेमा केवल मज़े या मनोरंजन मात्र के लिए देखा जाता है, कला या कलात्मक चिंतन के लिए। इसके पीछे का तर्क शायद बहुत पुराना है। एक से एक ग्रंथ अतिवाद और चमत्कार से भरा हुआ है और उसे सच मानने की मान्यता और परंपरा है। लेकिन इन सबके बीच भी कुछ लोग होते हैं जो कलात्मकता की परंपरा का बख़ूबी निर्वाह करते हुए भी यथार्थ का दामन नहीं छोड़ते। वो मात्र बॉक्स ऑफिस के लिए फिल्में नहीं बनाते बल्कि उनकी फिल्मों में मानवता और सिनेमाई कलात्मकता का एक मजबूत धागा बड़ी ही कुशलतापूर्वक पिरोया होता है। सत्यजीत रॉय, ऋत्विक घटक, विमल रॉय, राज कपूर, गुरुदत्त, महबूब खान, के आसिफ, वी शांताराम, कमाल अमरोही, जहानु बरुआ, श्याम बेनेगल, मृणाल सेन, अडूर गोपालकृष्णन, बुद्धदेव दासगुप्ता, जी अरविंदन, अपर्णा सेन, शाजी एन करुण, गिरीश कासरावल्ली, चेतन आनंद, मृणाल सेन, मणि कौल, अडूर गोपालकृष्णन, जी अरबिंदम, बुध्ददेव दासगुप्ता, शेखर कपूर, मीरा नायर और दीपा मेहता जैसे अनगिनत नाम हैं जिन्होंने भारतीय सिनेमा को एक सार्थकता प्रदान की है।
वर्तमान समय में कुछ बेहतरीन निर्देशक हैं जो सफलता के घिसे-पिटे फार्मूले और यूरोप की भद्दी नकल के बजाय कुछ अलग और सार्थक रचने का जोख़िम लेने की हिम्मत रखते हैं। विगत कुछ वर्षों में भारतीय सिनेमा में कुछ अद्भुत फ़िल्में बनी हैं, कम ही सही। अक्टूबर ऐसी ही एक गिलम है।
यह मानवीय संवेदना की एक अनुपम गाथा है। एक ऐसे समय में जब चारो तरफ़ इंसान से इंसान के बीच नफ़रत का बीजारोपण हो रहा है। जाति, धर्म, समुदाय और वाद के आधार पर फैसले सड़कों पर किए जा रहे हैं। असहमति को उग्रवाद और देशद्रोह का नाम दिया जा रहा है और इन सब बातों को राजनैतिक स्वीकृति प्रदान की जा रही है, वैसे वक्त में एक इंसान के प्रति एक इंसान के लगाव की कहानी कहना ठीक वैसा ही एहसास है जैसा भीषण गर्मी में बारिश की एक बूंद का शरीर पर पड़ना। नायक के दोस्त उसे कहते हैं कि तुम इतना अटैच क्यों हो रहे हो? जवाब में नायक कहता है - तुमलोग इतना डिटैच कैसे हो?
अक्टूबर सवालों के हल या वैसी फ़िल्म नहीं कि एक एक भजन गाया और गोलियों से छलनी हुआ नायक उठाकर ना केवल बैठ गया बल्कि उसमें सुपरपावर का समावेश हो गया और एक ही झटके में उसने सारे खलनायकों का खात्मा कर दिया। यह सवालों के सतही और फ़िल्म जवाब वाली फ़िल्म नहीं है बल्कि विपरीत परिस्थितियों में भी मानवीय धर्म का पालन करते हुए उससे शालीनतापूर्वक जूझने के एहसास वाली फिल्म है। जीवन की तमाम संगति-विसंगतियों की उपस्थिति यहां भी है। अब इससे आपका मनोरंजन होता है तो ठीक नहीं होता है तो भी ठीक।
एक दुर्घटना में साथ काम करनेवाली एक लड़की कोमा में चली जाती है। उसके साथ केवल उसका परिवार होता है और होता है फ़िल्म का वो सबसे नालायक पात्र जिसे सफलता का सफलतम फार्मूला चुपचाप अपनाने में मज़ा नहीं आता। उसके बाद लगभग पूरी फिल्म हॉस्पिटल के मशीनों की आवाज़ और कुछ बहुत ही छोटे-छोटे और मासूम जीवन प्रसंगों के सहारे आगे बढ़ती है। अन्तः फ़िल्म थोड़ी आशावादिता के साथ एक यूटर्न के साथ खत्म होती है और अन्तः बहुत सारी बातें प्रतीकों के सहारे कह जाती हैं।
फ़िल्म में कोई भी महास्टार या चमत्कारी अभिनेता-अभिनेत्री नहीं है लेकिन जो भी हैं अपनी जगह एकदम फिट हैं। फिर भी अभिनेत्री गीतांजलि राव को इस फ़िल्म में अभिनय करते देखना एक अभिनय प्रेमी दर्शक के लिए सुखद अनुभूति है। बाकी किसी भी कला के बारे में उतनी ही बात करनी चाहिए जितने में कि रस बना रहे और उत्सुकता बनी रहे, ज़्यादा घोंटने से मीठा भी कड़वा हो जाता है। तो आख़िरी और सबसे ज़रूरी बात है कि अगर बिना दिमाग वाली फ़िल्में आपको बोर करती हैं तो इस फ़िल्म को ज़रूर देखिए, अगर अभी तक नहीं देखें हैं तो।

Friday, May 25, 2018

कामयाबी इंतज़ार करवाती है, उसके लिए जल्दी मत मचाइए।

आलस से आराम मिल सकता है, पर यह आराम बड़ा ही महंगा पड़ता है। अमूमन सब सफल होना चाहते हैं, किसी भी स्थिति में कोई भी इंसान असफल तो नहीं ही होना चाहता है। तो क्या सफल होने का कोई गणित है? इसका जवाब है हाँ। जुगाड़ से इंसान को मौक़ा मिल सकता है, सफ़लता नहीं और सफलता का अर्थ केवल आर्थिक नहीं बल्कि सार्थक होना भी है। यह ज़रूरी नहीं कि जो सफल हो वो सार्थक भी हो। बहरहाल, सफल और सार्थक होने का रास्ता कठोर श्रम, निरंतर अभ्यास, मानसिक-बौद्धिक-शारीरिक और आध्यात्मिक (धार्मिक नहीं) तैयारी, उचित मार्गदर्शन, सही संगत, सकारात्मक नज़रिया और पर्याप्त धैर्य आदि के तप से होकर ही गुज़रता है, इसके अलावा कोई दूसरा मार्ग ना कभी था और ना कभी होगा। केवल मानसिक रूप से सोचते रहने मात्र से कुछ ख़ास हासिल नहीं हो सकता बल्कि उसके लिए प्रयासरत भी रहना पड़ता है। जैसे बार-बार रस्सी के घर्षण से पत्थर भी कटने लगता है, ठीक उसी प्रकार। कबीर भी कहते हैं -
करत-करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान ।
रसरी आवत-जात के, सिल पर परत निशान ।।
तो किसी भी कार्य में पूरे तन, मन और धन से लगना पड़ता है तभी उसे हासिल किया जा सकता है। “अगर किसी चीज़ को दिल से चाहो तो सारी कायनात उसे तुम से मिलाने में लग जाती है” ज़रूर सुना होगा। यह पंक्ति हमारे फ़िल्म और आजकल एक विज्ञापन में ख़ूब सुनाई पड़ रहा है लेकिन मूलतः यह पाब्लो कोइलो के विश्विख्यात उपन्यास एल्केमिस्ट का है। इसी को सिद्धांत के रूप में Law of Attraction कहा जाता है जो यह कहती है कि आप  अपने  जीवन  में  उस  चीज  को  आकर्षित  करते  हैं  जिसके  बारे  में  आप  सोचते  हैं। आपकी  प्रबल सोच हकीक़त  बनने  का  कोई  ना  कोई  रास्ता  निकाल लेती है। तो सोच को हकीक़त बनाना ही सफलता और सार्थकता की कुंजी हो सकती है।

कल एक दैनिक अखबार में "कामयाबी इंतज़ार करवाती है, उसके लिए जल्दी मत मचाइए" नामक शीर्षक से महानतम खिलाड़ी और वर्तमान में युवा क्रिकेट टीम के कोच और प्रशिक्षक राहुल द्रविड़ के विचार पढ़ने का मौक़ा मिला। उनके विचार आपके समक्ष जस का तस रख रहा हूँ। यह विचार उनको ही प्रेरित कर सकते हैं जो प्रेरित होना चाहते हैं। जो स्वयंभू हैं, उनका तो आजतक ना कुछ हुआ है और आगे होगा। राहुल को पढ़िए -

क्रिकेट ने मुझे एक बेहतर इंसान बनाया, लेकिन इसमें वक्त लगा अक्सर लोग पूछते हैं कि सफल होने का सूत्र क्या है। मैं मानता हूं कि संघर्ष करना जरूरी है और सफलता व असफलता दोनों ही इसके हिस्से हैं। आपको दोनों का सामना करना पड़ेगा। सफल होने के लिए आपको निरंतर जिज्ञासु होना होगा। ये जिज्ञासा ही है जो आपको अपनी रुचि को पहचानने में मदद करेगी। जब आप यह जान जाएंगे कि आपकी दिलचस्पी किसमें है तो आपको उस काम से प्यार हो जाएगा और आप उसे पूरी शिद्दत से कर पाएंगे। दूसरी ओर मुश्किल समय से मैंने सीखा है कि प्रेरणा आपके बहुत काम आती है। अक्सर लोग इसे किताबी ज्ञान मानते हैं, लेकिन मेरा अनुभव है कि प्रेरित करने वाली कोई भी बात आपको मुश्किल समय में मजबूत बनाने का काम करती है। अक्सर लोग सफल व्यक्ति को देखकर सोचते हैं कि इनके जीवन में कोई समस्या नहीं है या फिर इनकी जिंदगी में हमेशा से सबकुछ अच्छा था। ऐसा नहीं है। खेल को कॅरिअर के बनाने के दौरान मेरे और मेरे माता पिता के दिमाग में भी वही डर थे । जो एक सामान्य युवा और उसके , माता पिता के जेहन में होते हैं । लेकिन आपको इस डर को मैनेज करना होगा। इसके साथ अपने संघर्ष को भी अंजाम तक पहुंचाना होगा।

सफलता को लंबे समय तक बनाए रखने के लिए चाहिए मजबूत आधार युवा पीढ़ी के साथ एक समस्या है कि उसमें धैर्य की कमी है। वह सब कुछ जल्दी से हासिल कर लेना चाहती है, लेकिन आपको समझना होगा कि कामयाबी इंतजार करवाती है। मैं इस बात को एक चाइनीज बैंबू के माध्यम से समझाना चाहूंगा। एक चाइनीज बैंबू के बीज को अपने बगीचे में लगाइए और उसे सींचिए आप पाएंगे कि पहले एक साल में कोई अंकुर नहीं फूटा। फिर देखेंगे कि अगले पांच साल तक भी कोई अंकुर नहीं पनपा, लेकिन फिर एक दिन एक छोटा तिनका जमीन के बाहर नजर आएगा, जो आश्चर्यजनक रूप से बढ़ रहा है और सिर्फ 6 हफ्तों में 90 फीट का हो गया है। इस पौधे ने क्या किया 5 साल तक अपनी जड़ें जमाई ताकि वह अपनी 90 फीट की ऊंचाई को लंबे समय तक संभाल सके। कामयाब होना आसान है, लेकिन उसे लंबे समय तक बनाए रखने के लिए एक मजबूत आधार की जरूरत होती है। इसमें समय लगता है।
परिणाम एकदम आखिरी प्रक्रिया है, उसके पहले की तैयारी महत्वपूर्ण है। लोग कहेंगे कि यह चाइनीज बैंबू 6 महीने में 90 फीट का हो गया, लेकिन मैं कहूंगा इसे यहां तक पहुंचने में 5 साल 6 महीने लगे

ज्यादा से ज्यादा सहयोगी बनाइए

हर सफल व्यक्ति के पीछे ढेरों लोगों का सहयोग होता है। यह सपोर्ट ही है, जो आपको असफलता के बाद फिर से खड़ा होने की उम्मीद देता है। मेरे साथ यह कई बार हुआ जब मुझे परिवार के साथ-साथ ऐसे लोगों का भी सहयोग मिला जिनसे मुझे कोई उम्मीद नहीं थी इसलिए ज्यादा से ज्यादा सहयोगी बनाइए। वे आपको बेहतर बनाने के लिए अपनी अमूल्य राय देंगेजो आपको सफलता के करीब ले जाएगी। याद रखेंसफलता लक्ष्य नहीं एक यात्रा है, जिसमें आपको कई बार निराश होना पड़ेगा, लेकिन यह इसका जरूरी हिस्सा है। आपकी दृढ़ता भी आपको इस तक पहुंचने में मदद करेगी। कामयाबी के फल के लिए दृढ़ता का बीज रोपना जरूरी है। इतना ही नहीं जब वह आपको जाए तो उसकी इज्जत भी करें।

Monday, May 21, 2018

दरअसल कानून की भाषा बोलता हुआ यहां अपराधियों का एक संयुक्त परिवार है।


मध्यप्रदेश का एक किसान 45 डिग्री सेल्सियस में 4 दिन से मंडी में अपनी फसल की तुलाई होने का इंतज़ार लाइन में लगकर करता है और अन्तः उसकी मौत हो जाती है। अब मरने से पहले मूलचंद नामक इस किसान ने "हे राम" या "भारत माता की जय" या "मेरा भारत महान" का जयघोष किया था या नहीं, यह अभी तक पता नहीं चल सका है। यह भी संभव हो कि मरते वक्त इसका पेट ख़ाली हो और उसके मुंह से "आलू" "चना" या 'प्याज़" नामक शब्द निकल हो। यह किसको वोट देता था और किसकी भक्ति करता था, यह भी अभी तक पता नहीं चल सका है। अगर पता चल जाता तो कहीं न कहीं से एक ट्यूट ज़रूर आता।
वैसे भी यह कोई ख़ास ख़बर नहीं है क्योंकि देश "हर हर घर घर" की भक्ति या विरोध में मस्त है, लीन है और व्यस्त है। बड़ा बड़ा विकास हो रहा है, इन फालतू की बातों पर कौन ध्यान दे!
वैसे भी इस देश का किसान, मजदूर, बेरोज़गार नवयुवक आदि एक कीड़े में परिवर्तित कर दिया गया है, एकदम काफ़्का की कहानी "मेटामोरफॉसिस" की तरह। जो धर्म, जाति, देशप्रेम, संस्कृति, नैतिकता, मर्यादा आदि के नाम पर या तो मानसिक ग़ुलामी करने को अभिशप्त है या अराजक होने को या फिर जीने की जीतोड़ कोशिश में अपने प्राण त्यागने को। यह सुनियोजित साजिश के तहत की जानेवाली हत्याएं हैं, एक्सिडेंटल डेथ या आत्महत्या की शक्ल में और इन हत्याओं के लिए वो सब ज़िम्मेवार हैं जिनपर भी इनकी सूरत बदलने की जवाबदेही और ज़िम्मेदारी है, या होती है।
कोई सत्ता के घमंड में चूर है तो कोई छीन गई सत्ता को कैसे भी वापस लाने की जुगाड़ में। कोई अपना जुगाड़ में लगा है तो कोई अपनों की जुगाड़ में। कहीं अपनी हवाई उपलब्धियों का हवा-हवाई और आक्रामक प्रचार है तो कहीं उस हवाई फायर का पुरज़ोर हवाई विरोध और समर्थन और कुछ हम आप जैसे भी महात्मा हैं जो फेसबूक पर पोस्ट मात्र डालकर लाइक कमेंट के खेल से अपनी सार्थकता और सामाजिक सरोकरता सिद्ध करने में लगे हैं। हम सब मिगुएल द सर्वांते के उपन्यास के पात्र डॉन क्युकजोर्ट बन चुके हैं जो सामाजिकता और सरोकार के नाम पर हवाई लड़ाइयों में मस्त है। हमारे हाथों में बरछी, भला, बल्लम की जगह चाइनीज़, कोरियन, अमेरिकन आदि मोबाइल है फ्री के डाटा कनेक्शन के साथ और दिन रात इसमें उंगली करने को अभिशप्त हो गए हैं। टीवी डिबेट से हम क्रांति की उम्मीद करने वाले यूटोपियन पिस्सू बन गए हैं हम। बाकी सच में और यथार्थ की धरातल पर समाज को सुंदर, सुलभ और मानवीय मेहनकश वर्ग के सर्वथा अनुकूल बनाने के लिए कौन क्या कर रहा है, यह तथ्य हम सब जानते हैं - अब उसे माने या ना माने यह अलग बात है। वैसे भी पूंजीपतियों के टुकड़ों पर चलने वाली पार्टियां और पलने वाले नेता क्या ख़ाक सेवा करेगें देश के आवाम की।
पूरे देश में किसानों की दैनीय स्थिति के बारे में शायद ही कोई अनभिज्ञ होगा और अगर कोई अनभिज्ञ है तो उस महान आत्मा को 101 तोपों की सलामी। तो साहिबान, लीजिए प्रस्तुत है उस मारे हुए किसान की तस्वीर ताकि आपको दुःख जैसे महसूस कुछ करने में ज़्यादा ज़ोर ना लगाना पड़े। तो आइए हम सब "जय जवान, जय किसान और जय विज्ञान" कहते हुए दुःखी जैसा कुछ इमोशन क्रिएट करते हैं। हमारी भावनाएं मिथकीय चरित्रों के लिए जागती हैं और जागती आखों और जीवित मनुष्यों के लिए ना जाने कब का हमारा हृदय पत्थर हो गया है, आंखों के आंसू सूख चुके हैं और गुस्से का हस्तमैथून हो चुका है।
बतोलेबाज़ी और जुमलेबाजी और सत्य का फ़र्क ना जाने कब का भूल चुके हैं हम। सच हमने जाना नहीं, पढ़ा नहीं, खोजा नहीं तो सच सच हो या ना हो लेकिन झूठ भी सच ही होगा। सवाल यह नहीं कि हम किसको मानते हैं बल्कि सवाल यह है कि हम सच में किसको जानते हैं, एकदम सही सही।
यह उस किसान की एक फाइल फोटो है। ग़ौर से देखिए इसके सिंघासन को, इसकी फसल ही इसका सिंघासन है और यह आशा भरी नजरों से पता नहीं किधर देख रहा है। पता नहीं किससे इसे उम्मीद है अब भी। देश का पेट भरनेवाला यह किसान खुद कैसा दिखता है, यह भी देख ही लीजिए। प्रधानसेवक के चेहरे से इसके चेहरे का मिलान भी कर लीजिए। उसकी दर्दनाक मौत (हत्या) की तस्वीरें और मौत का तमाशा देखते लोगों की तस्वीर भी नेट पर उपलब्ध हैं। अगर इस फोटो से सच्ची फिलिंग नहीं आ रही तो कृपया एल बार उन तस्वीरों का भी अवलोकन करें।
इस फालतू के स्टेटस को पढ़ने में जो कीमत समय गया उसकी भरपाई हम पतंजलि के स्वदेशी प्रोडक्ट के साथ आईपीएल का T20 क्रिकेट मैच देखकर या कर्नाटक पर गर्मागर्म बहस करके कर सकतें हैं या कुछ नहीं तो आराम से खाते - पीते मोदी-राहुल-कम्युनिस्ट-समाजवादी, हिन्दू-मुसलमान, भारत-चीन-रूस-पाकिस्तान, देशप्रेमी-देशद्रोही ही कर लेते हैं - वक्त कट जाएगा, आराम से।
जब तक सर्वहारा, मजदूर, किसान, मेहनतकश और शोषित तबका एकजुट होकर अपने सच्चे प्रतिनिधित्व को सत्ता के शीर्ष पर काबिज़ नहीं करते और लगातार सतर्क और सक्रिय नहीं होते, तब तक स्थिति यही होगी। केवल इसको या उसकव वोट करने मात्र से हमारे लोकतांत्रिक अधिकारों का निर्वाह नहीं हो जाता। बाकी धोखा का क्या है वो तो हर रंग वाले रंगे सियार घूम ही रहें हैं नेता, बुद्धिजीवी, कलाकार का चोला धारण करके, जिसे धूमिल "कानून की भाषा बोलता हुआ अपराधियों का संयुक्त परिवार कहते हैं।" और सत्य के साथ पूरी ताक़त और मजबूती से खड़े होने के हमारे साहस का बलात्कार हो चुका है, रोज़ हो रहा है बाकी सत्यमेव जयते का कानफाड़ू जयघोष तो हर जगह है ही!!!
ज़िंदा लोग मौन रहें तो मुर्दे सवाल करते हैं।
इस देश को कौन चला रहा है ? इस सवाल का जवाब में हम सबके दिमाग में किसी नेता का नाम आता है जबकि सच यह है कि भारत जैसे कृषि प्रधान देश उसके मेहनतकश किसान और मज़दूर चलाते हैं लेकिन दुःखद सच यह है कि इस देश में सबसे ज़्यादा बुरी स्थिति इन्हीं की है। देश के नौजवानों की बेरोज़गारी, किसानों की आत्महत्या (जो दरअसल हत्या है), मज़दूरों और सर्वहारा क्लास की नारकीय ज़िन्दगी के बीच विकास का क़सीदा कोई कसाई भी नहीं पढ़ सकता।
यह व्यवस्था अगर केवल मुआवजे देने और हम केवल अत्यंत दुःखद वाक्यों से सराबोर फेसबूक स्टेटस लिखने में मशगूल हैं तो यह कहने में कोई गुरेज नहीं कि हमारी हत्या बहुत पहले हो चुकी है और हम केवल ज़िंदा रहने का नाटक कर रहें हैं।
जिस मुल्क में जिंदा लोग मुर्दा हो जाएं वहां लाशें बोलती हैं और अपने लहू और पसीने का हिसाब पाई पाई वसूलती हैं। जब ज़िंदा लोग सवाल करना बंद कर देते हैं और भक्ति में लीन हो जाते हैं तब मुर्दे सवाल करेगें और उनके सवालों को जिसने भी अनदेखा किया उसका नामोनिशान इतिहास से खत्म हो गया। अच्छे-अच्छे का सिंघासन डोल गया।
सिर्फ सरहद पर लड़नेवाला ही शाहिद नहीं होता बल्कि आंख खोलकर देखा जाय तो उस देश के किसान मजदूर और युवा रोज़-रोज़ तिल - तिल करके शाहिद हो रहे हैं।
जिस दिन इस देश के मेहनतकश एकजुट होकर अपना हिसाब मांगेंगे उस दिन पता चलेगा कि सच में किसने क्या किया। तबतक देश को जितना बहकाना है, बहका लो।

Monday, May 14, 2018

माँ कहते ही कितना कुछ एक साथ याद आने लगता है।

किसी भी मनुष्य के अनुभूतियों और ज्ञान के चक्षु जब खुलने लगते हैं तो माँ कहते ही स्मृतियों में एक साथ ना जाने कितने बिम्ब बनने लगते हैं। कभी गोर्की की माँ याद आती है, कभी हज़ार चौरासी की माँ, कभी मदर इंडिया की वो माँ जो किसी से जबरन "भारत माता की जय" नहीं बुलवाती और बहुमत के दम्भ में चूर होकर यह भी नहीं दहाड़ती कि यदि तुम ऐसा नहीं बोलते तो तुम देशद्रोही हो, बल्कि उसूलों की रक्षा के लिए अपने जिगरी बेटे को भी गोली मार देती है। फिर गोदान की गोबर की माँ भी है जो किसान से मज़दूर की ओर तेज़ी से अग्रसर होते होरी का पूरी जीवंतता से साथ देती है और आखिर में उस व्यवस्था का प्रतीकात्मक विरोध का प्रतीक भी बनती है जिसने होरी जैसे किसान की सज्जनता का खूब दुरुपयोग किया। धनियां को पता है कि प्रतिरोध ज़रूरी है परंपराओं से भी। मुझे the latter to a child who never born की माँ भी याद आ जाती है जो किसी भी शर्त पर अन्तः अपने नितांत निजी वजूद को समाप्त करने को कत्तई तैयार नहीं। मुझे रामायण की वो सीता याद आती है जो पति द्वारा परित्याग के बावजूद बड़ी ही बहादुरी से अपने बच्चों का कुशल पालन करती है और महाभारत की कुंती और द्रोपदी को कैसे भूल जा सकता है जिन्होंने कई मर्दों और पतियों का संसर्ग प्राप्त किया? वैसे माँ तो शकुंतला भी है, सावित्री भी और जगत जननी तो माता होती ही हैं जो अपने किसी भी बच्चे में कोई विभेद नहीं करतीं कभी भी, किसी भी परिस्थिति में। और फिर फ़िल्म राम-लखन, दूध का कर्ज़ और करण-अर्जुन आदि फिल्मों की भी माँ है जो अपने बच्चों को बुराई से लड़ने के लिए फौलाद बनाती हैं नाज़ुक good child नहीं। फिर "मेरे पास माँ है" वाली मां भी है।  फिर भगत सिंह और चंद्रशेखर जैसों की माँ भी है जिन्हें अपने बेटों की कुर्बानी पर गौरव का अनुभव होता है क्योंकि उनके बच्चों ने एक सुन्दर और एक ऐसे मानवीय समाज का सपना देखा था जहाँ किसी भी क़ीमत पर इंसान द्वारा इंसान का शोषण नहीं होगा। मुझे सति की याद भी आती है जो शक्ति का प्रतीक हैं ना कि केवल त्याग, बलिदान और ममता की मूरत।

सेना के उन लाखों जवानों की माँ को कौन भूल सकता है जिनके बच्चे रोज़ खतरों की आंधी में झुलसते हैं ताकि हम और आप चैन और सुकून की सुरक्षित ज़िंदगी बसर कर सकें और बहस कर सकें। मुझे कृष्ण की मईया यशोदा भी याद आती हैं जो किसी और के बालक को अपना बालक बनाकर पालतीं हैं। फिर मेहनतकश वर्ग के उस माँ को कैसे ना याद करूँ जो तमाम शोषण को नज़रन्दाज़ करते हुए और अपने बच्चे को चिपकाए हुए रोज़ मेहनत और मजूरी करती है और अपना व अपने परिवार का भरण पोषण करती हैं।

फिर उन माताओं का क्या जो आज अपने ही बच्चों के लिए एक बोझ हैं? कोई बृद्धा आश्रम में पड़ी हैं तो कोई अपने ही घर में किसी अनचाही वस्तु में परिवर्तित हो गईं हैं। ऐसी ना जाने कितनी माएं हैं। वैसे माँ काशी में भी हैं, वृंदावन में भी और सोनागाछी में भी।

मुझे उन सारी माओं से सहानुभूति हैं जिन्होंने पुरुषसत्तात्मक और सामंती समाज की चक्की में पिसकर अपने जीते जी ही अपना वजूद खो दिया, फलां की माँ, फलां की पत्नी और फलां की बेटी-बहु नामक उपनामों में बदल गईं और इसी को वो अपनी नियति और अपना वजूद मान लिया।

आज जब हम अपनी अपनी माँ को याद कर रहें हैं, उनकी तस्वीरों को शेयर कर रहें हैं तो आशा करता हूँ कि हम अपने भीतर अपनी और दुनियां की सारी मां व स्त्री के "स्वतंत्र वजूद" को स्वीकार करने का माद्दा भी पैदा करने का प्रयास करेगें और उनकी सनातन पीड़ा से मुक्ति में अपना हर संभव योगदान भी देंगें, क्योंकि एक स्त्री का अपना एक स्वतंत्र वजूद भी होता है या होना चाहिए माँ, बहन, बेटी, पत्नी, प्रेमिका और विश्वास व मान्यताओं आदि के परे भी। और दुनियां की कोई भी माँ हमें प्यार, सम्मान, स्नेह और सत्य सिखलाती है नफ़रत और हिंसा नहीं।

#आज mother's day है my mother day नहीं।

Monday, May 7, 2018

फ़िल्म 102 Not Out : जिओ ज़िंदादिली से भरपूर ज़िन्दगी !


किसी भी इंसान के जीवन का मूल लक्ष्य क्या है? इस प्रश्न का सीधा जवाब है ख़ुशी की तलाश। इंसान जो कुछ भी करता है या करना चाहता है या नहीं भी करता है, उसके पीछे का कारण ख़ुशी नहीं तो और क्या है? दुःख का कारण क्या है? इस सवाल के जवाब में सिद्धार्थ गौतम बुद्ध हो जाते हैं और फिर गहन चिंतन-मनन के पश्चात जो जवाब उन्हें सूझता है वो यह है कि सुख और दुःख एक अंदुरुनी मामला है हम नाहक ही उसे बाहर ढूंढते रहते हैं। 
आज की दुनियां में भी इंसान चैन पाने के लिए बेचैन है। वो अमूमन भौतिक चीज़ों और नकली दुनियावी आडंबरों और दिखावे में सुख तलाशता रहता है जबकि वो मन की चीज़ है। मन जिसे कोई बाहरी चीज़ नहीं बल्कि अंदुरुनी चीज़ संचालित करती है लेकिन इंसान के पास इतना वक्त ही कहाँ कि वो अपने अंदर की शक्ति को पहचाने और उसका समुचित उपयोग करे और ऐसा करने के लिए किसी भी बाहरी आडंबर की ज़रूरत नहीं है बल्कि उसके भीतर पैशन, जुनून और जीवन का एक एक कतरा निचोड़कर पी लेने के माद्दे का होना ज़रूरी है। कनफ्यूशियस कहता है - "ऐसा काम चुनें, जो करना पसंद हो। इस तरह आपको ज़िन्दगी भर काम करने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी"
एक बार इंसान अपनी शक्ति को पहचान ले और तमाम किंतु-परंतु को दरकिनार कर अपने मनपसंद के काम में भीड़ जाए, फिर उसे दुनियां का कोई भय भयभीत नहीं कर सकता और ना ही कोई निराशा ही उसे निराश कर सकती है। लेकिन समस्या यह है कि अमूमन लोग यहां जीवन जीते कम, जीने का ढोंग ज़्यादा करते हैं। वो ना ख़ुद सुखी होते हैं और ना दूसरों को ही कोई सुख दे सकते हैं जबकि उनकी भी इच्छा सुख ही होती है। तभी तो फ़िल्म में 102 नॉट आउट वाला चरित्र कहता है - ठकेला, पकेला, बोरिंग इंसान के साथ ज़िन्दगी अच्छी और लंबी नहीं हो सकती।
किसी भी बात के लिए देरी कभी नहीं होती, वैसे भी कहावत मशहूर है कि जब जागो तभी सवेरा। फिर जहां तक सवाल इंसानी रिश्ते नातों का है तो तमाम मजबूरियों, किंतु-परंतु, I hope you will understand से ऊपर उठकर जिस रिश्ते की डोर ज़िम्मेवारियों के साथ ही साथ सुख, शांति और सुकून से न बंधी हो, वो जितनी जल्दी ख़त्म हो जाए उतना ही बेहतर है। तभी तो फ़िल्म में एक 102 साल का वृद्ध अपने बेटे (पोते) की वजह से अपने 75 साल के बेटे की हालत और झुके हुए कंधे को देखकर कहता है - "बेटा अगर नालायक निकले तो उसे भूल जाना चाहिए और केवल उसका बचपन याद रखना चाहिए।" क्योंकि बचपन निःस्वार्थ और मासूम होता है। यही बात अन्य रिश्तों पर भी लागू होती है। इसी निःस्वार्थपाना और मासूमियत को बड़ी ही शिद्दत से गढ़ता है यह फ़िल्म। वैसे भी जिसने अपने बचपना खो दिया, निःस्वार्थ भाव को भुला दिया और मासूमियत का गला रेत दिया वो इंसान नहीं बल्कि दो पैर पर चलता हुआ भौतिक वस्तुओं में सुख तलाश करता काफ़्का का एक मेटॉरफॉसिस मात्र है। बहरहाल, फ़िल्म पर कुछ और बात करूं उससे पहले एक शेर अर्ज़ करने का मिजाज़ बन रहा है। फ़ैजाबाद के एक अजीम शायर थे इमाम बक्श नाशिक़ (1772 - 1838) उन्होंने एक बाकमाल शेर लिखा था कि
ज़िन्दगी ज़िंदादिली का नाम है
मुर्दादिल क्या ख़ाक जिया करते हैं
इसी फिलॉसफी को केवल तीन पात्रों के माध्यम से बड़े ही रोचक अंदाज़ में प्रस्तुत करती है यह फ़िल्म, जिसका अंदाज़ कुछ कुछ हृषीकेश मुखर्जी की फ़िल्म आनंद वाली ही है। आंनद नामक वो फ़िल्म याद तो है ना जिसमें राजेश खन्ना का चरित्र कैंसर जैसा लाइलाज बीमारी से पीड़ित होते हुए भी लोगों में जमकर ज़िंदादिली बांटता है और उसके मरने के बाद यह संवाद गूंजता है कि "आंनद मारा नहीं, आनंद मरते नहीं।" 102 नॉट आउट में भी आखिरी में एक मौत होती है और होता है पर्दे पर एक ब्लैकआउट और फिर एक सिटी सुनाई पड़ती है उस ब्लैकआउट में। इसका तात्पर्य भी आनंद वाली उस संवाद की तरह है बल्कि उससे कुछ ज़्यादा ही बाकमाल कि वो चरित्र अमर होते हैं जो अपने दुःख दर्द से ऊपर उठकर दूसरे को सीधी रीढ़ के साथ जीना सिखलाते हैं। लेकिन यहां तो आलम यह है कि लोग जीते जी जीना भूल जाते हैं। बहरहाल, इन दोनों फिल्में में एक समानता यह है कि सीनियर बच्चन साहब इन दोनों ही फ़िल्में में बड़ी शिद्दत से मौजूद हैं। लेकिन उस आनंद में और इस 102 नॉट आउट में बच्चन साहब के अंदाज़ में ज़मीन और आसमान का अंतर है। किसी ने बिल्कुल सच कहा है कि कलाकार की उम्र जैसे जैसे बढ़ती जाती है वैसे वैसे उसकी कला और जवान होती जाती है, बशर्ते वो निरंतर प्रयासरत रहे और उतनी ही शिद्दत से भिड़ा रहे। 102 नॉट आउट में भी बच्चन साहब का अभिनय अपने पूरे जवानी के जोश से लबरेज़ है। फ़िल्म पर और बातें हों उससे पहले एक बात यह कि वर्तमान समय में और ख़ासकर हिंदी में कोई ढंग का फ़िल्म समालोचक शायद नहीं है, जो है उनमें से अधिकतर समालोचना नहीं बल्कि FIR लिखने में महारत हासिल रखते हैं। यदि होते तो बेहतरीन फिल्मों पर बेहतरीन लेखन करते और ख़राब फिल्मों को ख़ारिज, लेकिन पूंजी से संचालित वर्तमान समय में बिल्ली के गले में घंटी बंधने का जोखिम कौन ले?
खैर, तत्काल बात यह कि यह एक टोकेटिव फ़िल्म है जिसके कई संवाद दिल को छू तो लेते हैं लेकिन यह फ़िल्म ज़्यादा कॉम्प्लिकेशन में नहीं पड़ती। यहां हास्य भी है तो आंसू भी। एकाध जगह गंभीरता भी है लेकिन तभी एक पांच आता है और आपका मिजाज़ लाइट बना देता है। यह गुजराती कॉमर्शियल नाटकों स्टाइल है कि हंसते खेलते निकल लो और यह फ़िल्म भी एक गुजराती नाटक का सिनेमाई वर्जन है। जिसकी चाल हृषीकेश मुखर्जी की आनंद वाली तो है बस मामला थोड़ा इधर का उधर और उधर का इधर है। हां, जिस प्रकार आनंद में बेहतरीन संगीत था यहां उसका सर्वथा अभाव है और शायद उसकी कमी भी नहीं खलती है। एक 102 साल के बाप का अपने 75 साल के बेटे को वृद्ध आश्रम भेजने की परिकल्पना ही गुदगुदाने के लिए काफी है और फर इससे बचने के लिए बाप द्वारा जो शर्तें लादी जातीं है वो हास्य, व्यंग्य और अन्य इमोशन को उत्पन्न करते हुए जीवन और जीवन जीने के तरीक़े की एक महानतम दर्शन से रूबरू कराया जाती हैं। बहरहाल, फ़िल्म में कुछ समस्याएं भी हैं लेकिन वर्तमान में भारतीय सिनेमा जिन मुकामों पर खड़ा है वहां हम तत्काल कोई ग्रेट आर्ट की उम्मीद कर भी नहीं सकते क्योंकि अगर फ़िल्म ग्रेट हुई तो ना उसे वितरक मिलेगें, ना हॉल और अगर ग़लती से यह दोनों मिल गए तो दर्शकों के नहीं मिलने की पूर्ण गारेंटी तो होगी ही होगी।
एक गुजराती नाटक से प्रभावित यह फ़िल्म एक महान कलाकार की एक दूसरे महानतम कलाकार को श्रद्धांजलि भी माना जा सकता है - इशारों इशारों में। इस फ़िल्म में 102 साल के अमिताभ बच्चन के चरित्र का गेटअप प्रसिद्ध चित्रकार मकबूल फ़िदा हुसैन की तरह हैं जिन्हें हम सबने अघोषित देश निकाला दे दिया था और बेचारे अन्तः अपनी धरती और अपनी ज़मीन से दूर प्राण त्यागने को अभिशप्त हुए। कहा जाता है कि वो अमिताभ ही हैं जिन्होंने फ़िल्म के निर्देशक के सामने अपने चरित्र का गेटअप मकबूल फिदा हुसैन की तरह रखने का प्रस्ताव दिया जिसे स्वीकार कर लिया गया और जिन्हें हमने जीते जी मार डाला आज वो रुपहले पर्दे के मार्फ़त पूरी दुनियां में सजीव हो रहें हैं। अब यह एक कलाकार का दूसरे कलाकार के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि नहीं तो और क्या है? वैसे भी जब बात सीधे-सीधे कहने में भावनाओं का आहत होने का ड्रामा खुद जोश से खेला जाता है वैसे माहौल में एक कलाकार चुप नहीं होता बल्कि अपनी सच्ची भावनाएं प्रतीकों में व्यक्त करता है, उदाहरण के लिए आप विश्व के उन देशों की कलात्मक अभिव्यक्ति देख सकते हैं जहां बात सीधे-सीधे कहने की आज़ादी उतनी नहीं है और आजकल हमारे भी देश में भावनाएं कुछ ज़रूरत से ज़्यादा ही आहत होकर बेवजह हिंसक भी हो रहीं हैं और उसे सत्ता का मौन समर्थन भी हासिल हो रहा है। अच्छे से अच्छा बड़बड़िया नेता इन बातों पर मनमोहन हो जा रहे हैं और उनका मौन अन्तः गलत का समर्थन ही हो जाता है। बहरहाल, वोट बैंक की राजनीति जो ना कराए!
इस फ़िल्म पर अगर इससे ज़्यादा बात किया तो आपका फ़िल्म देखने का आनंद ही ख़त्म हो जाने का ख़तरा है इसलिए जाइए और यह फ़िल्म देख आइए, अगर अब तक नहीं देखे हैं तो। आप अमिताभ बच्चन को पसंद करते हो या ना करते हों, आप ऋषि कपूर के प्रशंसक हों ना हो, आप निर्देशक उमेश शुक्ला के नाम से परिचित हों या ना हों; आपने नाटक के क्षेत्र में सौम्य जोशी का नाम सुना हो या ना सुना हो - इस बात से कोई फ़र्क नहीं पड़ता। तमाम बातों में एक बात यह कि इस फ़िल्म से कुछ नहीं तो जीवन को जीने का सलीका ही सिख लीजिए, क्योंकि यह फ़िल्म नहीं बल्कि एक फिलॉसफी है जीवन को जीवन की तरह जीने का और अगर इस फ़िल्म को देखने के पश्चात भी अगर आपके जीवन में कोई बदलाव नहीं आता तो मुझे आपसे कुछ नहीं कहना। 
सनद रहे, जिसे हम रुकावट मानते हैं वो दरअसल एक चुनौती होता है, जिसे पर कर लिए तो सार्थकता हाथ लगती है नहीं तो जो है वो तो है और होगा ही।

Wednesday, February 7, 2018

नाटक बिदेसिया का एक किस्सा

1980 का दशक था। उस वक्त भिखारी ठाकुर लिखित और संजय उपाध्याय निर्देशित बिदेसिया नाटक तीन घंटे से ऊपर का हुआ करता था। 25 मिनट का तो पूर्व रंग हुआ करता था अर्थात् बिदेसी, बटोही, प्यारी सुंदरी और रखेलिन की कथा नाटक शुरू होने के 25 मिनट बाद ही शुरू हुआ करता था। अब तो पता नहीं कैसे यह भ्रम व्याप्त हो गया है कि डेढ़ घंटे से ज़्यादा का नाटक कोई देखना ही नहीं चाहता जबकि अभी भी कई शानदार नाटक ऐसे हैं जिनकी अवधि ढाई घंटे के आसपास है। अभी हाल ही में रानावि रंगमंडल ने दो मध्यांतर के साथ 6 घंटे का नाटक किया और लोगों ने भी छः घंटा देखा। अभी हाल ही में कई शानदार फिल्में आईं हैं जो तीन घंटे की हैं। आज भी गांव में लोग रात-रात भर नाटक (!) देखते हैं। तो शायद दोष लोगों यानी दर्शकों का नहीं है; शायद अब कलाकारों (लेखक, निर्देशक, परिकल्पक, अभिनेता आदि) में ही वह दम खम नहीं है कि वो डेढ़ घंटे से ज़्यादा वक्त तक लोगों में रुचि बनाकर रख सके।
बहरहाल, 80 के दशक में भी बिदेसिया के सारे प्रदर्शन टिकट लगकर किया जाता था लेकिन तब भी शो हाउसफुल हुआ करते थे। बहुत से लोग इस नाटक के फैन हो गए थे। वो किसी भी प्रकार इसका सारा शो देखना चाहते थे। पटना में कुछ तो ऐसे भी थे जो पूरे परिवार के साथ हर संभव प्रयास करके नाटक के सभागार में चले आते थे। खैर, मूल किस्सा यह है कि नाटक में प्यारी सुंदरी का किरदार करनेवाली अभिनेत्री के परिवार वाले कुछ शर्तों के साथ अभिनय करने देने के लिए राज़ी हुए थे। तो हुआ यूं कि उस दृश्य में जब बिदेसी कलकत्ता से घर वापस आता है तो बिदेसी की भूमिका कर रहे पुष्कर सिन्हा ने उत्साह वश मंच पर आंख मार दिया जिसे सभागार में बैठे प्यारी सुंदरी की भूमिका कर रही अभिनेत्री के परिवारवालों ने देख लिया। फिर क्या था दूसरे दिन के शो में प्यारी सुंदरी ग़ायब। इधर शो का वक्त हो रहा था उधर प्यारी सुंदरी के घर पर जाकर कुछ लोग मनाने की चेष्टा कर रहे थे और बिदेसी के उस आंख मारनेवाली हरक़त के लिए शायद सफाई भी पेश कर रहे थे। उन्हें समझा रहे थे कि यह अभिनेता ने उत्साह में किया है इसके पीछे कोई और मंशा नहीं है। शो का वक्त क़रीब आ रहा था ऐसी स्थिति में एक निर्देशक और पूरी टीम की मनोदशा का अनुमान कोई भी संवेदनशील और कलात्मक मन लगा सकता है। कोई चारा ना देख आख़िरकार नाटक के निर्देशक संजय उपाध्याय ने एक निर्णय यह लिया कि प्यारी सुंदरी की भूमिका वो खुद करेंगें - संवाद, गीत और नाटक की ब्लॉकिंग तो लगभग उन्हें याद तो है ही। फिर क्या था, निर्देशक महोदय ने साया, साड़ी, ब्लाउज़ धारण किया या करने लगे। वो मानसिक रूप से तैयार तो हो ही गए थे अब आहार्य ही तो धारण करना था कि तभी नाटक की प्यारी सुंदरी हाज़िर हुई और उस दिन का शो सुचारू रूप से शुरू हुआ।

#बहुत_किस्से_हैं_कोई_लिखे_तो_सही ।

दमा दम मस्त कलंदर

आज सुबह-सुबह वडाली ब्रदर्स का गाया हुआ दमा दम मस्त कलंदर सुन रहा था. गाने के दौरान उन्होंने फ़कीर मस्त कलंदर से जुड़ा एक अद्भुत किस्से का ...